असली हकदार
असली हकदार
मेरे ससुराल जाने में केवल कुछ दिन ही बाकी थे लेकिन मम्मी ने मुझे अभी तक कहा भी नहीं कि बेटा अपनी पसन्द के कपड़े और अन्य चीजें ले आ।
बचपन से ही मैं देखती आ रही हूँ कि हमारे बड़े परिवार में कभी कोई बुआ, दीदी जब भी ससुराल से आती तब मम्मी उन्हें कुछ न कुछ उपहार में देती थीं।
कई बार ऐसा भी होता था कि हमारी इच्छाओं की पूर्ति सीमित होती थी क्योंकि वह मद अन्य मेहमानों पर खर्च हो जाता था।
मैं हमेशा सोचती थी कि जब मैं ससुराल जाऊंगी तब मम्मी मुझे तो उपहारों के ढेर लगा देंगी।
परन्तु यहाँ स्थिति उल्टी है।
अंत मे मुझसे रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठी, "मम्मी .. चार दिन बाद मैं ससुराल जा रही हूँ, मेरी शॉपिंग कब करवाएंगी आप ?
माँ बोली, "क्या चाहिए तुम्हें बताओ ? लिस्ट बना लो आज ही ले आते हैं।"
"लिस्ट बना लूं ! लेकिन आप खुद ही दिलवा दो न तरह तरह के कपड़े और अन्य सामान, जैसे बुआ, दीदियों को हमेशा देती आई हो।"
मैं मेरा रोमांच रोक न पाई और बोल पड़ी।
मम्मी हँस पड़ीं और बोलीं, "अच्छा यह बात है, बेटा वह सब जरूरतमंद होती थीं और परम्पराएं भी ऐसी थीं कि पीहर से लाकर ही कपड़ा पहनो, जब बुआ वगैरह आती थीं, तब हम लोग उनकी जरूरतें पूरी करते थे उन उपहारों के माध्यम से।
आज जमाना बदल गया है और तुम्हारे ससुराल में भी कोई कमी नहीं है तुम खुद भी अच्छा खासा कमा लेती हो, फिर बेवजह की फिजूलखर्ची क्यों ?"
"बेटा,अपनी संतान के लिए तो हर माँ बाप करते हैं लेकिन अन्य की सहायता किस माध्यम से की जाए वही वास्तव में पैसे का सदुपयोग है।"
आज मुझे मेरी माँ की ऊँचाई का भान हो चुका था।