शीशी में बंद गुड़िया
शीशी में बंद गुड़िया
"अकेली हो क्या ...?" अचानक जानी पहचानी सी आवाज़ सुनकर सुनिधि चौंक गयी। अपने बिस्तर पर बैठी पेपर पढ़ रही थी। बच्चे स्कूल व पति ऑफ़िस जा चुके थे। कामवाली काम करके चली गयी।
बड़ा जटिल प्रश्न था। अब करे तो क्या करे। रोज़ कई घंटे तो टी वी से कट जाते है बाकी फोन पर गपशप होकर गुज़र जाते हैं।वही खाना पीना और सोना।
"कितनी सुखी जीवन है न। पति की अच्छी नौकरी प्यारे बच्चे नौकर चाकर ....सब कुछ तो है फिर यह खालीपन क्यों है ?"अक्सर सुनिधि सोचती है।
"क्या सोच रही हो सुनिधि ?"फिर आवाज़ आई ।
"अं..क..ककुछ नहीं ...कुछ नहीं ।"सुनिधि ने हकलाते और घबराते हुए कहा ।
"डरो मत ...मैं हूँ ....तुम्हारी अंतरात्मा ...। "
"हाँ बोलो। "सुनिधि का भय काफूर हो गया। जैसे सूरज की रोशनी के आगे छोटे छोटे बादल टिकते नहीं ।
"तुम पूरब में निकल कर पश्चिम में छिपने वाला सूरज हो यह भ्रम मत पालो। तुम आत्मा की तरह अजर और शक्तिमान हो । सूरज कभी छिपता नहीं वह अजर अमर निरंतर यूँ ही चलता रहता है। कुछ देर के लिए आँखों से उसकी ओझलता को हम छिपने का भ्रम पाल लेते हैं ।
ऐसे ही स्त्रियां अपनी शक्ति को नहीं पहचानती तुम्हारी तरह। अपनी शक्ति को पहचानो और कुछ अलग करने की कोशिश करो। दुनिया को कोई विशिष्ट तोहफ़ा दो अपने कर्म से। बहुत काम है। ग़रीब बच्चों को पढ़ाओ। मजबुरों का सहारा बनो। यूँ ही वक्त को जाया मत करो ।
यह भ्रम मत पालो कि तुम वक्त को काट रही हो वरन वह तो तुम्हारे हाथो से रेत के मानिंद सरकता जा रहा है।
मनुष्य जीवन को सार्थक करो। स्त्री जाति को नई पहचान दो। उठो आगे बढ़ो और कुछ करो। शीशी में बंद सुन्दर सी गुड़िया मत बनो। कर्म की भट्टी में तपो और कुंदन बनो। "आँख बंद करके सुनिधि सब सुनती रही। आत्मा मुस्करा रही थी। एक आलौकिक तेज़ सुनिधि के चेहरे पर छा गया आत्मविश्वास का तेज़ ।
वह उठी घर की अलमारियों में पड़ी किताबें कॉपियां उठाई और निश्चय किया कि आज से कुछ ग़रीब बच्चों को जाकर चिह्नित करेगी और उनको पढ़ा कर अपने समय का सदुपयोग करेगी ।