नाम की मोहब्बत
नाम की मोहब्बत
आज फिर वो पार्क में बैठी अपने माज़ी को याद कर रही थी। इन 5 सालों में कुछ भी तो नहीं बदला था सिवाय इसके कि हर गुज़रते दिन के साथ उसे अपने नाम से और नफ़रत होती जाती।
उस नाम से जिसे कभी वो कहता था,
"तुम्हारा नाम कितना अलग है ! बिल्कुल तुम्हारी तरह !"
आज उसे वो सारी तारीफें सुई की तरह चुभती थीं। अभी वो अपने माज़ी के वर्क को पलट ही रही थी कि किसी ने उसका नाम पुकारा, उसी मोहब्बत और अपनेपन से, उस लहज़े को तो वो भीड़ में भी पहचान सकती थी...।
नम होती आंखों और तेज़ होती धड़कन के साथ जब वो पलटी तो सामने वो ही था ! उसका नाम पुकारते हुए पर नहीं, वो पुकार उसके लिये नहीं थी। वो तो एक छोटी बच्ची को गोद में लिये प्यार कर रहा था। अचानक से उसकी आंखों के ठहरे आँसू और उसके दिल पर जमी शिकायत की धूल, दोनों ही बह निकले।
उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कुराहट थी। वो अब भी उसकी यादों में थी।
उन दोनों का नाम अल्लाह ने जोड़ रखा था...!