काश ऐसा होता
काश ऐसा होता
"नहीं बस अब और नहीं !"
"प्लीज मुझे छोड़ो !"
"ओ माँ मैं मर गयी !"
बगल के घर से आती आवाजों से नितिन का मन अशांत हो उठा ।
अपनी नमिता दीदी के शरीर पर पड़े नीले निशान और जीजा की दरिन्दिगी सालों बाद फिर याद आ गयी। तब वो छोटा था। कुछ करने के काबिल होता उससे पहले ही चीख-पुकार की जिंदगी छोड़ उसकी दीदी तारा बन आकाश में पहुँच चुकी थी। दीदी को तो न्याय नहीं दिला पाया; पर अब किसी भी ऐसे अत्याचार की गंध भी उसे आती तो वो पीड़िता की मदद करने से रुक नहीं पाता था।
नए पड़ोसी मीता और सचिन अच्छे भले से लगे थे । पर यह क्या ? सभ्यता के मुखौटे के पीछे छुपा पत्नी को पांव की जूती समझने का दम्भ, यहाँ भी मौजूद ! नितिन से रुका नहीं गया। तुरंत उनके घर पहुँच गया।
घंटी बजा कर इस अत्याचार को रोकने का कर्तव्य निभाता इससे पहले ही अंदर से आती आवाजें सुन हाथ ठिठक गए।
"तुम बहुत दुष्ट हो। कितना गुदगुदाया मुझे। अब मेरी बारी है, बच्चू तुम्हे गुदगुदी कर -कर के तुम्हारे आंसू नहीं निकलवा दिए तो मेरा नाम मीता नहीं। ""मीता नहीं तो क्या पपीता रखोगी अपना नाम ?" सचिन की आवाज आयी। " पपीता ! मैं पपीता लगती हूँ तुम्हें। ठहरो अभी मजा चखाती हूँ। " अंदर से आती आवाजें सुन नितिन की ऑंखें नम हो गयी। वापस अपने घर की तरफ बढ़ते हुए दिल में एक ही हूक उठ रही थी।
काश सालों पहले, नमिता दीदी की चीख -पुकार के पीछे भी लात -घूंसों की जगह ऐसी ही चुलबुली छेड़छाड़ छुपी होती।
काश !