मन की व्यथा
मन की व्यथा
मन में उमड़ती सवालो की त्रिवता इतनी थी की अगर ये समुन्द्र को मिल जाती तो धरती पानी रूपी सवालो से तर-तर हो जाती । मन की व्यथा इतनी थी की बताते रात बीत जाती मगर उमड़ती हुई ये सैलाब बहार आने को तत्पर थी। तब ही मेरी नजर मेज में रखे कागज और कलम पे रुकी और मैंने अपनी व्यथा को कागज पे उतारना चाहा। लिखते हुए कंपकपाते हाथ मुझे और भी जज्बाती बना रही थे। नम हुई आँखों में बीते हुए कुछ वर्ष घूम रहे थे । क्या मै इतना बुरा हूँ? क्या मैं कभी भरोसे के लायक ही न बन सका ? सवालो की सैलाब में मैं बह गया था । मुझे इस बात का खेद था की मैं कभी भी अपने माता -पिता की नज़रो में अच्छा न बन सका । हर दफ़ा मेरी गलतियों के बोझ ने मेरी नजरों को झुका दिया । गलतियां इतनी थी की इस जन्म में इनका प्रयाश्चित असंभव सा लग रहा था । दिल की गहराई से सिर्फ यह सुनाई दे रहा था की "अब तो सुधर जाओ" । मगर कहीं न कहीं उसी दिल के किसी कोने से यह भी आवाज आ रही थी की आखिर मैंने ऐसा क्या किया? क्या मैं इस योग्य भी नहीं की अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जी सकूँ? मुझे पता है की माँ -पिताजी मेरे बारे में कभी भी बुरा नहीं सोचेंगे ,मगर मैंने भी अपना भविष्य उज्वल ही देखा है । मेरी जीने की तारिकाएं अलग जरूर है, मगर मकसद तो सिर्फ एक ही है -'कामयाबी' । जिसे माँ -पिताजी मेरी कमजोरी समझ बैठे है , काश की कोई उन्हें यह समझा पाता की वहीँ तो मेरी ताकत है । आज जिस लड़के को माँ-पिताजी ने छठा हुआ कुपुत्र समझे है , काश की कोई उन्हें यह समझा पाता की वही कुपुत्र हर दिन अपने आप को संवारने में जुटा रहता है । हाँ , मैंने गलतियाँ बहुत की , मैंने हर दफ़ा उन्हें झूठ बोला , मैंने हर दफ़ा उन्हें धोखा दिया । मगर काश की उन्हें कोई यह समझा पाता की उनके डर ,उनके दवाब ने मुझे यह करने पर मजबूर किया । नम हुई आँखो से जब आसुओं की नदी फूटी तो अचानक से होश आया । गम की सियाही मैं डूबी यह रूह उपरवाले की शरण में जाने की माँग कर रहा था । काश की कोई इस टूट के बिखरे जिस्म को बटोर के मुझे एक नई जिंदगी दे पाता ।