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फेसबुक पर तीन प्रेमी युगल

फेसबुक पर तीन प्रेमी युगल

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“इधर फेसबुक पर बने रहना एक फैशन हो गया है। मैं भी उस फैशन का शिकार हूँ। बच्चों और बीवी के साथ समय न बिताकर इस वर्चुअल कम्युनिटी सेंटर पर अपना समय बिताता हूँ। यह गलत है, मगर क्या कीजिए एक लत है। जिस तरह धूम्रपान और शराब की आदत होती है, उसी तरह ऑनलाइन रहना की भी एक व्यसन है”, डॉ. कोठारी शहर के जाने-माने मीडिया विशेषज्ञ थे। विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में आज ‘वर्चुअल दुनिया और हमारा समाज’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया था। डॉ. कोठारी के अतिरिक्त, मनोवैज्ञानिक डॉ. इला त्रिपाठी एवं शिक्षाविद डॉ. प्रेमशंकर उपाध्याय जैसे कुछ महत्वपूर्ण वक्ता इस विषय पर अपने विचार अभी रहनेवाले थे। कार्यक्रम की रूपरेखा में स्वयं आर्ट्स फैकल्टी के डीन डॉ. शिवशंकर श्रीवास्तव ने पूरी रुचि ली थी। कार्यक्रम को रोचक, संवादपरक और सार्थक बनाने की पूरी कोशिश की गई थी। विश्वविद्यालय प्रशासन और विद्यार्थी-संघ ने कदम से कदम मिलाकर इस महत्त कार्यक्रम को इसकी परिणति तक पहुँचाया था। जान-बूझकर इस कार्यक्रम को देर शाम में रखा गया था ताकि किसी विद्यार्थी को इसके नाम पर क्लास बंक करने का कोई बहाना न मिल जाए। अधिक से अधिक संख्या में विद्यार्थी इस कार्यक्रम में भाग लें और सिर्फ भाषणबाजी से लोग बोर न हो जाएं, इनका ध्यान रखते हुए कार्यक्रम के अंत में अंतर महाविद्यालय स्तर पर इसी विषय को लेकर एक नाटक का मंचन भी किया जाना था। नाटक का नाम रखा गया था ‘फेसबुक’। मगर नाटक के मंचन में अभी कुछेक घंटों की देरी थी। अभी तो भाषणबाजी ज़ारी थी। हॉल में बैठे कई श्रोता बाज़ाब्ता कलम-डायरी सहित महत्वपूर्ण बिन्दुओं को नोट करते जा रहे थे। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जगत के कई पत्रकार वहाँ उपस्थित थे। डॉ. कोठारी की बुलंद आवाज़ आगे जारी थी, “साथियों, हमें संतुलित रूप से अपने व्यक्तित्व का विकास करना है। हम देश के एक जिम्मेदार नागरिक हैं। हमें यहाँ सक्रिय कुछ गलत मानसिकता वाले लोगों के दुष्प्रचार से भरे पोस्ट के प्रभाव में नहीं आने की ज़रूरत है।” 

 

श्रोता समूह में मेघना वर्मा अपनी सहेली ममता चौधरी के साथ कुछ सट कर बैठी हुई थी। दोनों सहेलियाँ भाषण सुन रही थीं मगर उनके बीच परस्पर चुहल का दौर ज़ारी था। यह कुछ ऐसा था कि झमाझम बारिश में पेड़ भीग रहे हों और साथ में तेज चलती हवा से वे झूम भी रहे हों। दोनों लड़कियाँ एक-दूसरे से सटकर कार्यक्रम के बीच-बीच में बातें किए जा रही थीं और दबी आवाज़ में हँसती जा रही थीं। उनका यूँ धीरे-धीरे हँसना, रुकना और फिर हँसना कुछ ऐसे था जैसे बूँदा-बाँदी शुरू होती हो और फिर रुक जाती हो। जब आसपास के लोग इन दोनों की बातचीत से कुछ ‘डिस्टर्ब’ होते तो वे इनकी ओर घूर कर देखते। ऐसे में ये दोनों सकपकाकर चुप हो जातीं। मगर चुप रहने की यह अवधि कुछ ही देर के लिए होती। मेघना तो फिर भी थोड़ा डरती थी मगर अपूर्व सुंदरी ममता चौधरी का आत्मविश्वास देखने लायक था। उसे अपनी शर्तों पर अपना जीवन जीने की आदत थी। उसे इन भाषणों में बहुत रुचि नहीं थी फिर भी वक्ताओं पर उपकार करने की मुद्रा में उन्हें सुने जा रही थी। उसे तो फेसबुक पर हो रहे नाटक में भाग लेना था, मगर ऐन चार दिन पहले नाटक के निर्देशक से उसके ‘रोल’ को लेकर उसका कुछ ऐसा झगड़ा हुआ कि उसने स्वयं को इस नाटक से अलग कर लिया। मेघना और ममता के ‘ब्यॉय फ्रेंड’ क्रमशः मनीष शर्मा और गौरव शुक्ला कुछ ही देर में शुरू होनेवाले ‘फेसबुक’ नाटक में भाग लेने वाले थे। इसकी तैयारी कोई डेढ़ महीने से की जा रही थी। भाषण के कार्यक्रम के ठीक बाद नाटक का मंचन था। मगर अभी तो वक्ताओं में दो अन्य लोगों का बोला जाना शेष था।

 

मेघना ने अपनी दाईं कलाई पर बँधी घड़ी की ओर नज़र दौड़ाई। शाम के चार बजने वाले थे। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच आईं। वह अपनी सहेली की ओर परेशान नज़रों से देखती हुई बोली, “यार ममता, आज तो घर पहुँचते-पहुँचते बहुत देर हो जाएगी। अभी तो दो दो लोग बोलने के लिए और बचे हुए हैं। और इसके बाद नाटक का मंचन होगा। तुम मेरी मम्मी को तो जानती ही हो। ज़रा सी देर हो जाने पर कैसे सिर पर पहाड़ उठा लेती है।”

 

ममता ने जान-बूझकर चुटकी ली, “तो चली जाना। इन दोनों भाषणों को सुनकर चली जाना। नाटक में क्या रखा है! कभी और देख लेना!”

 

मेघना ने आँखें तरेरते हुए अपनी सहेली को डपटा, “देख ममता, मेरा जी मत दुखा। मैं पहले से ही दुखी हूँ। और हाँ, मैं यह भाषण-वाषण सुनने नहीं आई हूँ। ये सारी बातें तो हमें भी पता है। महत्व तो जीवन में इनको ढालने का है। तुम्हीं बताओ, क्या आज फेसबुक और ट्विटर के वर्चुअल पन्नों को हमारे जीवन से हटाया जा सकता है! ये हमारे जीवन के अब उतने ही आवश्यक हिस्से हो गए हैं, जितनी की कभी किताबें हुआ करती थीं।”

 

ममता को मानो मौक़े की तलाश थी। तुरंत लपक लिया उसे और मेघना से कहा, “तो मेरी फूल सी दोस्त, क्या अब सचमुच किताबों का जमाना लद गया? तो अब तुमने मनीष को देने वाली किताबों में चुपके से लाल गुलाब रखना बंद कर दिया होगा। नहीं!”

 

मेघना की जगह कोई और होती तो घबरा जाती, मगर मेघना अपनी सहेली की आक्रामकता को भलीभाँति समझती थी। उसकी मारक अदा और अप्रकट होशियारी को भी समझती थी। उसे बरजती हुई बोली, “ज़्यादा सयानी मत बन ममता की बच्ची! तू जैसी ख़ुद है न, औरों के लिए भी वैसा ही सोचती है।”

 

ममता, मेघना की ठुड्डी को पकड़ती और दबाती हुई बोली, “ममता मेरी जान, मुझे किसी लड़के को पटाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लड़के मेरे पीछे ठीक वैसे ही आते हैं, जैसे फूलों के पीछे भँवरे। यह तो गौरव की किस्मत अच्छी है कि उसे मैं इतना भाव देती हूँ। मक्खी की तरह भिनभिनाते लड़कों के बीच उसे मैंने चुना है।”

 

मेघनाथ को मालूम था कि ममता को अपनी सुंदरता का जबर्दस्त गुमान है। मन ही मन सोचा, लड़के भी कैसे बुद्धू होते हैं! बस शहद देखकर पीछे पड़ जाते हैं। उस शहद में दंभ और चालाकी के कितने ज़हर मिले हुए हैं, उन्हें इनसे कोई मतलब नहीं होता। ख़ैर, वैसे भी उसे इसका कोई शौक नहीं था कि ममता की तरह वह लड़कों को यूँ अपने पीछे घुमाती फिरे। वह मनीष को चाहती थी और उससे विवाह के सपने देखती थी।

 

दोनों के स्वभाव में ज़मीन-आसमान का अंतर था, मगर दोनों की दोस्ती को इससे कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ता था। उसके लिए ब्यॉय फ्रेंड की संख्या, ऊँच-नीच का कोई मानक नहीं था। मेघनाथ जानती थी...वह जैसी है, वैसी ही रहेगी। और ममता भी अपना मिज़ाज़ क्यों बदलेगी! हरेक का अपना स्वभाव होता है। बस मामले को शांत करने की गरज़ से बोली, “अच्छा मेरी रानी मधुमक्खी, मैं अपनी बात वापस लेती हूँ।”   

..............

 

ममता फर्स्ट इयर में ‘राजहंस कालेज’ की साल भर पहले मिस काले रह चुकी थी। लड़के उसके एक इशारे पर लट्टू की तरह नाचते थे। छह फुट की छरहरी ममता अपनी कमर बलखाती हुई जिधर घूम जाती, काले के सभी लड़कों की निगाहें उधर मुड़ जातीं। मगर ममता की निगाहें इसके पार कहीं देख रही थीं। वह अपने करिअर पर बड़ी फोकस्ड रहती थी। उसके सपनों में मुंबई की माया-नगरी अक्सर आया करती थी। वह वहाँ की फिल्मों में काम करना चाहती थी। अपने को सँभालना और किसी भावनात्मक ऊहापोह से स्वयं को बचाए रखना उसे आता था। वैसे भी अपने रंगीन मिज़ाज़ के अनुरूप वह किसी एक के प्यार के साथ बँधकर नहीं रह सकती थी। उसे ख़ुद पर और ख़ुद की सुंदरता पर बड़ा नाज़ था। वह उसका इस्तेमाल सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए करना चाहती थी। उसे यूँ प्यार-व्यार के भावुक और मूर्खतापूर्ण चक्करों में ज़िंदगी के बेहतर पलों को ज़ाया नहीं करना था। एक दिन प्यार की परिभाषा देते हुए उसने मेघनाथ से कहा, “दिमाग जिसे मूर्खता कहे और दिल जिसे पागलपन समझे, प्यार एक वैसी ही संकल्पना है।”

 

मेघनाथ क्या बोलती, बस हँसकर रह गई। वह मनीष से प्यार करती थी और उसे एक अद्वितीय अनुभूति मानती थी। वह जानती थी, ममता उसपर कोई व्यंग्य नहीं कस रही, बल्कि अपने भीतर की कशमकश को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रही है।

 

मगर हर तरह से ‘प्रैक्टिकल’ ममता को भी टाइम-पास के लिए ही सही, एक ब्यॉय फ्रेंड की ज़रूरत थी। उन दिनों गौरव उसकी इस ज़रूरत को पूरी कर रहा था। ममता को इसकी कोई परवाह नहीं थी कि गौरव का प्यार उसके लिए एक सच्चा प्यार है अथवा नहीं। उसके पास आम लड़कियों वाली सारी अदाएं थीं मगर वह इन अदाओं का व्यावसायिक दोहन करना चाहती थी। इधर, गौरव उसकी हर अदा पर मरता था। वह उससे सच्चा प्यार करता था और उसके लटकों-झटकों को स्वयं के लिए विशिष्ट मानता था। रंगमंच के स्टेज़ पर हर तरह के अभिनय में दक्ष गौरव को ममता के अभिनय के पीछे का यह छलावा शायद नहीं दिख पा रहा था। सावन के अंधे को जिस तरह चारों ओर हरा ही हरा दिखता है, वैसे ही गौरव को ममता के प्रेम में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही दिख रहा था। और ऐसा हो क्यों नहीं, जिस मादकता और गर्माहट से वह उससे मिलती थी, वह अपने को इस पृथ्वी का सबसे खुशकिस्मत लड़का मानता था। उसे क्या मालूम था, ममता की महत्वाकांक्षा के हाईवे पर वह एक ‘मोर्टेल’ मात्र है।     

...............

 

मेघनाथ पटर-पटर किसी वाचाल बच्ची की तरह बोले जा रही थी, “कितनी काम की बातें हम पल-भर में जान लेते हैं। मज़े की बात यह कि अपने विश्वविद्यालय के समूह ने फेसबुक पर ही तो इस सूचना को फ्लोट किया। तभी यहाँ इस प्रोग्राम में इतने लोग जमा हो पाए। और हाँ, नाटक-वाटक में मेरी कोई रुचि नहीं है। यह तो तू भी जानती है। यह तो मैं बस मनीष की खातिर यहाँ बैठी हुई हूँ। उस बेचारे का दिल न दुख जाए, इसलिए।” हॉल की नीम-रोशनी में ममता ने मेघनाथ के गालों को लाल होते हुए देखा। वह मुस्कराकर रह गई।

 

ममता सोचने लगी, गौरव के जिक्र से उसका तो यह हाल नहीं होता। मन ही मन एक कौंध उसके भीतर उपजी..मेघनाथ उससे कितनी अलग है। मगर तत्क्षण ममता के अंतःकरण ने उसे दुरुस्त किया...तुम मेघनाथ से कितनी अलग हो। तुम दूसरी लड़कियों से बहुत आगे की सोच रखती हो!

 

मन ही मन ममता ने प्रतिवाद किया...होने दो। मैं जैसी हूँ, ठीक हूँ। क्या अपने करिअर की चिंता करना स्वार्थी होना है! क्या मैंने एक बार भी गौरव को शादी का वादा किया है! शादी तो ख़ैर बहुत दूर की बात है, मैंने क्या उससे एक बार अपने प्यार का इज़हार भी किया है!

 

उसका अंतर्मन एक बार फिर उसके सामने था...लेकिन वह तो इस आस में ही तुम्हारे आगे-पीछे करता है। वह तो तुम्हारी चुप्पी को तुम्हारी हाँ मानकर बैठा हुआ है।

 

वाचाल और हाज़िर जवाब ममता ने पलटते ही कहा...तो क्या इसमें भी मेरी गलती है!..

 

उसके अंदर से फिर किसी नचिकेता ने सवाल किया...तो फिर उसे तुम ही मना कर दो। उसका दिल जो कल टूटना हो, वो आज ही टूट जाए। ऐसा न हो कि उस बेचारे को कल ऐसा झटका लगे कि वह किसी लायक न बचे।

 

कहीं न कहीं सकपकाती ममता ने स्वयं को संभाला और कुछ हिचकते हुए मगर पूरी अदा से अपनी मासूमियत को बचाते हुए अपनी अंतर्चेतना को जवाब दिया, “तो मैं क्या करूँ। वैसे किसी का दिल इतना कमज़ोर भी नहीं होना चाहिए। और उसमें भी लड़के का...हरगिज़ नहीं।”

    

ममता की तंद्रा तब भंग हुई जब मेघनाथ ने उसे टोका, “ममता की बच्ची! ये अपने आप से क्या बातें किए जा रही हो!”  

 

घबराहट या कहें कुछ झेंप में ललाट पर आ गई अपनी लट को ममता ने एक खास अदा से पीछे की ओर किया और अपने भीतर चल रही उठा पटक को विश्वासपूर्वक दबाती हुई सहज भाव से बोली, “क्यों ...कुछ भी तो नहीं। तुम्हें ऐसा क्यों लगा!”

 

मेघनाथ ने ज़्यादा कुरेदना ठीक नहीं समझा। वैसे भी अभी वह मनीष के बारे में ज़्यादा सोचना चाह रही थी। वह इस समय ड्रेसिंग रूम में क्या कर रहा होगा! कैसा दिख रहा होगा! क्या मेकअप करने वाली लड़कियाँ उसके एकदम पास तो नहीं चली जाएंगी!..

 

उसके मानस-पटल पर असुरक्षा बोध के घने श्यामवर्णी बादल का एक टुकड़ा आ उभरा। पलकर को उसे लगा,एक बार जाकर देख आए। फिर उसने ख़ुद को ही समझाया...इतना भी शक करना ठीक नहीं है! उसे कहाँ-कहाँ तुम अपने पल्लू से बाँध कर रखोगी! वैसे भी वह तुम्हारा ब्यॉय फ्रेंड है, कोई हसबैंड नहीं। उसके चेहरे पर लाली की एक रेखा कौंध पड़ी। दिल की सुरंग में कहीं बैठी सच्चाई की रोशनी ने बाहर झाँका, “हसबैंड नहीं है तो क्या हुआ..होनेवाला तो है!”

फिर स्वयं से ही सवाल किया..और अगर उसने धोखा दे दिया तो..

उसने दाँत पीसते हुए स्वयं को समझाया... दे के तो दिखाए! ज़िंदा नहीं छोड़ूँगी कमबख़्त को।

उसकी मुट्ठियाँ अपने आप भींच गईं।     

ममता ने देखा और अनदेखा किया।

 

दोनों सहेलियों ने एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्करा दिया। दोनों शायद एक-दूसरे के भीतर चल रहे इस आत्म-संवाद के खेल को अच्छी तरह समझ रही थीं।

 

ममता ने कहा, “देखो, अब डॉ इला त्रिपाठी बोलेंगी। ढलती उम्र में भी क्या पटाखा लगती है यार”!

मेघनाथ ने उसे बरजा, “तू भी न ममता..हद करती है। वह हमें पढ़ाती है।”


ममता को मज़ा आने लगा, तो क्या हुआ डार्लिंग! उसका मन नहीं करता होगा! और क्या ऐसी मिसरी पर चींटों ने बिना रेंगे छोड़ा होगा!”

 

मेघनाथ को अचानक तेज की हँसी आई, मगर किसी तरह उसने उसे काबू करते हुए स्वयं को भाषण पर केंद्रित करने की कोशिश की।     

 ..........


मंच पर डॉ. इला त्रिपाठी ने भली-भाँति मोर्चा संभाल लिया था। उनकी आवाज़ में एक खनक, मिठास और आत्मीयता थी। फेसबुक पर लंबे समय तक चिपके रहने के मनोवैज्ञानिक पहलू की ओर इशारा करते हुए डॉ. इला त्रिपाठी बतला रही थीं, “प्यारे विद्यार्थियों, अगर हम फेसबुक पर लगातार बैठे रहें तो हम वर्चुअल दुनिया को ही वास्तविक मान लेते हैं। हमारी आँखें और कमर तो शीघ्र जवाब दे ही देंगी, हमारे अंदर कई ऐसी चीजें विकसित होने लगेंगी, जिसका हमें अभी आभास नहीं है। एक तरफ वास्तविक समूह में हमारा आत्मविश्वास खोने लगता है तो दूसरी तरफ अपने पोस्ट पर कम और दूसरे पर अधिक लाईक देखकर, सापेक्षिक वंचना का प्रभाव कहीं न कहीं हमारे अवचेतन पर पड़ना शुरू हो जाता है।”    


डॉ. इला त्रिपाठी ने आगे अपनी मनोवैज्ञानिक व्याख्या ज़ारी रखी, “मित्रों, कई बार समाज के कुछ गलत तत्व फेसबुक पर फेक अकाउंट खोलकर आपको प्रलोभित करते हैं, अपने आकर्षण में आपको फाँसते हैं, आपका ई-मेल माँगते हैं और फिर क्रमशः एक अश्लील दुनिया की ओर आपका प्रस्थान होने लगता है। तमाम बंदिशों में जीने वाले हमारे समाज में यह उन्मुक्तता आपको अच्छी लगने लगती है मगर उससे उपजी विभिन्न विकृतियाँ धीरे-धीरे आपके अंदर घर करने लगती हैं और किसी ड्रग-एडिक्ट की तरह आप उसके नियमित प्रयोक्ता हो जाते हैं। इसे एक स्वस्थ मानसिकता के लिए सही नहीं माना जा सकता।”

 

डायस पर खड़ी होकर बोल रहीं डॉ. त्रिपाठी कुछ देर के लिए चुप हुईं। डायस के नीचे रखी दराज़ में से मिनरल वाटर का बोतल खोला और कुछ देर तक अपने गले को ठंडे पानी से तर करती रहीं। उन्होंने माइक को ऑफ नहीं किया था। संवेदनशील माइक ने मंच पर वक्ता के गले से नीचे उतरते पानी की आवाज़ को ऑडिटोरियम में पीछे बैठे लोगों तक पहुँचाया। सुदर्शन व्यक्तित्व की धनी डॉ. इला की त्वचा पारदर्शी थी। पानी को उनकी सुराहीदार गर्दन से उतरता हुआ देखा जा सकता था। कुछ अधेड़ किस्म के प्रोफेसरनुमा लोगों ने खासकर हिंदी एवं संस्कृत के आचार्यों ने उस दृश्य का छककर पान किया।

 

काफ़ी देर से खड़े रहने के कारण डॉ. इला के पाँव थकने लगे थे। अभी-अभी पानी पीने के उपरांत उन्हें कुछ ऊर्जा मिली थी। उन्हें उपस्थित विशाल श्रोता-समूह के समक्ष अपनी बातें जोरदार ढंग और संतुलित रूप से करनी थी। सो उन्होंने इस विषय पर अपनी बातें आगे बढ़ाते हुए कहना शुरू किया, “मित्रों, फेसबुक किसी नशीली दवाइयों के लेने जैसी लत के समान हो रहा है। आप तो पहले क्या क्या पोस्ट करते हैं और फिर उसके लाइक्स को बढ़ाने के लिए हरदम कुछ न कुछ करते रहते हैं। आपको पता नहीं चलता, मगर थोड़ी थोड़ी देर में आपका उस तरफ़ रुख़ करने से आपकी एकाग्रता प्रभावित होती है। आप चिड़चिड़े होते चले जाते हैं और आपको इसका आभास ही नहीं होता। एक वर्चुअल दुनिया आपके आत्मविश्वास पर नियंत्रण रखने लगती है। अगर लाइक्स अधिक तो आप ख़ुश और कम तो आप दुःखी। आप एक अनजाने लक्ष्य के पीछे भागते रहते हैं और आपकी मानसिकता पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। मुझे ‘क़ैसर-उल जाफ़री’ की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं :- 

 

'ये कैसी रहगुज़र है, रोशनी तलवों में चुभती है

किसी ने तोड़ कर बिखरा दिया हो आईना जैसे'


ऐसा लगता है, जैसे अत्यधिक प्रयोग से विज्ञान की ये उपलब्धियां, अधिकांश लोगों को असफलता और निराशा के गर्त में ढकेल रही हैं। वरदान, अभिशाप में तब्दील होते जा रहे हैं। आप सभी, विद्यालय के दिनों से एक निबंध पढ़ते आए हैं ‘विज्ञान : वरदान और अभिशाप’। आप तब से इसे लेकर दोनों दृष्टियों से विचार करते आए हैं। फेसबुक या दूसरे कम्युनिटी साइट्स भी तो आखिर उसी विज्ञान के विस्मयकारी टूल्स है। अब यह हमपर है कि हम इनका उपयोग कैसे करते हैं! या तो इसके ग़ुलाम हो जाएं या फिर इसके उपयोग को लेकर कहीं-न-कहीं हम संयमित रहें।      

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अब तक दो भाषण पूरे हो चुके थे और दोनों वक्ताओं ने पर्याप्त समय लिया था। हॉल के श्रोताओं के भीतर धीरे धीरे थकान के चिह्न दिखने लगे थे। कुछ लोग हॉल से जाने भी लगे थे। जो बचे थे, उन्हें भाषण में कम अपने साथियों के नाट्य प्रदर्शन में अधिक रुचि थी। मंच पर अब तक अपनी बारी के इंतज़ार में बैठे डॉ. प्रेम शंकर उपाध्याय इन सभी दृश्यों का बारीकी से अवलोकन कर रहे थे। वे अपने विद्यार्थियों की श्रवण-क्षमता की सीमा से भली-भाँति परिचित थे। उन्हें अपनी बातों को संक्षेप में रखने में ही भलाई दिखी। उपाध्याय जी विद्यार्थियों के बीच अपनी बातें सूत्रों में बाँधकर कहने के लिए प्रसिद्ध थे। यहाँ भी बोलते हुए बीच बीच में वे कुछ सूत्र परोसने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें भली-भाँति पता था कि अगर विद्यार्थी अपने नोटबुक में कुछ नोट कर नहीं ले गए, तो व्याख्यान के बाद उन्हीं यही लगेगा कि उपाध्याय का बच्चा कोरा गप्प दे गया। आदतन वे कुछ सूत्र प्रस्तुत करते गए और वहाँ बैठे विद्यार्थियों का समूह नोट करने लगा। मसलन....

 

* फेसबुक या कोई भी ऐसा कम्युनिटी साईट सूचना का एक त्वरित माध्यम है। सूचना सर्जनात्मक और विध्वंसक दोनों तरह की हो सकती है। अतः किसी सूचना पर प्रतिक्रियाशील होने से पूर्व हमें उसके स्रोत की विश्वसनीयता और उसके पीछे की असली मंशा को समझने की ज़रूरत है।

 

* आज किसी चित्र, वीडियो, आलेख आदि को सहजतापूर्वक लोगों के बीच कुछ सेकंडों में पहुँचा देने का काम फेसबुक जैसे ये कम्युनिटी साईट बखूबी कर रहे हैं। किसी कार्यक्रम में पहुँचने का निमंत्रण या उसके रद्द किए जाने की सूचना आदि इसके माध्यम से आसानी से और समय की बेहद संक्षिप्त इकाइयों में लोगों को दी जा सकती है।

*  ये सामुदायिक वेबसाइट मूलतः परस्पर संवाद के लिए बनाए गए हैं। यहाँ कोई छोटा होता है न बड़ा। मगर हमारे यहाँ तो लोगों में अहं कूट कूट करके भरा है। मानो यह हमारे डीएनए में शामिल हो गया हो। बेशक बड़े हों कि नहीं मगर जो स्वयं को बड़ा समझते हैं, वे विरले ही आपके पोस्ट को लाइक्स करेंगे। मगर आप हैं कि उनके हाथ में प्लास्टर लगने से लेकर उनके खांसने और उनकी सर्दी जुकाम से संबंधित पोस्ट को भी लाइक्स पर लाइक्स किए जा रहे हैं। ऐसे में आपके भीतर धीरे-धीरे अपने छोटेपन का ख़याल गहराने लगता है और आपके भीतर कुंठा का बीजारोपण शुरू हो जाता है। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। आपको यथासंभव हर तरह की नकारात्मकता से बचना होगा। 

   

डॉ. उपाध्याय ने ऐसी ही कई और महत्वपूर्ण बातें कीं। भाषण के अंत में उन्हें खूब तालियाँ मिलीं। 


...............

   

‘वर्चुअल दुनिया और हमारा समाज’ विषयक आयोजित उस संगोष्ठी में जिसका अब तक जिक्र नहीं गया है, अब उसका जिक्र भी ज़रूरी है। वह और कोई नहीं वहाँ उपस्थित तीसरा प्रेमी जोड़ा था जो आगे से तीन पंक्तियाँ छोड़कर एक किनारे साथ-साथ बैठा हुआ था। दोनों पूरे कार्यक्रम को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे और अपने हिसाब से नोट्स ले रहे थे। बीच बीच में महेश, एक निगाह स्मिता पर मार लिया करता था। स्मिता उसे अपनी ओर इस तरह देखता देख हलका सा मुस्करा देती थी। कभी अपनी डायरी पर झुकी-झुकी स्मिता स्वयं भी एक निगाह महेश की ओर फेंक देती। महेश एक ठंडी आह भरकर रह जाता। फिर दोनों झुककर अपने अपने हिसाब से उद्धरण लिखने लगते। पढ़ाई-लिखाई के बीच प्यार की यह लुकाछिपी दोनों को असीम आनंद से भर देती और दोनों जो काम कर रहे होते, उसमें एक खास उत्साह का रंग शामिल हो जाता। इस वक़्त इस सेमिनार को सुनते हुए दोनों किसी भी महत्वपूर्ण बात को अपने ध्यान से ओझल होने देना नहीं चाहते थे। दोनों एम.ए. पूर्वार्द्ध में पढ़ रहे थे। महेश हिंदी विभाग में और स्मिता समाजशास्त्र विभाग में अध्ययनरत थी। लगभग छह महीनों से इनकी दोस्ती ज़ारी थी जो क्रमशः प्यार में बदलती चली जा रही थी। दोनों अपने अपने विभाग के सीरिअस टाइप के विद्यार्थी थे और उनके प्यार से कदाचित् दूसरे मनचले प्रेमी युगलों को यह संदेश भी जा रहा था कि प्यार सिर्फ मौज़-मस्ती का नाम नहीं है, बल्कि इसमें रूमानियत और अध्ययन, कल्पना और यथार्थ का मिला-जुला रूप भी शामिल हो सकता है। इसका मतलब यह भी था कि मल्टी-प्लेक्स सिनेमा, फेसबुक, ट्विटर और आर्कुट आदि के समय में ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ फिल्मों और गज़लों का दौर भी ज़ारी था।              

..........

  

भाषण का दौर समाप्त हो चुका था। मंच से उद्घोषक ने उद्घोषणा कर दी थी। कुछ ही पलों में  बहुप्रतिक्षित नाटक ‘फेसबुक’ का मंचन होनेवाला था। मंच पर आगे का परदा चढ़ चुका था। पीछे से मेज़ें और कुर्सियाँ हटाई जा रही थीं। निर्देशक कई दिनों के इस रिहसर्ल में बोलते-बोलते इस कदर थक चुका था कि उसने एक आह भरते हुए अस्फुट अंदाज़ में मोनोलॉग किया...बस सब कुछ सही से निपट जाए। फेसबुक, ट्विटर और आर्कुट को आधार बनाकर तैयार किया गया बैक-ड्रॉप लगा दिया गया था। ड्रेसिंग रूम का तापमान बढ़ चला था। कुछ मिनट पहले जो कलाकार कभी आवेश में तो कभी उद्विग्न भाव से बड़े से आदमकद आईने के सामने से गुजरते हुए चहलकदमी करते दिख रहे थे, अब वे मंच पर बढ़ जाने को तत्पर थे। सभी ने स्टेज के पाँव छुए और नज़रों ही नज़रों में एक-दूसरे को बधाई देते हुए अपनी अपनी निर्धारित भूमिका में आ गए। अब वे एक चरित्र मात्र थे।


परदा हट चुका था। चरित्रों पर रोशनी पड़ने लगी थी। इस नाटक में जानबूझकर ज्यादा ‘प्रापर्टी’ नहीं रखी गई थी। नाटक में सभी आधुनिक तकनीक-प्रणालियों का इस्तेमाल किया गया था। पीछे के स्क्रीन पर वीडियो और वृत्त-चित्रों के कुछ हिस्सों को बीच-बीच में ‘रन’ किया जाना था। इधर स्टेज के कभी दाएं तो कभी बाएं कोने पर संबंधित पात्रों के एकालाप/पात्रों के संवादों के माध्यम से नाटक को दृश्य-दर-दृश्य आगे बढ़ाए जाने की योजना थी।  

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नाटक काफी सफल रहा। अंत में नाटक के निर्देशक घोष बाबू सहित सभी कलाकारों ने आपस में हाथ बाँधकर और स्टेज पर अर्द्धचंद्राकर खड़े होकर दर्शकों का अभिवादन और धन्यवाद किया। दर्शकों ने खड़े होकर करतल ध्वनि से उनका उत्साहवर्धन किया। स्टेज पर खड़े दो मित्र कलाकार मनीष शर्मा और गौरव शुक्ला की आँखें दर्शक दीर्घा में बैठी अपनी-अपनी गर्ल-फ्रेंड्स को ढूँढ़ रही थीं। चंद सेकंडों में मनीष की आँखें मेघनाथ से और गौरव की आँखें ममता से दो-चार हुईं। इशारों-इशारों में दोनों का बुलावा आया और दोनों ड्रेसिंग रूम में पहुँच गई। ममता ने सभी के बीच में ही गौरव को अपनी ओर खींच लिया और उसके गले से चिपट गई। गौरव कुछ सकपकाया और झेंप गया, मगर बोल्ड ममता को शर्माना शुरू से ही कुछ दकियानूसी सा लगता था। गौरव को ममता की यह निकटता बहुत प्रिय लग रही थी, मगर उसके अंदर की सज्जनता कुछ झेंप रही थी। उसने धीरे से ममता की बायीं कान में कहा, “डार्लिंग, सभी देख रहे हैं।”


ममता ने उसके होंठों को चूमते हुए धीरे से कहा, “देख लेने दो। ऐसी जीती-जागती फिल्म उन्हें कहाँ देखने को मिलेगी!” मगर अंदर से भूखी शेरनी अपने शिकार को कुछ ठंडा देख उससे अलग हुए बिना उसे उसी हालत में अपने से चिपटाए हुए स्टेज के अंधेरे कोने में ले गई। और फिर देर तक दो साए एक-दूसरे में समा जाने को तत्पर दिखे। शिकार अब शिकारी बन गया था और शेरनी को उसकी इस आक्रामकता का इंतज़ार था। खुले में दोनों जोड़े जितना करीब जा सकते थे, चले गए। काफी देर बाद जब दोनों अलग हुए, तो ममता ने कहा, “आज, रात मेरे घर आ जाओ। मेरे मम्मी-डैडी दिल्ली गए हैं। आज मेरे यहाँ ही रुको। डिनर में गरमा-गरम गोश्त परोसूँगी।” और उसे आँख मारती हुई आगे दोस्तों के बीच सहजतापूर्वक पहुँच गई। गौरव हक्का-बक्का बस सम्मोहित सा उसके पीछे आकर खड़ा हो गया। कितना मज़ा आ रहा था गौरव को यह सब करके मगर वह इसे ममता का अपने प्रति प्यार की संपूर्णता के रूप में देख रहा था। उसने ममता से उसकी दृष्टि जानने की कोशिश नहीं की। किसी लड़की के इतने पास आने का मतलब उसके लिए बस प्यार ही था। वह ममता को सदा के लिए अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता था।   

 

आज के नाटक में मनीष ने मार्क जुकरबर्ग का अभिनय किया था। वह अब भी एक गोरा-चिट्टा अमेरिकन लग रहा था। मेक-अप आर्टिस्ट ने अपना कमाल खूब दिखाया था। कई दिनों के अभ्यास के बाद वह बीच-बीच में बोले गए अंग्रेज़ी  के वाक्यों को पूरी तरह अमेरिकन उच्चारण के साथ बोल रहा था, जिसे वहाँ उपस्थित दर्शकों ने खूब सराहा था। अमेरिकन एक्सेंट के साथ बोली जाने वाली हिंदी पर उसे खूब तालियाँ मिली थी।

 

वह अब भी भूरे बालों की हल्की लटों वाले विग में था। अपने होंठों को गोल कर, मनीष के ललाट पर हवा करती और उसके कृत्रिम लटों को हल्का उठाती हुई मेघनाथ ने कहा, ‘वाह रे मेरे अमेरिकन इंटरनेट उद्यमी...क्या खूब लग रहे हो’।

 

मनीष बिल्कुल अमेरिकी अंदाज़ में अपनी आँखों को मींचता हुआ मुस्कराया। मेघनाथ उसकी आँखों में अपना प्रतिबिंब देखना चाह रही थी मगर उसे वहाँ कुछ नहीं दिखा। मनीष के भीतर क्या चल पाता था, यह मेघनाथ समझ नहीं पाती थी मगर वह मनीष पर अंधा विश्वास करती थी। उसने अपने प्रेम को किसी संशय से मुक्त रख रखा था। ऐसे ख़याल जब-तब उसके भीतर आते थे, मगर वह अपने भीतर उन्हें जगह नहीं देना चाहती थी। अपने कंधे उचकाते हुए वह आज मंचित नाटक पर और उसमें मनीष द्वारा किए गए अभिनय पर चर्चा करने में मशगूल हो गई।   

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वह दिनकर ममता के बारे में सोचता रहा। उसे लगा कि ममता उससे मज़ाक कर रही है। वह अपने दोस्तों के बीच भी उस दिन एकदम ख़ामोश बैठा हुआ था। रात में किसी कुंआरी लड़की के घर जाना उसे किसी रहस्य-लोक की घटना सा लग रहा था! उसे इस बाबत ममता से बात करने के ख़याल से बेचैनी हो रही थी। मगर यही कोई रात के साढ़े आठ बजे उसका फोन आ गया, “कहाँ हो गौरव!”


रंगमंच पर प्रभावी और सशक्त रूप में संवाद अदायगी करने वाला गौरव के कंठ से अभी ठीक से आवाज़ नहीं आ रही थी। वह हकलाने लगा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोले, “हाँ ममता, बताओ!”

 

“ममता के बच्चे, कहाँ हो, अभी तुरंत आ जाओ”, एक भूखी शेरनी की दहाड़ सुन उसने यंत्रचालित सा अपनी बाइए उसके घर की मोड़ दी।               

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देर रात तक आज की इस गोष्ठी और नाट्य मंचन में शरीक हुए कई लोगों ने अपने-अपने वॉल पर इससे जुड़े कई चित्र और वीडियो अपलोड किए। विभिन्न समूहों में हाथों-हाथ उन्हें शेयर किए गए। उन चित्रों और वीडियों को सैकड़ों ‘लाइक्स’ मिले। ऑनलाइन रहे मित्रों ने एक-दूसरे से खूब गपशप की। देर रात, स्थानीय टीवी चैनलों पर इसका कवरेज़ रहा। अगले दिन हिंदी-अंग्रेज़ी सभी अखबारों में इसकी सचित्र ख़बरें छपीं।

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 महेश और स्मिता दोनों विश्वविद्यालय में अंतर्विभागीय प्रेम-संबंध के उदाहरण थे। उनके दोस्त उन्हें छेड़ते हुए कहते थे, “तुम दोनों अलग-अलग जाति के ही नहीं हो, अलग-अलग विभागों के भी हो। तुम्हारा प्रेम अंतरजातीय और अंतर्विभागीय प्रेम का भी उदाहरण है।”

 

वे दोनों हँसकर रह जाते। ऐसी ही एक अवसर पर एक शाम महेश ने नम्रता पूर्वक अपना पक्ष रखा, “प्रेम का तो पता नहीं, हाँ हम दोनों की दोस्ती उस दिशा में ज़रूर बढ़ रही है।”

 

स्मिता, महेश की ओर प्यार भरी आँखों से देखती हुई उसकी सहमति में सिर हिलाते हुए कहने लगी, “महेश बिलकुल सही कह रहा है। प्यार तो एक बहुत ही पवित्र अवधारणा और संवेदना है। क्या पता, हम दोनों उस रूहानी ऊँचाई पर खड़े हैं भी या नहीं!”

 

महेश और स्मिता दोनों एक-दूसरे को समुचित स्पेस देने में यकीन रखते थे और इसलिए इनकी दोस्ती निरंतर प्रेम की ओर बढ़ती चली जा रही थी। एक शाम विश्वविद्यालय के करीने से कटे घास के बड़े से लॉन के एक कोने में बैठी स्मिता महेश से कहने लगी, “मुझे कभी यह अंदेशा नहीं था कि तुमसे यह दोस्ती इस तरह प्रेम का रूप ले लेगी।”

 

महेश भी मुस्करा बैठा। कहने लगा, “मुझे भी इसका तनिक अनुमान नहीं था कि मुझे कोई इतनी सुंदर लड़की प्यार कर बैठेगी!”

 

महेश कुछ मज़ाक की मुद्रा में आ गया था। स्मिता उसकी इस हरकत पर हँस कर रह गई। अचानक अपने होंठों की ओर झुकते महेश के होंठों को अपने दाएं हाथ की तीन उँगलियों के कोमल स्पर्श से छूकर बरज दिया। पश्चिम में सूरज डूब रहा था और आकाश की लाली, स्मिता के होंठों पर पसर रही थी। महेश को लगा, आकाश का सूरज डूब सकता है मगर उसके प्रेम का सूरज हमेशा चमकता रहेगा। महेश की आँखों में भी सुर्खी उतर आई। उनके पीछे लगे फेंस पर एक गिलहरी बिलकुल महेश के कंधे से टिककर दाएं-बाएं देख रही थी। उसे सहलाने की नीयत से जब स्मिता अपनी उंगलियों को उसकी ओर ले गई, तबतक वह महेश की पीठ को सिहराती हुई आगे बढ़ गई। स्मिता के चेहरे पर एक स्मित फैल गई। गिलहरी चली गई थी, मगर स्मिता की दायीं हथेली महेश की कमर के पास घूम रही थी और आनंदातिरेक में महेश की सिहरन के साथ से वह स्वयं भी कहीं सिहर रही थी।                              

कोई नौ वर्षों बाद ....

मनीष और मेघनाथ की दोस्ती टूट चुकी थी। मेघनाथ ने कई बार मनीष से शादी की बात की मगर हर बार कभी करिअर तो कभी परिवार के नाम पर वह शादी की बात टालता रहा। मेघनाथ को शक हुआ कि मनीष उसकी कोमल भावनाओं का दुरुपयोग कर रहा है। धीरे-धीरे उसने मनीष से दूरी बनानी शुरू कर दी। इस बीच मनीष ने उसे वापस अपने झाँसे में लाने की कई कोशिश की मगर वह नाकामयाब रहा। कुछ चिढ़कर तो कुछ उसे दुबारा अपने गिरफ़्त में लाने की कोशिश में उसने मेघनाथ के साथ खींचे अपने अंतरंग चित्र और वीडियो फेसबुक की वॉल पर शेयर कर दिए। बस फिर क्या था! पूरे शहर में हड़कंप मच गया। इस बार मेघनाथ को कोई सख्त उठाना ज़रूरी लगा। मनीष के प्रति उसके मन में रही-सही भावना भी अब मर चुकी थी। अब तक वह उसकी इज़्ज़त के साथ खेल रहा था, अब वह सरे-आम उसकी इज़्ज़त को समाज में उछालने का काम करने लगा था। मेघनाथ ने थाने जाकर मनीष के खिलाफ एफआईआर. दर्ज़ कराई। पूरा मुहल्ला इस बार मेघनाथ के साथ था। एस.एच.ओ. आर.के. राठी चाहकर भी इसे टाल न सके। रात साढ़े नौ बजे की यह घटना थी। इस बीच मनीष के गिरफ्तारी की खबर उसकी गिरफ़्तारी से पूर्व ही पूरे शहर में आग की तरह फैल गई थी। मनीष कोई चार किलोमीटर दूर शास्त्री पार्क में एक कमरा किराए पर लेकर रह रहा था। सूचना के कोई पैर तो होते नहीं मगर वह उस तक भी पहुँच गई। उसने अब तक मेघनाथ का भाव विह्वल और गिड़गिड़ाता हुआ चेहरा ही देखा था। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसके ख़िलाफ़ वह ऐसे सख्त क़दम भी उठा सकता है। वह अपने किए पर झुंझला रहा था। पुलिस और अदालत की संभावित कार्रवाई से वह भीतर तक डर गया। जब उसके मात-पिता को पता चलेगा, तब क्या होगा! जेल की सलाख़ों के पीछे का अपना अपराधी सा चेहरा उसके ज़ेहन में घूम गया। वह बुरी तरह घबरा गया। अचानक दरवाज़े पर खड़-खड़ की आवाज़ हुई। उसे लगा, पुलिस आ गई। मगर देर तक कोई दस्तक नहीं हुई। बाथरूम की खिड़की के पल्ले ज़ोर से हिलने लगे। बाहर तेज़ आँधी आई चल रही थी। उसे समझ में आया कि दरवाज़े भी उसी कारण हिल रहे थे। मगर पुलिस कभी भी उस तक पहुँच सकती और उसे दबोच सकती थी। बाहर चल रही आँधी से बड़े-बड़े झोंके स्वयं उसकी चेतना में चल रहे थे। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे! उसकी गर्दन तक पहुँच गए डर के हाथ से उसका रोम-रोम काँप उठा था। डर से उसका चेहरा फ़क्क पड़ गया। वह इस संबंध में जितना अपने दोस्तों से बातें कर रहा था, ख़ुद को उतना ही असहाय महसूस कर रहा था। इधर पुलिस और लोगों का हुजूम उसके घर की ओर तेजी से बढ़ता चला जा रहा था। अचानक उसके मन में क्या ख़याल आया, वह जिस कपड़े में था, उसी कपड़े में बाहर निकल गया। जाने-अनजाने उसके कदम रेलवे-स्टेशन की ओर बढ़ने लगे। कोई पंद्रह मिनट बाद रेलवे का चिर-परिचित फाटक आ गया। कई बार इसी फाटक पर एक किनारे बाइक को लगा वह घंटों मेघनाथ के साथ हँसी-ठट्ठा किया करता था। मगर आज यही जगह उसे कितनी डरावनी और सुनसान दिख रही थी। तभी पश्चिम की तरफ़ से सुपरफास्ट ट्रेन के आने की आवाज़ आई। वह आवाज़ मानो यमराज के गले से निकल रही थी। ट्रेन पूरी स्पीड में थी। कुछ ही सेकंड्स में वह आवाज़ एकदम से उसके पास आ गई। उसके विचलित मन ने कुछ नहीं सोचा और तेज दौड़ती ट्रेन के आगे सहसा वह कूद पड़ा। और...ट्रेन के गुजर जाने के बाद खून से सनी मनीष की क्षत-विक्षत लाश के टुकड़े पटरी के अगल-बगल फैल चुके थे। कुछ ही देर में पुलिस को ख़बर लग गई और वह घटनास्थल पर पहुँचकर ज़रूरी कार्रवाई में लग गई। आस-पास की भीड़ ने अपने-अपने हिसाब से घटना का विश्लेषण किया। किसी को मृतक युवक, असफल प्रेम कहानी का सताया लगा तो किसी के लिए वह पुलिस की गिरफ़्त से बचता आया कोई भगोड़ा दिखा। पास ही स्थित स्टेशनरी की दुकान के मालिक पैंसठ वर्षीय मल्लिक साहब ने इस जगह पर विगत दो वर्षों में चार लोगों को ट्रेन से कटता देखा था। उन्हें इस जगह पर किसी प्रेतात्मा का प्रभाव दिख रहा था। वे आसपास जमा हुई भीड़ में से पाँच-छह लोगों को एक तरफ़ ले जाकर रहस्यमय अंदाज़ में बताने लगे, “मेरी बात आप सभी ध्यान से सुनिए। दो वर्ष पूर्व एक खूब सुंदर सी लड़की यहाँ ट्रेन से कट गई थी। उसका शरीर एकदम सोने के माफ़िक दमक रहा था। जो उसे देखे, बस देखता रह जाए। वह बड़ी सख्त जान थी। हो-न-हो, वही सबको यहाँ तक खींच कर ला रही है।”

 

भीड़ को कुछ देर में तितर-बितर कर दिया किया। पुलिस अपना काम अपने ढर्रे से मगर मुस्तैदीपूर्वक करने लगी। पास के थाने से आए थानेदार को यह जगह किसी ‘सुसाइडल प्वाइंट’ से कम नहीं लग रही थी। वह इस इलाक़े में आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं से आज़िज़ आकर इस थाने से अपने ट्रांसफ़र की अर्ज़ी आगे भेज चुका था।

 

अगले दिन मृतक की पहचान कर ली गई। इंस्पेक्टर राठी तक भी सूचना पहुँच गई। उन्हें सारा माज़रा समझ में आ गया।   

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इधर, ममता मॉडलिंग की दुनिया से आगे बढ़ती हुई कुछ टीवी सीरियलों में नज़र आने लगी थी। मुंबई में पैर जमाने में उसे ठीक-ठाक मशक्कत करनी पड़ी, मगर एक बार जो वह निगेटिव रोल की सरताज बन गई थी तो मजबूती से उसने वहाँ अपना झंडा गाड़ दिया। हाँ एक चीज़ उसके मनमाफ़िक नहीं हुई। वह कभी किसी सीरिअल की नायिका नहीं बन पाई और उसे इसका मलाल भी रहा। एक शाम वह अपने मेक-अप रूम में अकेले बैठी यही सब सोच रही थी। तभी सीरिअल का निर्माता-निर्देशक सुशील वाडिया दबे पाँव वहाँ उपस्थित हो गया। ममता उसके परफ्यूम की खुशबू से बिना देखे उसको पहचान गई। वह यूँ ही अलसायी हुई बैठी रही। उसके चेहरे पर कामोन्माद साफ उतरता दिख रहा था। इधर एकदम पास बैठते हुए सुशील उसके बालों को धीरे-धीरे सहलाने लगा। दोनों चुपचाप इस खाली समय का भरपूर लुत्फ़ उठा लेना चाह रहे थे। ममता कई दिनों से सुशील से एक सवाल पूछना चाह रही थी, मगर तुनकमिज़ाज़ सुशील वाडिया से कुछ कहने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती थी। कास्टिंग काउच की हक़ीक़त ममता मुंबई के शुरुआती दिनों में ही समझ गई थी। उसे इससे बहुत एतराज़ हो, ऐसा नहीं था। सच तो यह था कि करिअर ओरिएंटेड ममता के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं था। आखिरकार शादी-शुदा और दो बच्चों के पिता सुशील वाडिया के साथ पिछले तीन सालों से उसका जिस्मानी रिश्ता ज़ारी था। उसे काम और नाम दोनों चाहिए थे। ममता जानती थी कि इसके बगैर इस टेलीविज़न इंडस्ट्री में टिकना आसान नहीं था। आज वह पूछ ही बैठी, “सर, आपने मुझे एक से बढ़कर एक रोल दिए। आपके सीरियलों में मुझे वैंप के इतने रोल मिलने लगे कि लोग मुझे असल दुनिया में भी वैंप ही समझने लगे हैं। प्लीज़ टेल मी ऑनेस्टली, क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगा कि मुझे कोई लीड रोल भी दिया जाए।” ममता की आँखों में शैतानी और आक्रामकता के बीच महत्वाकांक्षा के डोरे साफ साफ दिख रहे थे।

 

कंधे पर चढ़ी सैटिन की स्लीवलेस उसकी कुर्ती को अपनी दाईं हथेली में कसकर पकड़ते हुए उसकी आँखों में आक्रमक हँसी डालते हुए वाडिया ने कहा, “ममता डार्लिंग, तुम्हारा नाम सिर्फ ममता है। अदरबाइज़, यू आर अ नॉटी एंड सैक्सी गर्ल। बट यू नो...हिरोइन वाली इनोसेंस तुम्हारी आँखों में नहीं है।”  


“गर्ल...”, सफलता और प्रसिद्धि के शिखर पर खड़ी ममता बस मुस्कराकर रह गई। उसे सनातन रूप से भूखे सुशील के मुँह से अपने लिए यह संबोधन सुनकर बड़ा अजीब लगा। सोचने लगी, ऐसे लोग किसी लड़की को लड़की कहाँ रहने देते हैं। मेकअप रूप के आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई और अपनी आँखों में निर्दोषता ढूँढ़ने लगी और उसे स्वयं उनमें चालाकी और व्यावहारिकता ही दिखी। उसे अपनी आँखों में लोमड़ी की आँखों सी तीव्रता और भूख ही नज़र आई। वे सुंदर और मारक थीं मगर कहीं किसी कोण से निर्दोष नहीं थीं। उसे वाडिया की बात सही लगी। मन ही मन उसने सोचा...कमीना कैसे इतनी सटीक बात कह जाता है। ऐसे ही इसको ‘सीरिअल-किंग’ नहीं कहा जाता है! जब वह आईने के सामने से हटने लगी, उधर से हँसने की आवाज़ आई। वह वापस पलटी। उसका ही प्रतिबिंब उस पर हँस रह था, “तुम कौन सी सुशील वाडिया से कम हो! कालेज के जमाने से चली आ रही तुम्हारी भूख अब तक शांत कहाँ हुई है!”

 

अचानक आज उसके ज़ेहन में गौरव की छवि कौंध गई। वे भी क्या दिन थे! उसने गौरव के साथ रहते हुए कितनी मस्तियाँ की थी। सुंदर और गठीला लड़का होकर भी गौरव के अंदर एक कस्बाई और मध्यवर्गीय संकोच था जिसे तोड़ने में ममता को तब कितना सुख मिला करता था। उसे उन दिनों इसका कदाचित अहसास भी नहीं था कि इससे उसके अंदर अनजाने ही एक ‘किलिंग इंस्टिंक्ट’ विकसित हो रहा था। ममता के पिता सुरेंद्र चोपड़ा ‘सेना’ में कर्नल थे और उसे अपने घर में भरपूर खुलापन मिला था। भारत के छोटे-बड़े विभिन्न शहरों में रहने से और हर क्षेत्र में भरपूर एक्सपोज़र से उसके भीतर आत्मविश्वास की एक भरी-पूरी नदी बहा करती थी। उन दिनों गौरव के साथ छेड़छाड़ करने की पूरी ज़िम्मेदारी मानो उसकी हो जाया करती थी। उसके भीतर के बोल्डनेस को निश्चय ही इससे काफी राहत मिला करती थी। अचानक उसके अंदर अपराध-बोध का एक झोंका उठा। गौरव के सच्चे प्यार को उसने किस तरह मौज़-मस्ती तक सीमित कर दिया था। नया शॉट रेडी था और वह मेकअप रूम से बाहर निकल आई। सालों बाद जो झोंका अभी उठा था, वह मेकअप रूम के दरवाज़े के भीतर ही दब गया। ‘वैंप-क्वीन’, बड़े बड़े कैमरों और ढेर सी लाइट के बीच अपना जलवा दिखाने में व्यस्त हो गई।

                     

ममता के बिंदास बयान ख़बरिया चैनलों के मनोरंजन उद्योग से जुड़े ख़बरों की लीड बनने लगा थे। मगर एक सच्चा दीवाना उसका आज भी था, जिसे वह कब का पीछे छोड़ आगे बढ़ चुकी थी। हरदम लंबे बालों में दिखने वाला गौरव अब अपनी अभिनय-क्षमता भूल चुका था। वह अपने घर के आगे एक छोटी से दुकान चलाने लगा था। अपनी पूर्व-प्रेमिका ममता की याद में और उसे हमेशा के लिए पाने की एक असंभव चाह में उसने अब तक शादी नहीं की थी। वह उसके शरीर को बहुत पहले पा चुका था और उसकी सुगंध से उसका अवचेतन हमेशा सुगंधित रहा करता था। उन सुनहरे दिनों में कई बार दोनों हमबिस्तर हो चुके थे। गौरव उसकी अदाओं पर अपनी जान छिड़कता था। वह ममता को उसके समक्ष बिना शर्त समर्पण के लिए मन ही मन उसका खूब आदर किया करता था। वह एक भँवरे की तरह उसके शरीर रूपी कमल में क़ैद रहना चाहता था। मगर, वह सब कुछ जानकर भी कहीं-न-कहीं अनजान बना रहना चाहता था। उसके दिल-ओ-दिमाग से अतीत के वे प्रीतिकर पल जाए नहीं जाते थे। वह समझना नहीं चाहता था कि वह जिस कमल की प्रतीक्षा में है, वह एक बड़े से आकर में आ चुका है। उसमें समाने वालों और समाने की इच्छा रखनेवालों की एक बड़ी संख्या हो गई थी। अब वह ममता के लिए एक पुराना और जर्जर पृष्ठ हो चुका है। वह उसकी दुनिया से बहुत आगे जा चुकी है। मगर गौरव को तो मानो किसी अनहोनी के घटने की उम्मीद थी मगर हक़ीकत में कोई अनहोनी तभी होती है, जब उसे सचमुच होनी हो। फेसबुक पर अभी भी दोनों थे, मगर दोस्त नहीं। शुरू से ही बिंदास सोच की मालकिन और आज हजारों दिलों की हुस्न-मल्लिका बन चुकी ममता के फॉलोअर्स में अब गौरव भी शामिल हो गया था।   

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मगर हर तरफ़ निराशा और टूटन ही नहीं थी। कहीं आशा और जुड़ाव की लौ भी जगमगा रही थी। एक जोड़ा ऐसा था, जिनके बीच का प्रेम बेशक अभी विवाह को प्राप्त नहीं हुआ था, मगर वे दोनों एक ही छत के नीचे आराम से रह रहे थे। दोनों फेसबुक पर भी सक्रिय थे मगर उनके पोस्ट पर हमेशा उनके अकादमिक कार्यों के विवरण ही मिला करते थे। महेश जैन ने 'कम्युनिटी साइट्स और बदलती हिंदी' विषय पर अपना रिसर्च पूरा कर लिया था और उसका अनुसंधान-कार्य एक पुस्तक के रूप में आकर खूब चर्चित हो रहा था। उसके लोकार्पण के चित्रों और उसकी समीक्षाओं की ख़बरों की जानकारी उसके पोस्ट पर उपलब्ध थी। वह कई सालों से ' हीरा लाल जैन कालेज' में 'एड - हॉक’ पर हिंदी पढ़ा रहा है। स्मिता कुमावत ने 'वर्चुअल दुनिया और घटती सामाजिकता'  पर अपना रिसर्च किया और उसी काले में एड हॉक पर समाजशास्त्र पढ़ा रही  है। समाजशास्त्र के क्षेत्र में किए जा रहे उसके कार्यों को खूब सराहना मिल रही थी। स्मिता बहुत कम समय के लिए फेसबुक का इस्तेमाल करती थी, मगर उसकी गतिविधियों की जानकारी उसके पोस्ट से मिल जाया करती थी। वह अपने जीवन में इंटरनेट के लिए एक सीमित और नियंत्रित समय ही देना चाहती थी। फ़िलवक्त दोनों ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ में रह रहे हैं। दोनों को फेसबुक पर आयोजित हुए उसी कार्यक्रम से इस विषय पर अनुसंधान करने का ख़याल आया था।

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