Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

वीरान मन के खंडहर

वीरान मन के खंडहर

17 mins
767


 ‘खट्-खट् ’

‘दरवाजा खुला है, अंदर आ जाओ।’

सुनंदा को पता था कि दिनेश बाथरूम में बाहर का दरवाज़ा खोलकर गए होंगे। सुबह का समय वास्तव में अति व्यस्तता का होता है उसी समय पेपर, दूध, सब्जी वालों के आने का समय होता है। उसे डाक्टर ने अभी पंद्रह दिन का आराम और बताया है, अतः यहाँ से बैठे-बैठे वह सबको निर्देश देती रहती है।  ‘दीदी, दलिया लेकर आई हूँ आपके लिये मीठा एवं जीजाजी के लिये नमकीन मूंग की दाल का जीजाजी से कह दीजिएगा दोपहर का खाना भी मैं दे जाऊँगी अतः नाहक परेशान न हो। ‘ दीपा ने अंदर आते हुए कहा।

‘तुम क्यों परेशान हो रही हो ? ब्रेड, आमलेट, खिचड़ी वगैरह तो बना ही लेते हैं।’

‘ दीदी, आप भी कैसी बातें कर रही हैं ? मैं नहीं जानती क्या जीजाजी को ? कभी एक कप चाय बनाकर पी है उन्होंने ?"

‘हाँ, सब भाग्य का फेर है, नौकरी पर थे तो सदैव नौकर रहे और अब पैसा देने पर भी ढंग के नौकर नहीं मिलते। सब बाबू बनना चाहते हैं, घर का काम करना किसी को भी पसंद नहीं है...।’ हताश स्वर में कहते हुए सुनंदा ने एक लंबी सांस ली।

‘आप मन को क्यों दुखी करती हैं ? नौकर चला गया तो क्या हुआ ? हमारे हाथ सलामत रहें, ऐसे समय हम एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? अच्छा दीदी, मैं चलती हूँ, ये घूमने गये है...आते ही नाश्ता चाहिये, फिर आऊँगी।’

दीपा एक हँसमुख, मिलनसार एवं सदैव दूसरों की सेवा के लिये तत्पर सुसंस्कृत महिला है। बारह वर्ष हो गये हैं विवाह को....इलाज पर पैसा पानी की तरह बहाया किन्तु संतान सुख नसीब नहीं हुआ, किंतु किसी ने भी उसे कभी निराश एवं हताश नहीं देखा, अपनी इस जिंदादिली का श्रेय वह अपने पति नरेंद्र को देती है...।


नरेंद्र का कहना है....क्या अपना, क्या पराया ? समझो तो सब अपने है ना समझो तो अपने भी पराये हो जाते हैं। घर में ही तीन से छह वर्ष के बच्चों के लिये किंडरगार्डन पद्यति का स्कूल चला रही है। विभिन्न तरह के खिलौनों, वीडियो कैसेट की सहायता से हिन्दी, अंग्रेजी की कविताएं, गिनती इत्यादि वह बच्चों को सिखाती है। बच्चों की देखभाल के लिये दो नौकरानी रख रखी हैं। वह स्वयं भी बच्चों के साथ समय बिताकर मानसिक रूप से संतुष्ट हो जाती है। उसके स्कूल के बच्चों को शहर के प्रतिष्ठित स्कूलों में आसानी से प्रवेश मिल जाता है अतः अधिकांश माता-पिता अपने बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा के लिये उसके किंडरगार्डन में ही भेजना चाहते हैं।

‘कौन आया था ?’ दिनेश ने बाहर आते हुए पूछा।

‘दीपा दलिया दे गई है तथा दोपहर का खाना भी बनाकर लाने के लिये कह गई है।’

‘तुमने मना नहीं किया ? मैं खिचड़ी बना लेता।’

 ‘मना तो किया था किन्तु मानी नहीं...मैं भी कितनी अभागन हूँ ? मेरे कारण आज आपको इस उम्र में काम करना पड़ रहा है।’ सुनंदा ने दुखी स्वर में कहा।

‘इसमें दुखी होने की क्या बात है ? रिटायरमेंन्ट के पश्चात् घर के कामों में हाथ बंटाना ही चाहिये। स्त्री तो कभी अवकाश प्राप्त नहीं करती, अतः यदि पुरूष अपने खाली समय का उपयोग स्त्री के साथ मिलकर उसके कामों में हाथ बँटाकर करे तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है । लो दलिया खा लो वरना ठंडा हो जायेगा।’ सुनंदा से उत्तर की अपेक्षा किये बिना उसको दलिया का बोल पकड़ाते हुए कहा तथा अपना नमकीन दलिया लेकर स्वयं खाने लगे।

‘पता नहीं कल से श्रुति की बहुत याद आ रही है। नवाँ महीना चल रहा है, पता नहीं कैसी है ? इधर दो दिन से फोन भी नहीं आया वरना जबसे बीमार पड़ी हूँ तब से रोज़ ही फोन करके हाल-चाल पूछ लेती है।’

‘आज सुबह ही उसका फोन आया था....तुम सो रही थी अतः जगाया नहीं, वह ठीक है चिन्ता की कोई बात नहीं है और फिर सुधीर स्वयं डाक्टर है, सब संभाल लेगा। ’

‘मुझे जगा दिया होता। बीमार क्या पड़ी हूँ, पूरे दिन ही सोती रहती हूँ। उसकी आवाज़ सुनकर ही मन को शान्ति मिल जाती। पूरे पाँच वर्ष हो गये हैं उसे देखे बिना...।’ अशांत मन से कहा तथा मन ही मन सोचा कि पुरूष को स्त्री मन की भावनाओं, संवेदनाओं से कोई सरोकार नहीं रहता, मशीनी जिन्दगी जीते-जीते स्वयं भी मशीन ही बन जाते हैं।


‘बैंक से पैसे निकलवाने हैं। डाक्टर से तुम्हारी दवायें लिखवानी है अतः जा रहा हूँ। जल्दी लौटने का प्रयास करूँगा। दवा बगल में टेबल पर रखी है एक घंटे पश्चात खा लेना। रिमोट तुम्हारे पास है ही, टी.वी. देखना हो तो चला लेना, ताला बंद करके चाबी दीपा को दे जाऊँगा, अचानक यदि किसी चीज की आवश्यकता पड़े तो दीपा को फोन करके बुला लेना। कुछ काम करने का प्रयत्न मत करना, आराम करना...।’ हिदायतें देते हुए दिनेश ने कहा।

‘तुमने तो मुझे ‘ हाउस अरेस्ट ’ कर दिया।’ हँसते हुए सुनंदा ने कहा।

 ‘क्या करूँ पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने मन को हिला दिया है। घर में अकेली स्त्री या बूढे लोगों को अकेला पाकर असामाजिक तत्व अंदर घुसकर चोरी करने का प्रयास करते है। विरोध करने पर मार-पीट करने से भी नहीं हिचकते, जो होना होगा, वह तो होगा ही किन्तु सावधानी तो रखनी ही चाहिये। वैसे ताला इसलिये भी बंद करके जा रहा हूँ जिससे सेल्समैन इत्यादि आकर नाहक तंग न करें। दो ढाई घंटा लग ही जायेगा तुम चिंता मत करना।’


दिनेश तो मशवरा देकर चले गये टी. वी. देखना उसे प्रारंभ से ही अच्छा नहीं लगता था। एकांत क्षणों में किताबें उसकी सच्ची साथी थीं। वही उसे मानसिक तृप्ति का अहसास कराती थीं। अंग्रेजी में एम.ए. करने के पश्चात् भी अंग्रेजी साहित्य में उसकी कभी रूचि नहीं रही क्योंकि उनमें अपने देश की माटी की सुगंध नहीं थी....देश की संस्कृति से दूर थीं । गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर, शरतचंद्र, प्रेमचंद्र, आचार्य चतुरसेन,बंकिमचंद्र इत्यादि को खूब पढ़ा, आज भी उसके पास एक छोटी सी लाइब्रेरी ह। जब मन करता वह किताबों में खो जाती है और उन चरित्रों में स्वयं को ढूँढने का प्रयास करती किन्तु इधर कुछ दिनों से किताबों में भी मन नहीं लग रहा था। बेटी श्रुति की पहली डिलीवरी है, सदैव मन आशंकित रहता है। दूर देश, उस पर अकेली....वैसे तो दामाद प्रवीन एवं बेटी दोनों ही डाक्टर हैं किन्तु यह भी सच है कि स्त्री की हर नई रचना के बाद उसका पुनर्जन्म होता है...।


 याद आई...उनके आगे-पीछे घूमती, छोटी-छोटी वस्तुओं के लिये झगड़ती-मचलती, भाई से बराबरी करती नन्हीं मुन्नी बिटिया....अब इतनी बड़ी हो गई है, कभी-कभी उन्हें विश्वास ही नहीं होता। पिछली बार फोन पर बातें करते-करते रो पड़ी थी। क्या करूँ माँ ? विवश हूँ ऐसी हालत में चाहकर भी नहीं आ सकती...थोड़ा ठीक हो जाओ तो तुम और पापा यहाँ आ जाओ, पूरा चैकअप करवा दूँगी। यहाँ बड़ा हॉस्पिटल है। अच्छी से अच्छी सुविधायें उपलब्ध हैं। प्रवीन हृदय रोग से संबंधित विभाग में ही कार्यरत हैं। यह कैसी विडम्बना है ? दूर रहते हुए बच्चे माँ-बाप के लिये चिन्तित रहते हैं और माँ-बाप बच्चों के लिये किन्तु चाहते हुए भी साथ नहीं रह पाते।

बच्चों के मामले में वे अत्यन्त ही भाग्यशाली रहे। श्रुति का मेडिकल में चयन तथा पास होते ही डाक्टर लड़के द्वारा स्वयं उसका हाथ मांगना, विवाह के कुछ ही दिनों पश्चात् दोनों को ही एडवांस स्टड़ी के लिये स्टेट्स में छात्रविधि मिलना...सब कुछ इतनी जल्दी एवं एकाएक हुआ कि कुछ सोचने के लिये समय ही नहीं मिला। आज दोनों ही वहाँ के एक अच्छे हाँस्पीटल में कार्यरत हैं। प्रवीन जैसा सर्वगुणसंपन्न पति पाकर श्रुति अत्यन्त ही प्रसन्न है। एक दूसरे के पूरक हैं वे दोनों....यही विचार दूर रहकर भी उन्हें मानसिक संतोष देता है।

बेटा नीरज प्रारंभ से ही पढ़ने में अच्छा नहीं था....टी.वी. क्रिकेट का इतना शौकीन था कि पढ़ाई उसके लिये द्वितीय वरीयता की वस्तु बन गई थी किन्तु श्रुति के मेडिकल में चयन के पश्चात् उसमें आये परिवर्तन का ही परिणाम था कि वह आई.ए.एस. की परीक्षा में सफल हो गया तथा। आजकल वह मेरठ में जिलाधीश के पद पर कार्यरत है। दिनेश स्वयं प्रशासनिक सेवा में थे अतः वे चाहते भी थे कि उनका एक मात्र पुत्र उसी क्षेत्र में जाये....उसने अपने पापा के स्वप्नों को पूरा कर दिया है।


बहुत ही गर्व था दिनेश को अपने दोनों बच्चों पर...दिनेश के अवकाश प्राप्ति के पश्चात नीरज एवं पल्लवी छुट्टियां मनाने आये थे। जाते समय कहने लगे, पापा पहले आप सर्विस में थे तो कहते थे छुट्टी नहीं है अब हमारे साथ चलिये, हमें भी सेवा करने का मौका दीजिए । वह ज़िद करके उन्हें साथ ले गया।

वे भी बच्चों के आग्रह को ठुकरा नहीं पाये और परिवर्तन की चाह लिये उनके साथ चले गये। नीरज का काम ही ऐसा था सुबह का गया शाम को आता था। कभी-कभी रात को भी जाना पड़ता था। पल्लवी को भी सामाजिक गतिविधियों के कारण अक्सर जाना पड़ता था। यद्यपि उनके कारण अति आवश्यक होने पर ही जाती थी किन्तु उनके आग्रह करने पर कि हमारे कारण अपने दैनिक कार्य में क्यों व्यवधान डालती हो....? वह निःसंकोच जाने लगी थी। नन्हा अमोल सम्पूर्ण समय दादाजी, अम्माजी करता हुआ उनसे चिपटा रहता।

दिनेश तो उसके साथ बच्चा बन जाते थे। कभी वह उनकी नाक पकड़ता कभी बाल और कभी उनकी पीठ पर चढ़कर घोड़ा बनने के लिये विवश करता देता था। दिनेश में आये परिवर्तन को देखकर वह आश्चर्यचकित रह जाती, उसे विश्वास ही नहीं होता था कि यह वही दिनेश हैं जिन्होंने अपने बच्चों को कभी गोद में नहीं उठाया था। उसे याद आया वह दिन...एक बार वह बीमार पड़ गई थी। नौकर छुट्टी पर गया हुआ था। उस समय नीरज मात्र दो वर्ष का था, डाक्टर जो उनका मित्र भी था, से दिनेश बोले,‘ डाक्टर साहब, कोई ऐसी दवा दीजिए जिससे यह शीघ्र ठीक हो जाये।


 ‘ अरे भाई, मियादी बुखार है, समय से ही ठीक होगा...। वैसे गृहणियों को बस यही अवसर तो मिलता है, आराम करने का....है ना भाभीजी।’

'यार, और सब तो ठीक है किन्तु इस शैतान को नहीं संभाला जाता।’ उसके कुछ कहने से पूर्व ही गोद में उछलते नीरज को संभालते हुए उन्होंने झुंझलाकर कहा था।अब दिन में आठ घंटे अमोल के साथ व्यतीत करते हैं फिर भी मन नहीं भरता है। नीरज आँफिस से आते ही सीधा उनके कमरे में आता, बातों-बातों में शाम से रात कब हो गई, पता ही नहीं चलता था । चाय नाश्ता भी वहीं आ जात। खाना खाने के लिये अवश्य डायनिंग हाल में जाना पड़ता था। जिस दिन किसी कार्यवश जल्दी नहीं आ पाता, देरी से आने के लिये क्षमा मांगते हुए पल्लवी से पूछता कि ममा, पापा ने ढंग से नाश्ता, खाना खाया या नहीं पल्लवी भी उनका जरूरत से ज्यादा ही ध्यान रखती थी।

किन्तु फिर भी दोनों का खाली बैठे-बैठे मन नहीं लगता था...। अपना घर याद आता किन्तु बच्चों का प्यार पैरों में बेड़ियाँ पहना देता था। अकेलेपन को दूर करने के लिये रोज शाम को घूमने निकल जाते। अमोल भी साथ चलता, रोज ही कभी चॉकलेट कभी आइसक्रीम, कभी वेफरस् के लिये फरमाइश कर बैठता था तथा मिलने पर प्रसन्न होकर माँ को बताता। पल्लवी ने एक दो बार दबे स्वर में मना भी किया था कि रोज-रोज उसकी फरमाइश को पूरा करना उचित नहीं लेकिन दादी-बाबा के लिये शायद अपने पोते-पोती की फरमाइश को टाल पाना संभव ही नहीं हो पाता है। यही उनके साथ भी हुआ था।

एक दिन अमोल चॉकलेट लेकर घर आया, उस समय पल्लवी की मित्र आई हुई थी। अपनी मम्मी को दिखाकर वह वहीं बैठे-बैठे चॉकलेट खाने लगा तथा गंदे हाथ वेलवेट के कीमती सोफे से पोंछ दिये।मित्र के जाते ही पल्लवी ने अमोल को यह कहकर मारना एवं डाँटना प्रारंभ कर दिया कि चॉकलेट खाना नहीं आता तो खाते ही क्यों हो, सारा सोफा गंदा कर दिया...।’ बेटा, सोफे पर लगे दाग तो साफ हो जायेंगे किन्तु बच्चों के कोमल मन पर लगे दाग को मिटाना असंभव होगा, फूल की तरह नाज़ुक बच्चों को मारने से वे असमय ही कुम्हला जाते हैं।’ अमोल को उसे मारते देखकर दिनेश से रहा न गया तथा वह बोल उठे।


‘पिताजी आप बीच में मत बोलिये आपके लाड़-प्यार में ही बिगड़ा जा रहा है।’ आवेश में बोल उठी थी पल्लवी। दिनेश कुछ कहने ही जा रहे थे कि सुनंदा ने इशारे से रोक दिया। इसके पहले पल्लवी कभी इतनी जोर से उनके सामने नहीं बोली थी।

इस घटना के पश्चात उन्हें लगने लगा था कि दूर से ही प्रेम संबंध मजबूत बने रहते हैं। पास रहने पर कभी न कभी टकराव की स्थिति अनचाहे, अनजाने आ ही जाती है जो मन में दरार पैदा करके संबंधों को कमजोर बना सकती है....उसी समय उन्होने निर्णय ले लिया था कि रहेंगे तो अलग ही, भले ही बीच-बीच में आकर बच्चों से मिल लें। बच्चों की जिन्दगी में हस्तक्षेप करना उन्हें भी अच्छा नहीं लग रहा था।

दूसरे दिन लौटने का निर्णय सुनाया तो नीरज हक्का-बक्का रह गया,‘यह क्या पापा, अभी तो आपको आये एक महीना भी नहीं हुआ....हमारा मन भी नहीं भरा और आपने जाने का निर्णय ले लिया, क्या हमसे कोई भूल हो गई है ?’

‘नहीं बेटा, भूल और तुमसे, हो ही नहीं सकती। हमारा ही मन नहीं लग रहा है। इतने दिन घर छोड़कर कभी रहे नहीं...पेड़ पौधे भी सूख रहे होंगे, कुछ व्यक्तिगत काम भी रूके पड़े हैं। कुछ दिनों पश्चात् फिर आ जायेंगे...।’


 ‘माँजी, मुझसे कोई भूल हो गई हो तो क्षमा कीजियेगा।’ चलते समय पल्लवी ने पैर छूते हुए कहा था....शायद मन ही मन शर्मिदा थी।

‘नहीं बेटी, ग़लती कैसी ? तुम तो बच्चे हो हमारे....बच्चों की ग़लतियों पर माँ बाप कभी ध्यान नहीं देते।’ नम हो आई आँखों को आँचल से पोंछते हुए सुनंदा ने कहा था।

नन्हा अमोल उनको जाता देख यह कहकर खूब रोया था....बाबा अम्मा मत जाओ, अब कभी ज़िद नहीं करूँगा, चॉकलेट नहीं माँगूगा। उसका मासूम रूदन पैरों में बेड़ियाँ पहनाने लगा था किन्तु कुछ दिनों पश्चात फिर आयेंगे, कहकर मोह के जाल को एक झटके में तोड़कर चले आये थे। बच्चा है कुछ समय पश्चात् सब भूल जायेगा किन्तु मन में पड़ी गांठे तो बड़ी होने से बच जायेंगी।

चार पाँच वर्ष कैसे बीत गये पता ही नहीं चला....प्रत्येक होली दीवाली पर नीरज और पल्लवी आते। नन्हा अमोल आकर उनके आँचल की छाँव में आकर ऐसे छिप जाता जैसे कोई मासूम,मृगछौन.। ढेर सारी बातें करता....स्कूल की, घर की मित्रो की। दादाजी के साथ बैठा घंटों वीडियो गेम खेलता रहता। उससे अधिक उसे अपने दादाजी से लगाव था क्योंकि वह तो उसे शैतानी करते देख डाँट देती थी किन्तु दिनेश ने तो कभी अपने बच्चों को नहीं डाँटा तो उसे क्या डाँटते ?


 नीरज-पल्लवी को अड़ोसी-पड़ोसी घर आने का न्यौता देते तथा न आने पर बुरा भी मान लेते थे अतः समय निकाल कर सभी के घर थोड़ी-थोड़ी देर के लिये जाना ही पड़ता किन्तु सबसे अधिक लगाव उनसे दीपा एवं नरेन्द्र को ही था।

कभी-कभी पल्लवी कहती, ‘मम्मी,लगता ही नहीं है मैं ससुराल आई हूँ, सभी आंटी अंकल इतने अच्छे और मिलनसार है....शायद तभी आपका हमारे पास रहने को दिल नहीं करता।’

 ‘बेटा, मेरा तो कहीं भी दिल लग जाता है किन्तु तुम्हारे डैडी अपनी मित्र-मंडली को छोड़कर कहीं जाना ही नहीं चाहते। यहाँ सबके साथ उनका पूरा दिन कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता।’

एक दिन वह घर के बगीचे में पानी दे रही थी कि अचानक उसे लगा चक्कर आ जायेगा। उस समय दिनेश किसी काम से बाहर गये हुए थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे ? वह वहीं बैठ गई। थोड़ी देर पश्चात् ही बेचैनी, घबड़ाहट एवं सीने में रह-रहकर उठता दर्द उसे व्याकुल कर रहा था। दीपा ने उसे ऐसे बैठे अपने घर की खिड़की से देखा तो अनहोनी की आशंका से ग्रसित तुरन्त दौड़ी-दौड़ी आई। उसकी नाज़ुक स्थिति देखकर दिनेश के लिये पर्चा लिखकर, ताला लगाकर, नौकरानी की सहायता से कार में बिठाकर नर्सिग होम ले गई।


डाक्टर ने तुरन्त इंजेक्शन लगाकर सैलाइन लगा दी। हार्ट अटैक पड़ा था डाक्टरों के अनुसार यदि थोड़ी भी देर हो जाती तो बचाना मुश्किल हो जाता। पर्चा पाकर दिनेश हड़बड़ाये नर्सिग होम में पहुँचे तथा स्थिति की गंभीरता को देखकर होशोहवास ही खो बैठे थे। मानसिक रूप से इतना टूट गये थे कि उन्हें भी नींद का इंजेक्शन देना पड़ा। सुनकर सभी अड़ोसी पड़ोसी आ गये। नीरज को भी फोन कर दिया। सब अपने-अपने तरीके से सहायता कर रहे थे कोई डाक्टर के निर्देशानुसार दवा ला रहा था, कोई उसेे देख रहा था तो कोई दिनेश को।

सूचना मिलते ही नीरज और पल्लवी आ गये थे। दोनों को देखकर दिनेश थोड़ा संतुलित हुए शायद इसीलिए कहा है कि मित्र और पड़ोसी चाहे कितनी भी सहायता क्यों न करें लेकिन दुख के क्षणों में अपना खून ही मनोबल बढ़ाता है।


सुनंदा पाँच दिन आई.सी.यू. में रही। बाद में जब दिनेश का हाल पता चला तो उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ कि उनको खो देने की आशंका दिनेश को इतना हिला देगी कि कुछ पल के लिये वह अपना मानसिक संतुलन ही गंवा बैठेंगे। एक नवीन रिश्ता कायम हुआ था उस दिन....उस दिन के पश्चात् वह दिनेश का बदला हुआ रूप देख रही थी....पल-पल उसकी आवश्यकताओं की ओर ध्यान देते, कभी दवा, कभी फल के लिये पूछते। बेटे बहू के सामने झिझक भी लगती किन्तु मन के किसी अज्ञात कोने में अपने प्यार पर गर्व भी होता।

दीपा-नरेन्द्र ने भी उसकी देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। खाना बनाने वाली नौकरानी भी उन्होंने ही ढूँढकर दी थी। नीरज तो चार-पाँच दिन रहकर चला गया...दो हफ्ते बाद उसके जिले में विधान सभा के चुनाव होने वाले थे, चुनावों में कानून और व्यवस्था की देखभाल के लिये उसका रहना आवश्यक था। पल्लवी रूक गई थी किन्तु चुनाव के तुरंत बाद अमोल की वार्षिक परीक्षायें थीं जिसके कारण उसे भी जाना पड़ा।


 नीरज तो उन्हें साथ ही ले जाना चाहता था जिससे उसकी देखभाल उचित रूप से हो सके किन्तु डाक्टरों ने यात्रा करने की इजाज़त नहीं दी। कल ही खाना बनाने वाली नौकरानी लीला की माँ मर गई जिससे उसे जाना पड़ा। यद्यपि घर के अन्य कार्यो के लिये दूसरी नौकरानी है पर वह कई जगह काम करती है, उसके पास समय ही नहीं था अतः उसने खाना बनाने से इंकार कर दिया। ताला खुलने की आवाज़ से विचार तंद्रा भंग हो गई।

‘दीदी, यह क्या ? अकेले किन विचारों में डूबी हो ? टी.वी. ही चला लिया होता तो मन तो नहीं भटकता...।’ खाना मेज पर रखते हुए वह बोली।

 ‘मन को भटकना होता है तो भटक ही जाता है। सामने आदमी खड़ा हो फिर भी नजर नहीं आता।’ सुनंदा के स्वर में निराशा झलक आई थी।

‘दीदी, सच आज आपको देखकर लगता है कि मैंने जीवन के बारह वर्ष व्यर्थ चिन्ता में बिता दिये...क्या अंतर है आज संतानयुक्त और निःसंतान दम्पत्ति में, यदि जीवन के उत्तरार्ध में अकेले ही रहना है।’  

    

 समझ नहीं पा रही थी क्या उत्तर दूँ !! भरा-पूरा परिवार होते हुए भी आज उसके पास कोई नहीं था। आकाश लांधने के प्रयत्न में, अपने....दिल के टुकड़े छितर गये थे, यद्यपि एक दूसरे के लिये चिन्तित अवश्य थे किन्तु विवश थे।

उसके दिलोदिमाग में मिसेज भाटिया के शब्द गूंजने लगे....जब भी कोई उनसे दो बेटियों के पश्चात् एक बेटे के लिये प्रयत्न करने के लिये कहता तो शांत मन से कहतीं....ना बाबा, आज के युग में लड़का-लड़की दोनों बराबर हैं, परिपक्व होने पर न लड़का पास रहता है और न ही लड़की....फिर पुत्र की चाहना क्यों....? ईश्वर ने जो दिया है उसी से मैं संतुष्ट हूँ । दोनों की भली प्रकार परवरिश कर योग्य बना सकूँ, बस यही मेरी चाहना है।’


‘दीपा, तुम क्यों हमारे लिये इतना परेशान हो रही हो ? इंसान को अपना बोझ स्वयं उठाने की आदत होनी चाहिये।’ दिनेश ने अंदर आते हुए कहा।

 ‘जीजाजी ऐसा कहकर क्यों मुझे लज्जित कर रहे हैं ? क्या मैं भूल सकती हूँ वह दिन जब नरेन्द्र को न्यूमोनिया हो गया था। उस समय जितनी आपने और दीदी ने मेरी हिम्मत बढ़ाई थी...सहायता की थी, उतनी तो मेरे अपने भी नहीं कर सके थे। कोई दो दिन रहकर चला गया, कोई चार दिन...यदि आप न होते तो मैं अकेली अस्पताल के चक्कर कैसे काट पाती...?’

थोड़ा रूककर पुनः बोली, ‘अपने....खून के रिश्ते तो सामाजिक दायित्वों के बोझ तले मजबूर हैं, अब अगर हम आपस में एक दूसरे का साथ नहीं देंगे, सहायता नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? खून का रिश्ता न सही....व्यवहारिक एवं दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आत्मिक संबंध तो बन ही गये हैं , एक को कष्ट में देखकर दूसरा शांत कैसे बैठा रह सकता है ? क्या यह मानवीय व्यवहार के प्रतिकूल नहीं होगा ?’

तभी कार के हार्न की आवाज़ सुनकर वह बोली,‘लगता है नरेन्द्र आ गये हैं , अब मैं चलती हूँ।’


दिल में तीर की तरह चुभते दीपा के वचनों को दिनेश के सामने रखा तो वह बोले ,‘दीपा नादान है, शायद ऐसा कहकर दिल को झूठी तसल्ली दे रही है । बच्चे तो जीवन का सार है....किरण हैं आने वाले कल की, किरणों को फैलने से क्या कोई रोक पाया है....? उनका काम प्रकाश फैलाना है, फैलायेंगी ही, किरणों को कमरे में कैद करके तो नहीं रखा जा सकता....? किरणों के प्रकाश को हम सहन न कर सकें, उनके साथ चल न सकें तो इसमें उनका क्या दोष....? हमें तो प्रसन्न होना चाहिये कि हमारे ज्योतिपुंज अपने-अपने तरीकों से संसार को प्रकाशित कर रहे है। हमें अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिये, नई पीढ़ी को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से न देखकर सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिये, तभी हम भी प्रसन्न रह पायेंगे तथा वे भी वास्तव में स्वतंत्र रूप से कार्य करने में सक्षम हो पायेंगे ।’


 एकाएक सुनंदा को महसूस हुआ कि सिरहाने रखे नीरज एवं श्रुति के फोटो से अनेक ज्योतिपुंजों ने निकलकर उनके तन-मन को आलोकित कर दिया है तथा रह-रह कर एक आवाज़ गूँजने लगी है.... ‘ममा, आपकी ममता के भूखे हम तो आपके पास ही हैं।’


अब सुनंदा को भी लगने लगा था कि यही आज की सच्चाई है और शायद जीवन का कटु सत्य भी लेकिन फिर भी न चाहते हुए भी अंतःस्थल में रह-रहकर टीस उठ रही थी....एकाकीपन के हथौड़ो से वीरान मन के खंडहर की एक-एक ईट ढहती जा रही थी....यह सत्य है कि उनके ज्योतिपुंज अपने-अपने तरीकों से संसार को आलोकित कर रहे हैं किन्तु यह भी सच है कि उनके अपने उनकी एक किरण की आस में जीवन के अंतिम पल गिन रहे हैं....।

 


 

 



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama