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विवाहित बेटियों का अधिकार

विवाहित बेटियों का अधिकार

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हिन्दू उत्तराधिकार के तहत शादीशुदा बेटी को भले ही पिता की संपत्ति पर बराबरी का हक़ है पर क्या बेटी को ये हक़ मिल पाता है? आज मैं इसी विषय पर अपना अनुभव आपके समक्ष रखूंगी। मैं 60 वर्षीय मध्यमवर्गीय हिन्दू विवाहित, शिक्षित गृहिणी हूँ। मैंने अपने चारों ओर के सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को देखकर ये अनुभव किया है कि अधिकतर पिता अपनी विवाहित बेटी को तीज-त्यौहार और उसके बच्चों की शादी पर शगुन के रूपए और सामान दे कर अपने फर्ज़ की इति श्री कर लेते हैं। अपनी जायदाद के हिस्से का हक़दार वह अपने पुत्रों को समझते हैं। भाई लोग भी अपनी बहनों को हिस्सा देने से कतराते हैं। अगर पिता की मृत्यु बिना वसीयत किये हो जाती है और ऐसे में बेटी अपना हिस्सा मांगने की गुस्ताखी करती है, तो भाई लोग बहनों से हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ देते हैं। इसी कारण बहुत सी बेटियाँ कानून की जानकारी होते हुए भी हिस्सा लेने से इनकार कर देती हैं। इसमे एक ख़ास बात ये भी देखने में आती है कि पिता अपने जीते जी अपना सब कुछ पुत्र को देने में रूचि रखते हैं । शायद इसमे हमारे समाज की ये सोच है कि बेटा ही माँ बाप के बुढ़ापे की लाठी होता है। एक अन्य बात ये भी है की बेटियाँ ब्याहते ही परायी समझ ली जाती हैं, ऐसे में पिता अपनी संपत्ति दूसरे परिवार में नहीं देना चाहते। मेरे परिचित एक परिवार में 6 पुत्री और 4 पुत्र है। उनके पैतृक मकान को उनके माता पिता की मृत्यु के बाद एक बिल्डर को दिया गया, जिसमे बनी बहुमंजिला इमारत में से हर पुत्र को 2 -2 फ्लैट्स मिले। उनकी एक बहिन जो की तलाक़शुदा थी और एक पुत्री की माँ थी वो अपने हिस्से के लिए अदालत में गयी। सभी भाइयों ने उस से रिश्ता तोड़ लिया और अदालत में फैसला भी अपने हक़ में करा लिया अन्य बहनों को भी कोई हिस्सा नहीं दिया गया या उन्होंने लेने से मना कर दिया। यहाँ इंसानियत का तो कोई अर्थ ही नहीं उठता। मैंने तो यहाँ तक देखा है कि अगर माँ ममतावश अपनी बेटी को अपने कुछ जेवरात वगैरह देना भी चाहे तो पिता और पुत्र, पुत्रवधु ऐसा नहीं करने देते। बेटियों को मायके के नाम पर भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल किया जाता है इसलिए वह अपने हिस्से को नहीं मांगती या ख़ुशी ख़ुशी भाइयों के लिए उसका त्याग कर देती हैं।

परन्तु समाज में ऐसे भी परिवार देखे गए हैं, जहाँ बेटी को बेटों के बराबर का हक़ दिया जाता है। ऐसे परिवारों की संख्या ऊँगली पर गिनी जा सकती है। आजकल के एकल परिवार में जहाँ एक पुत्र या एक पुत्री है, वहां ऐसी कोई स्थिति नहीं आती।

ऐसी स्थिति में इस कानून का पूर्ण रूप से लागू होना कैसे संभव होगा ? यह मेरी सोच से परे है।


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