शम्बुक वध
शम्बुक वध
मैंने लगभग पचास साठ मीडिया कर्मियों को मेल किया और जो नौकरशाह ,मंत्री वगैरह सम्मेलन में शिरकत करने वाले थे उनको भी दुबारा पूछा लेकिन अधिकतर ने काले बादलों की तरह उमड़-घुमड़ तो बहुत की परन्तु बरसा एक भी नहीं।
परदीप कुर्मी जैसे सौ- डेढ़ सौ आदिवासी प्रतिनिधि अपने समाज के सतरंगी भविष्य के सपने संजोए इस कॉन्फ्रेंस हॉल में मौजूद थे।
करीब डेढ़ घण्टे तक सांसद, पुलिस-महकमा, न्यास पीठ के अध्यक्ष व मीडिया जगत का इंतज़ार करने के बाद मैंने माइक अपने हाथों में लिया लेकिन मेरा मन मेरे शब्दों के साथ नहीं था, वह याद कर रहा था उन पलों को..
दस दिन पहले- "मुझे जंगलों को पार करते हुए उनकी बस्ती तक पहुंचने में लगभग एक घण्टा लग गया था।'
मेरे शोध को अब एक दिशा मिलने वाली थी।
विषय था- "आदिवासी समाज का मुख्यधारा में शामिल होना"
मैंने मुखिया जी से मिलकर उन्हें बताया कि जो नेताजी तुम लोगों के वोट की बदौलत चुनाव जीते हैं उनकी अगुवाई में हमारी राजधानी दिल्ली में कोई बड़ा सा सम्मेलन होने जा रहा है जिसमें हर बस्ती का मुखिया भागीदारी करेगा। उस सम्मेलन के बाद आप सब लोगों को वे सब सुविधाएँ व अवसर मिलेंगे जिनसे आप लोग अभी तक वंचित रहे हैं।
जितनी सावधानी से मैंने कहा उतनी ही तत्परता से वह मेरे साथ चलने को राजी भी हो गए।
अचानक मेरी तन्द्रा पास खड़े माइक मेन ने भंग की व मैं देखता हूँ कि एक मुखिया मुझसे माइक माँग रहा है।
" साहब, हम लोग आकर्षक नहीं होत न, तबही ई मीडिया वाला बाबू लोग हमरी तरफ देखत ही ना है।
हमार फोटुआ इह लोग काहे लेवत हैं ? अउर बोट ही के बखत नेतन लोग आवत हे। पाछी कोई सुधि ना ही लेवत।
निराशा का एक गम्भीर सन्नाटा अश्रु रूप में उसकी अनुभवी आँखों से ढलता हुआ झुर्रियाँ पड़े हुए गालों पर ओस की बूंद की मानिंद ठहर-सा गया।
अपनी दुरूह पूर्ण ज़िन्दगी को जीने के लिए हौसलों की पोटली को लाद कर वह फिर चल पड़ा।