एडमिट कार्ड
एडमिट कार्ड
शाम का वक्त हो चला था और सूरज अपनी बची खुची गर्मी निचोड़ कर जाने के इंतज़ार में था। बाज़ार में खड़े समोसा खाते हुए एक दम से ध्यान फ़ोटोस्टेट की दुकान पर लगी भीड़ पर गया।
तभी तुरंत प्रभाव से मैंने फ़ोन निकाला और नंबर मिलाते ही- “सर मैं आ रहा हूँ।”
और मैं वायु वेग से अपने फ्लैट की तरफ भागा जहाँ से एक जोड़ी कपड़ों के साथ अपना झोला कंधे पर टाँगा और निकल लिया।
हम सब जिन्दगी में ऐसे दौर से रूबरू जरुर होते हैं जब कुछ नहीं से बहुत कुछ के कठिन सफ़र पर चलना पड़ता है। कभी-कभी हाथों की लकीर साथ दे देती है तो कभी किस्मत की फकीरी तोड़ते-तोड़ते हौसले टूट जाते हैं मगर हम सब को ये सफ़र तय करना होता है।
मेट्रो स्टेशन से बाहर निकलकर जैसे ही मैंने फ़ोन मिलाया तब वहाँ दूर से हाथ उठा कर इशारा किया- “यहाँ हूँ भाई इधर आ जा।”
फिर रास्ते में पड़ने वाले आंध्र स्टाइल होटल पर मोटर साइकिल लगा कर हम अपने पसंदीदा विषय राजनीती पर चर्चा करने लगे। दरअसल सर जी भाजपा सपोर्टर है और मैं कांग्रेस विरोधी इस कारण जब भी हमारी चर्चा चलती तो निशाना अखिल भारतीय स्तर की पार्टिया हुआ करती। राम मंदिर, जातिवाद, राजनीती, भ्रष्ट राजनेता सब पर हमारे वाद विवाद काफ़ी उच्च स्तर के थे बस कसर इतनी थी की टीवी पर नहीं आते थे या किसी न्यूज़ चैनल की हम पर नज़र नहीं पड़ी थी।
खाना निपटा कर हम सर जी के फ्लैट की तरफ़ अग्रसर हुए। शहर से दूर बसे होने के कारण इस इलाक़े ठंड का प्रभाव थोडा ज्यादा ही रहता है। 2 बी. अच. के. का ये सरकारी फ्लैट अकेले इंसान के लिए किसी विला से कम नहीं। किताबों से भरी उनकी अलमारी घर को लाइब्रेरी सिरे सा रोशन किये हुए है। मोसाद, शिवाय, भागवत गीता और अंग्रेजी के भिन्न-भिन्न लेखकों की भाँति-भाँति के नाम वाली किताब अपने सिर से वायु सेना के किसी लड़ाकू विमान की तरह गुजरती. मगर आदत से मजबूर मैं भी सभी किताबो के फ्रंट पेज पर छपे चित्रों को भली भाँति देखता।
रात तक़रीबन सिर पर बैठ चुकी थी और हम किसी फेसबुक पेज के एडमिन के बारे में चर्चा कर रहे थे। दरअसल हम दोनों उस पेज के फैन है और अक्सर दफ्तर में भी उसकी पोस्ट की बात करते रहते हैं और इस तरह ही चर्चा में आधी रात गुजर गयी और मैं और सर जी गुड नाईट बोल सोने ख़िसक लिए।
सुबह नहा धो कर मैं बैग में वो कागज़ कुछ ढूंढ रहा था मगर वो कमबख्तत भी दूसरे कमरे से सर जी निकले और बोले- “उठ गया भाई ... चले ?”
मैं: मारे गए सर जी।
सर: क्या हुआ अब ?
मैं: एडमिट कार्ड नहीं मिल रहा..!
सर: तो फिर अब .... ?
मैं: प्रिंटर चाहिए !
सर: प्रिंटर तो नहीं है !
मैं: फिर बाजार से कराना पड़ेगा !
सर: सुबह 6 बजे कौन सा बाजार खुलता है बे !
बस यहाँ से शुरू हुआ लफड़े ने बीसों फ़ोन और जगह-जगह के चक्कर कटवा दिए। बाइक की पिछली सीट पे बैठे मैंने उस एक घंटे में बस ये काम किया। नुक्कड़ की दुकान पर मैं: भैया यहाँ फ़ोटो स्टेट की दुकान है ?
कपड़े वाले की दुकान पर।
मैं: भैया यहाँ फ़ोटो स्टेट की दुकान है ? टायर पंचर की दुकान पर।
मैं: भैया यहाँ फ़ोटो स्टेट की दुकान है ? दूध वाले की दुकान पर।
मैं: भैया यहाँ फ़ोटो स्टेट की दुकान है।
लेकिन सब का जवाब तकरीबन एक ही था- “भाईसाहब मार्किट 9 बजे ही खुलेगी।”
जब मैं मोबाइल दुकान से हताश-परेशान लौट रहा था और जैसे ही बाइक पर बैठा तो ऊपर से। ऊपर आसमान से बारिश की बूँद आकर सिर पर गिरी। और मैं आसमान की तरफ देख कर बोला- “आजा मामा तेरी ही कसर थी।”
और फिर हम टाट पर प्लास्टिक की पॉलिथीन फ़ँसाये- “भैया यहाँ फ़ोटो स्टेट की दुकान है..? करते घूम रहे थे।
तभी सर जी ने फ़ोन निकाला और मिलाया-
“हेल्लो यार मैं तुम्हारे ऑफिस के बाहर खड़ा हूँ, एक प्रिंट आउट चाहिए, अर्जेंट है कोई दोस्त है तो प्लीज मँगा दो।”
अगले दस मिनट में एक भाई एडमिट कार्ड की 2 कॉपी दे गया।
और सुबह से मेरी लापरवाही से पीड़ित सर जी ने मुझे एयरफोर्स स्टेशन पर छोड़ चैन की साँस ली।
आज भी जब उस दिन को याद करता हूँ तो कमबख्त हँसी और गुस्सा दोनों आते हैं। मगर अच्छा लगता है जब आपके सर जी जैसे दोस्त हो जो आपकी लापरवाही और आपकी जरुरत में आपका साथ ना छोड़े।
इस वाकया से मैंने जीवन में तीन चीज़ें सीखी। एक तो अपना एडमिट कार्ड पेपर से एक दिन पहले ही प्रिंट आउट निकलवा कर रखो। दूसरा जीवन में अच्छे दोस्त होना वरदान है और तीसरा बाजार 9 बजे खुलता है।