आख़िरी उधार
आख़िरी उधार
खलीफ़ा चाचा...यही नाम था जिससे पूरा मोहल्ला उन्हें जानता था। आप सब को सुनकर लगता होगा कि खलीफ़ा चाचा किसी 6½ फुट के किसी लम्बे-चौड़े पठान का नाम है, लेकिन खलीफ़ा चाचा एक दुबले-पतले मुश्किल से 5 फुट और कुछ इंच के थे, उस पर से दीयासिलाई जैसा बदन। कुल मिलकर यूँ कहिये कि चाचा खुद में ही एक बहुत बड़ा मज़ाक थे, शायद यही वजह थी कि जो भी उनसे पहली मर्तबा मिलता था उनका नाम सुनकर ज़ोरों से हँस पड़ता था। चाचा को पहले तो ये सब बहुत बुरा लगता था लेकिन फिर उन्हें आदत सी हो गयी। खैर, अब आप लोग सोच रहे होंगे कि उनका ये नाम कैसे पड़ा? दरअसल चाचा का असली नाम, वो कहाँ से आये थे और उनका परिवार कहाँ है, ये कोई नहीं जानता था। चाचा गली के नुक्कड़ पर अपनी अण्डों की दुकान लगाते थे, अक्सर उस चौराहे पर झगड़े होते रहते थे, चाचा न लड़ाई की वजह देखते न ही लड़ने वाले का ओहदा बीच में रेफरी की तरह जाकर दोनों तरफ के लोगों को ऐसे डाँटते थे जैसे माँ कांच के बर्तन तोड़ने पर डांटती है, और लोग चुप होकर समझौता कर लेते थे। चाचा ने कई बार इलाके के बड़े-बड़े गुंडों और नेताओं को भी नहीं बख्शा था, यही वजह थी कि लोग उन्हे खलीफ़ा चाचा कहकर बुलाने लगे थे। नाम, पता, परिवार तो नहीं मालूम लेकिन मुझे ये मालूम है कि चाचा कब यहाँ पर आये थे, जानना चाहेंगे ? तो इसके लिए आपको मेरे साथ थोड़ा पीछे चलना पड़ेगा...मेरा मतलब वक़्त में पीछे।
बात उस वक़्त कि है जब मैं तकरीबन 10 साल का था, यानि कि आज से लगभग 19 साल पहले कि... हर शाम को मैं अपनी बालकनी में खड़े होकर अपने पिताजी, जो कि बी.एस.एन.एल के दफ़्तर में काम करते थे, उनके आने का इंतज़ार करता था। एक शाम इसी तरह मैं गली में मुड़ने वाले हर चेहरे में अपने पिताजी को ढूंढ रहा था, तभी अचानक पता नहीं कहाँ से एक आदमी आकर हमारी गली के कोने पर लगे हुए नीम के पेड़ के नीचे बैठ गया। लम्बे उलझे बाल, एक फटी हुई बेल-बॉटम वाली पैंट और ऊपर मैली-कुचैली भूरी कमीज़...जो शायद कभी सफ़ेद रही होगी। यूँ तो मैंने पहले भी बहुत से शराबी, पागल और भिखारी देखे थे, जो लड़खड़ाकर चलते थे, कभी-कभी उस 1 फुट चौड़ी नाली में गिर जाते थे और फिर अगली सुबह उठते थे। लेकिन ये बाकियों जैसा नहीं लग रहा था, इसके पास एक झोला था जिसमे शायद कुछ सामन था...और वो बात जो सबसे अलग थी, इसकी आँखों में एक अजीब सा ठहराव था। मैं काफी देर तक उसे यूँ ही देखता रहा, फिर माँ की आवाज़ आई तो पता चला कि पिताजी घर आ चुके हैं, मैं वापस नीचे अपने पिताजी के पास चला गया। अगली सुबह जब अपने पिताजी के साथ स्कूल के लिए निकला तो नुक्कड़ पर वही शख्स़ फिर दिखा, कुछ देख रहा था शायद कोई तस्वीर थी उसके हाथ में, पिताजी के स्कूटर की रफ़्तार इतनी तेज़ थी कि मैं सिर्फ यही देख पाया। स्कूल से वापस आते समय भी वो मुझे नीम के पेड़ के नीचे दिखा, मैं उसके सामने जा कर रुक गया वो अभी भी पढ़ने में मशगूल था। अचानक से उसने अपनी नज़र ऊपर उठाई और मेरी तरफ देखा...
“क्या देख रहा है?” उसने गम्भीर स्वर में पूछा..
मेरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गयी...मैं बिना कुछ बोले तेज़ी से अपने घर की तरफ चल पड़ा, पलटकर देखा तो वो फिर से उस किताब की गिरफ़्त में था। मैं हर सुबह और शाम उस शख्स़ को वहाँ देखता था, कभी किताब पढ़ते, कभी वो तस्वीर निहारते हुए, तो कभी यूँ आसमान को देखते हुए जैसे बादलों को सही रास्ता बता रहा हो। इलाके के लोगों ने उसे भिखारी समझ लिया था और उसको पैसे और खाना देने लगे थे, एक दिन मैं भी वहाँ उसे अपने पिताजी के साथ खाना देने गया था, तभी एक आदमी ने आकर उसकी तरफ एक 2 रुपये का सिक्का फेंका...
“रुको”...उसने पैसे देने वाले शख्स़ को पुकारा...
वो पैसे फेंकने वाले अंकल वापस आये तो इसने उन्हें अपने पास बैठाया और उनसे उनका नाम और पता पूछा। वो अंकल अपना नाम और पता बताकर चले गए, तभी मैंने कुछ अजीब देखा इस आदमी ने अपने झोले से एक किताब निकाली और उसके आख़िरी पन्ने पर कुछ लिखा, और फिर वो 2 रुपये अपनी जेब में डाल लिए। ये सिलसिला तकरीबन 2 हफ्ते तक चला, एक दिन स्कूल जाने के लिए में बाहर खड़ा था और पिताजी अपना स्कूटर साफ़ कर रहे थे...
मैंने देखा कि ये आदमी मुंसीपाल्टी के नल के नीचे बैठकर नहा रहा है...चेहरे और बदन पर झाग लगा हुआ था, लेकिन लग रहा था कि जैसे इसने दाढ़ी कटवाई है, बगल में एक पत्थर पर एक कुरता और धोती रखे हुए थे। नहा-धोकर वो खड़ा हुआ और अपने साफ़ कपड़े पहनकर और वो झोला बदन पर डालकर कहीं निकल गया, मैं दोपहर में स्कूल से वापस आया तो देखा कि वो वहाँ पर नहीं था...
“शायद चला गया अब लौट कर नहीं आएगा” मैंने मन ही मन सोचा।
शाम को मैं पिताजी का रास्ता देखने बालकनी पर गया तो वहाँ पर कुछ अलग दिखा...उस नीम के पेड़ के नीचे छोटी सी टेबल पर एक अण्डों की दुकान थी, हमारे खलीफ़ा चाचा की दुकान।
अब चाचा ने टिन, टाट और कुछ आवारा ईंटों की मदद से एक ऐसी जगह बना ली थी जिसे लोग उनका घर कह सकते थे, वो वहीँ दोपहर के खाली समय में बैठकर आराम करते थे, या पढ़ते थे और रात को सोया करते थे। मैं अक्सर अपने पिताजी के साथ शाम को वहाँ उनकी दुकान पर अंडे खाने जाया करता था, चाचा अब मुझे अच्छे लगने लगे थे...या फिर शायद मैंने उनसे डरना छोड़ दिया था। इसकी वजह बहुत सी थीं...आवाज़ में अजीब सी मिठास, चेहरे पर हल्की सी मुस्कान और ज़बां का काम करने वाली आँखें, कुछ अपनापन था चाचा में...वो मुझे प्यार से "डब्बू" कहकर बुलाते थे। कई बार मैं स्कूल से आने के बाद उनके पास ही दोपहर का वक़्त बिताता था, जहाँ वो मुझे दुनिया भर के किस्से सुनाया करते थे कुछ उन्हें किताबों से मिले थे तो कुछ अपने तजुर्बे से। शाम को मेरी माँ हमारे दरवाज़े से आवाज़ लगाती थी और मुझे अपने घर की तरफ दौड़ना पड़ता था। मेरी माँ को चाचा बिलकुल पसंद नहीं थे, किस माँ को पसंद होगा कि उसका इकलौता बेटा एक फ़कीर की संगत में रहे जिसका अगला-पिछला किसी को नहीं पता था।
मैं उम्र और ज़िन्दगी के इस नए पड़ाव को बहुत पसंद कर रहा था, मेरे एग्ज़ाम्स का डर हो या पिताजी की डाँट..चाचा के पास मेरी हर परेशानी की दवा थी, वो तसल्ली से बिठाकर मुझे समझाते थे
“देख डब्बू मेरा तुझ पर कोई हक नहीं बनता लेकिन फिर भी मैं तुझे कितनी मर्तबा डाँट देता हूँ, क्योंकि मैं तेरा भला चाहता हूँ, फिर वो बेचारा तो तेरा बाप है उसे शौक़ थोड़ी है तुझे डांटने का”...और अगर मैं इतने में भी न मानता तो कहते थे
“चल मैं अभी जाकर कहता हूँ तेरे बाप से कहता हूँ...लड़का बड़ा हो रहा है, आपकी चप्पल, जो पहले सर पर पड़ती थी...अब खुद के पैरों में पहन के घूमता है”...
और मुझे इसी तरह के बहानों से हँसा देते थे। मैंने उनके उस “घर” में बगल के खम्भे से तार जोड़कर एक बल्ब लगा दिया था, ताकि वो अब रात को भी किताबें पढ़ सकें...और वैसे भी इतने रोशन मिजाज़ इंसान के घर में अँधेरा अच्छा नहीं लगता।
चाचा अब 60 के करीब थे शायद, ये उनके शरीर से नहीं उनकी आदतों से पता चलता था, अक्सर मुझे कोई किस्सा या कहानी सुनते वक़्त सो जाते थे और फिर मैं उन्हें उठाता था..
“चाचा, उसके बाद क्या हुआ?”
चाचा हड़बड़ाकर उठते और कहते “अं....कौन है?, अरे डब्बू तू है...कहाँ था मैं?”
और फिर दोबारा मुझे वो किस्सा सुनते थे, खैर गलती मेरी भी थी क्योंकि ये उनके आराम करने का समय होता था, और इसी समय मैं उन्हें परेशान करता था।
मैंने कई दफ़ा उनसे पूछता था “खलीफ़ा चाचा आपका असली नाम क्या है?”
चाचा पलटकर कहते थे “अच्छा, पहले ये बता की तू कौन है?”
और इसी तरह मुझे बातों में उलझा देते थे। इसीलिए अब मैंने उनको बीच कहानी में सो जाने पर उठाना छोड़ दिया था और इस वक़्त में उनके घर में कुछ ऐसा ढूंढता था जिससे चाचा के बारे में कुछ और जानने को मिले, लेकिन अफ़सोस वहाँ कभी कुछ नहीं मिला किताबों से पूछा, अंडे की क्रेटों की तलाशी ली, उस पतीले से भी रूबरू हुआ जिसमें चाचा अंडे उबालते थे लेकिन उस के पास भी दिखने के लिए सिर्फ एक भंवर था जो शायद कहीं गिरने से उसे ईनाम में मिला था।
“वो झोला...हाँ वो झोला जो चाचा अपने साथ लेकर आये थे उसमें ही तो वो तस्वीर है...और वो किताब भी जिसमें चाचा कुछ लिखते थे, बस वही एक ऐसी जगह बची थी जहाँ मैंने नहीं ढूँढा था”।
चाचा हमेशा उसे अपने बदन पर डालकर ही रहते थे अंडे उबलते वक़्त, बेचते वक़्त, और सोते समय वही उनका तकिया होता था, जैसे कि मानों वो उनके बदन का एक हिस्सा हो...उस झोले में ज़रूर कुछ है जो चाचा के बारे में बता सकता है, लेकिन चाचा उसकी तरफ देखने पर भी भड़क से उठते थे, वो हाथ नहीं लगाने देंगे उसे कभी।
मैं स्कूल से अब कॉलेज में आ चुका था और चाचा अब बहुत ही बूढ़े हो चुके थे, और थोड़े चिड़चिड़े भी...या फिर यूँ कहिये कि और भी खलीफ़ा हो गए थे। कभी मुझे किस्से सुनाने वाले चाचा अब मुझसे किस्से सुना करते थे, हर दोपहर वो मेरे कॉलेज से वापस आने का इंतज़ार करते थे और मुझे देखते ही बड़े हक़ से आवाज़ लगाते
“ए डब्बू...इधर आ, बच के निकलना चाहता है...चूज़ा कहीं का”
फिर में उन्हें बैठकर एक नयी कहानी सुनाता था या फिर अपने कॉलेज का किस्सा। अगर कभी चौराहे पर कोई झगड़ा हो जाता था तो चाचा कहानी के बीच में ही उठकर चले जाते थे, और बाहर का मसला सुलझा कर वापस आते...” हाँ तो क्या बोल रहा था तू?”
मुझे कई बार लगता था कि चाचा मेरे किस्से नहीं मेरी आवाज़, मेरे साथ के लिए वहाँ मुझे बुलाते थे...शायद इसीलिए मुझे उनके इस रवैय्ये से कोई परेशानी नहीं थी। मैं जब भी देखता था कि चाचा हल्के मिजाज़ में हैं, तो मैं उनसे दोस्त की तरह पूछ लिया करता था...“अच्छा चाचा ये बताओ कि तुम्हारा असली नाम क्या है?”
ये सुनकर वो वापस दोस्त से खलीफ़ा चाचा बन जाते और कहते “तूने बताया आज तक कि तू कौन है?”...
“मैं डब्बू हूँ चाचा”...मैं पलटकर कहता था..
“भाग यहाँ से, डब्बू हूँ मैं ” वो झुंझला जाते थे..
एक दिन मेरा कॉलेज में प्रिया से झगड़ा हुआ...प्रिया, मेरी प्रेमिका का नाम था, उसी से मेरा झगड़ा हुआ था या फिर वो क्या कहते हैं आजकल “ब्रेकअप” हुआ था...मैं उस दिन चुपचाप था। चाचा ने मुझे आते हुए देख लिया, मेरा मन नहीं था आज उनके पास जाने का...चिल्लाकर बोले “ओये डब्बू के बच्चे..कहाँ निकल रहा है बच कर, इधर आ”
मैं सुस्त क़दमों से उनकी तरफ चल पड़ा, और जाकर उनके घर में बैठ गया...चाचा मुझे देखते ही जान गए कि कुछ तो गड़बड़ है... “क्यों भई आज का क़िस्सा शुरू कर”...
“आज कोई किस्सा कोई कहानी नहीं है चाचा”...मैंने धीमे स्वर में जवाब दिया..
“किस्सा तो है तेरे उसका असर भी दिख रहा है तेरे चेहरे पर, बता जल्दी क्या हुआ?” चाचा मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले
''चाचा प्रिया के बारे में पहले से जानते थे, इसीलिए मैंने उन्हें सारा किस्सा बता दिया... “चाचा मुझे हमेशा लगता था कि वो मेरे साथ हमेशा रहेगी, लेकिन आज...”
चाचा ने मेरी बात सुनी और कुछ देर के लिए चुप हो गए, फिर नज़र उठाकर मेरी तरफ देखा और बोले... “बेटा ज़िन्दगी में कौन रहता है हमेशा, चाहें तेरी ज़िन्दगी हो या उस ऊपरवाले की बनाई ये दुनिया...हर कोई यहाँ एक वजह से है...रहता है तो वजह होती है..जाता है तो भी वजह होती है..हो सकता है कि जिस वजह से आज तू इतना बेचैन है कल यही तुझे सुकून दे। इंसान की आदत नहीं फ़ितरत है छोड़कर जाना...किस-किस के लिए रोयेगा..”
चाचा की आँखों में मैंने आज फिर एक दूसरा ही शख्स़ देखा था, वही जिससे मैं बचपन में डरता था, वही जिसकी आँखों में ठहराव था...
”आपका असली नाम क्या है चाचा?, आपका परिवार कहाँ है?” मैंने मौका देखकर ये सवाल दाग दिए...
चाचा ने कुछ कहना चाहा “म्म्म्मैं...”
“इस झोले में क्या है?” मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी...
लेकिन तभी मैंने चाचा की आँखों में उस आदमी को वापस जाते हुए देखा...और दोबारा खलीफ़ा चाचा सामने थे...” तूने बताया आज तक कि तू कौन है?...तू बड़ा होशियार समझता है न खुद को, लेकिन तू अभी भी कच्चा अंडा ही है...उबला नहीं है”...
इतने में बाहर से माँ की आवाज़ सुनाई दी...मैंने चाचा से दोबारा पुछा “बताओ न, मैं किसी को नहीं बताऊंगा”...
“जा यहाँ से तेरी माँ बुला रही है, किस्सा न हो तो यहाँ मत आया कर, फोकट में टाइम खराब करता है..भाग”...लेकिन मुझे चाचा की ये बातें बुरी नहीं लगी, उन्होंने जो आज मुझसे कहा था..जो समझाया था उसके सामने उनकी ये डांट कुछ भी नहीं थी।
खैर वो मेरे कॉलेज का आख़िरी साल था...मैं पढ़ाई में बहुत ज़्यादा मशगूल रहने लगा...चाचा के पास जाने का समय भी नहीं मिल पाता था...घर से कॉलेज और कॉलेज से घर यही ज़िन्दगी का नियम सा बन गया था। चाचा कई बार माँ से बोलने घर पर भी आये थे कि मुझे उनके पास भेज दिया करें...लेकिन माँ मुझे जान-बूझकर नहीं बताती थी। दिन इसी तरह बीतते गए तकरीबन 1 महिना मैं चाचा से नहीं मिला...अपने एग्ज़ाम्स ख़त्म होने के बाद मैंने उनसे मुख़ातिब होने का फैसला किया...लेकिन इतने दिनों से नहीं मिला था...कुछ तो लेकर जाना होगा। मैनें चाचा के लिए एक अच्छी सी किताब खरीदी और कॉलेज के बाद सीधा उनसे मिलने के लिए निकला, “पता है डांटेंगे...लेकिन आज महीने भर की कसर पूरी कर दूँगा”। रिक्शे से उतरा तो देखा कि आज नुक्कड़ पर भीड़ थी.. “ज़रूर कोई झगड़ा हो रहा होगा, और चाचा वहाँ रेफरी बने होंगे”। फिर देखा कि वहाँ बगल में एक एम्बुलैंस भी खड़ी थी, और धुंआ सा उठ रहा था...मुझे चाचा कि फ़िक्र हुई मैं दौड़कर भीड़ में शामिल होता हुआ सबसे आगे पहुँच गया। धुआं चाचा के घर से निकल रहा था...लोगों ने बताया कि वो बगल के खम्भे से बिजली का तार जो उनके घर में लगा हुआ था, वो टूट गया था और उसी से वहाँ थोड़ी आग लग गयी थी। मैंने राहत की साँस ली...”चलो चाचा को तो कुछ नहीं हुआ..लेकिन चाचा हैं कहाँ..?”
किसी से पूछने के बजाय मैंने खुद उन्हें आस-पास ढूँढना शुरू किया, लेकिन वो कहीं नहीं दिखे। एकाएक नज़र एम्बुलैंस पर पड़ी, जिसका एक दरवाज़ा खुला हुआ था..वहाँ स्ट्रेचर पर कोई था... “चाचा?”
मैं भागकर वहाँ पहुंचा..वो चाचा ही थे...जिस तार से घर में आग लगी थी उस पर चाचा का पैर पड़ गया था। मुझे अन्दर से लगा कि मुझे रोना चाहिए...इस इंसान के लिए रोने वाला और कौन है, अब ये कभी लौटकर नहीं आएगा? लेकिन तभी मुझे चाचा कि वो बात याद आई
“हर कोई यहाँ एक वजह से है...रहता है तो वजह होती है..जाता है तो भी वजह होती है। इंसान की आदत नहीं, फ़ितरत है छोड़कर जाना...किस-किस के लिए रोयेगा..”
इन लफ़्ज़ों को याद करते ही मेरे आँसूं आँखों में जम गए...। मेरी नज़र उस झाले पर पड़ी जो वहाँ बगल में रखा हुआ था...शायद किसी ने उनके बदन से उतार दिया था..उनके मरने के बाद...क्योंकि जीते जी तो वो ऐसा करने न देते। मैं उस झोले की तरफ बढ़ा...आज चाचा मुझे नहीं डांट सकते...उस झोले में एक ब्लैक एंड वाइट तस्वीर थी...एक फ़ैमिली फोटो...एक औरत, दो छोटे बच्चे...और बगल में खड़ा एक आदमी, काले कोट में..जैसे कोई बहुत बड़ा वकील हो। लेकिन ये शख्स़ खलीफा चाचा नहीं थे, ये वही शख्स़ था जो उस दिन मुझे चाचा की आँखों में दिखा था..मैंने फिर झोले में हाथ डाला इस बार एक किताब निकली, बहुत पुरानी पन्ने पीले पड़ चुके थे...
”ये तो वही किताब है जिसमें मैंने चाचा को कुछ लिखते हुए देखा था”...मैंने उस किताब का आख़िरी पन्ना निकाला...उस पर कुछ लोगों के नाम थे, उनका पता था, उन्होंने चाचा को जो भी भीख या मदद दी थी वो लिखी थी, और आख़िरी कॉलम में चाचा ने लिखा था कि उन्होंने किस-किस को वो उधर चुका दिया है...उसमें सब के नाम के आगे लिखा था “चुका दिया है” सिवाय आख़िरी नंबर के। उसमें किसी का नाम नहीं था, बस उधारी में लिखा था “भरोसा” लेकिन वहाँ नहीं लिखा था कि ये उधार “चुका दिया है”...शायद बाकी हो। मैंने उसका पता देखा ....यह...यह तो मेरा पता था...
“चाचा को मुझ पर भरोसा नहीं था?”। “लेकिन चाचा ने यहाँ मेरा नाम क्यों नहीं लिखा...उन्हें मेरा नाम तो......पता ही नहीं था।
हाँ...डब्बू तो वो मुझे प्यार से बुलाते थे...उन्हें मेरा असली नाम तो पता ही नहीं था...या फिर मैनें उन्हें कभी बताया ही नहीं......मैं हमेशा चाचा से उनका नाम पूछता था..और वो कहते थे कि "तू पहले अपना नाम बता "..
इतना स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ मैं... मैनें उन्हें अपना नाम कभी बताया ही नहीं, मैंने अपनी माँ की तरह ही उन पर कभी सच्चे दिल से भरोसा नहीं किया...मैनें उन्हें वो उधार चुकाने ही नहीं दिया...
वो मुझे डब्बू ही बुलाते रहे न वो मेरा असली नाम मुझे बता पाए...न मैं। आज उनके मरने के 6 साल बाद भी, हर एक शख्स को अपना असली नाम बताते वक़्त मुझे चाचा याद आते हैं, मुझे लगता है...चाचा खुद पर नहीं...मुझ पर ये उधार छोड़ गए।