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स्कूल

स्कूल

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मनोज अपने पिता के साथ अपनी दुकान की तरफ जा रहा था। कस्बे के बस अड्डे पर उसके पिता की चाय की एक छोटी सी दुकान थी। मनोज दिन भर दुकान पर अपने पिता की मदद करता था।


दोनों तेज़ क़दमों से चले जा रहे थे। समय पर पहुँच कर दुकान खोलनी थी। चाय की तैयारी करनी थी। कुछ ही देर में बाजार में चहल-पहल हो जाएगी। शहर से आने वाली बस पहुँच जाएगी। बस से उतर कर यात्री सबसे पहले चाय पीने दुकान पर आएंगे। उससे पहले सब तैयारी हो जानी ज़रूरी थी।


मनोज कस्बे के सरकारी स्कूल के पास से गुजरा। अभी स्कूल शुरू होने में समय था। जब वह स्कूल के गेट के सामने पहुँचा तो हमेशा की तरह गेट के अंदर झांका। उसके पिता ने डांटा,

"अब वहाँ क्यों खड़ा हो गया। जल्दी चल।"

मनोज फिर उनके साथ चलने लगा।

कल रात उसने फिर वही सपना देखा। वह यूनीफार्म पहन कर, बस्ता लेकर स्कूल गया है। वहाँ वह मन लगाकर पढ़ रहा है।


यह सपना वह सिर्फ सोते हुए ही नहीं बल्कि जागते हुए भी देखता था। 

मनोज और उसके पिता दुकान पर पहुँचे। मनोज ने फौरन अपनी ज़िम्मेदारी संभाल ली। चाय के गिलासों को एक बार पानी से खंगाल कर सजाना शुरू कर दिया। उसके बाद नमकीन और मीठे बिस्कुट के दो जार लाकर रखे। 


इस बीच उसके पिता ने चूल्हा जला कर दूध गर्म किया। चाय का पानी चढ़ा दिया। कुछ ही देर में उबलती चाय की महक चारों तरफ फैल गई। 

बस आई। यात्री उतर कर चाय पीने आए। मनोज सबको गिलास में भर कर चाय देने लगा। जो साथ में बिस्कुट मांगता उसे बिस्कुट देता। काम शुरू हो गया था। बीच बीच में वह खाली गिलास धोकर रख देता था।


बहुत देर तक ग्राहकों का तांता लगा रहा। जब कुछ फुर्सत मिली तो उसके पिता ने दो गिलासों में चाय डाली। घर से लाई गई रात की बासी रोटी जिसमे नमक लगा था दोनों मिलकर चाय के साथ खाने लगे। मनोज को बासी रोटी बहुत अच्छी लग रही थी। सुबह बिना कुछ खाए निकलना पड़ता था। अब तक ज़ोर से भूख लगने लगती थी। 


आधी रोटी खाने के बाद जब भूख कुछ शांत हुई तो उसने अपने पिता से कहा,

"क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि मैं दुकान पर काम भी करूँ और..."

कहते हुए मनोज झिझक गया। उसके पिता आगे की बात जानते थे। जिस तरह से आते और जाते समय वह स्कूल के अंदर झांक कर देखता था, उनकी समझ में आ गया था कि वह पढ़ना चाहता है। उसके पिता ने कहा,

"इस छोटी सी दुकान से घर का खर्च चलता है। तुम मदद करते हो तो दुकान चल रही है। नहीं तो अकेले सब संभाल पाना मेरे बस का नहीं है।"


यह बात मनोज को बताने के लिए बहुत थी कि उसका सपना मन में ही रहने वाला था। वह चुपचाप चाय पीने लगा।  

अपना नाश्ता खत्म कर दोनों खाली ही हुए थे कि एक ग्राहक आ गया। मनोज ने उसे चाय दी। उस ग्राहक ने पूँछा,

"यहाँ सरकारी स्कूल कहाँ है ?"

मनोज ने उसे रास्ता समझा दिया। वह ग्राहक बोला।

"तुम वहीं पढ़ते हो ?"

"नहीं मैं पापा की दुकान पर मदद करता हूँ।"

ग्राहक ने चाय खत्म की और पैसे देकर चला गया। 


अपने सपने को मन में दबाए मनोज प्रतिदिन अपने पिता के साथ दुकान आता था। अब उसने स्कूल के भीतर झांकना बंद कर दिया था। 

स्कूल का नया साल शुरू हो रहा था। मनोज अपने पिता की दुकान पर था। ग्राहक ने आकर उससे चाय मांगी। उसने चाय लाकर दी।

"पढ़ना चाहते हो ?"

यह सवाल सुनकर मनोज ने ग्राहक को देखा। वह कुछ पहचाना सा लगा।

"मेरा नाम नवाब खान है। उस दिन तुमने स्कूल का पता बताया था।"

मनोज उसे पहचान गया।

"वो स्कूल का मेरा पहला दिन था। मैं प्राइमरी टीचर हूँ। उस दिन जब तुमने कहा था कि तुम स्कूल नहीं जाते हो। अपने पापा की यहाँ मदद करते हो। तब मैंने तुम्हारे मन में दबी पढ़ने की इच्छा को पहचान लिया था।"

मनोज कुछ नहीं बोला। नवाब ने अपना सवाल दोहराया। मनोज ने जवाब दिया।


"मैं अगर दुकान में पापा का हाथ नहीं बटाऊँगा तो घर नहीं चलेगा।"

"मैं तुम्हारे पापा से बात करूँगा। ये मेरी कोशिश है कि तुम्हारे जैसे बच्चे जो स्कूल नहीं जाते है, उनके घरवालों को समझाऊँ कि पढ़ना हर बच्चे का हक है। अतः उन्हे स्कूल भेजें।"

"पर मैं दुकान नहीं आऊँगा तो पापा को दिक्कत हो जाएगी।"

"सोचो अगर तुम पढ़-लिख कर कुछ बन गए तो पापा की कितनी मदद कर पाओगे।"

नवाब की बात ने मनोज के मन में उम्मीद के दिए को फिर से जला दिया। उसने नवाब को अपने पिता से मिलवाया।‌ उसके पिता मानने को तैयार नहीं थे। 


पर नवाब भी हिम्मत हारने वालों में नहीं था। वह लगभग रोज़ ही आता। मनोज के पिता को हर तरह से समझाने की कोशिश करता। अब तो मनोज भी उसके साथ अपने पिता को राज़ी करने का प्रयास करता।

आखिरकार नवाब और मनोज उन्हे समझाने में कामयाब हो गए।

मनोज अपने पिता के साथ दुकान पर आया था। वह उनका हाथ बॅंटा रहा था। उसके पिता ने घड़ी देख कर कहा,

"मनोज अब तैयार हो जा। तेरे स्कूल का समय हो रहा है।"

मनोज ने जल्दी जल्दी गिलास धोकर रखे। उसके बाद दुकान के पीछे जाकर यूनीफार्म पहनी। बस्ता लिया। जाते हुए अपने पिता से बोला,

"दोपहर छुट्टी के बाद दुकान पर आ जाऊँगा।"

वह खुशी खुशी स्कूल की तरफ बढ़ गया।


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