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अन्यूत्का

अन्यूत्का

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किसी गाँव में एक बेहद पुरानी झोंपड़ी में दद्दू इवान और दादी मारिया रहते थे। उनकी एक पोती थी अन्यूत्का। कद में छोटी, मगर ख़ूब तेजऔर चंचल थी। नाक पर झाईयाँ। और आँखें अजीब थीं : जब मौसम साफ़ होता वे चमकदार और नीली-नीली दिखाई देतीं,और जब मौसम ख़राब होता तो काली और भूरी नज़र आतीं। मगर जब अन्यूता जंगल में जाती उसकी आँखें हरी-हरी हो जातीं।

दद्दू और दादी अपनी पोती से बहुत प्यार करते थे। मगर अपनी ग़रीबी के कारण लाचार थे। न तो उनके पास ज़मीन थीन ही कोई अन्य सम्पत्ति। दद्दू ने सीधे झोंपड़ी में ही मटर का पौधा लगाने का फ़ैसला किया, तहख़ाने में। बीज बो दिये,मगर पौधा आया ही नहीं। तहख़ाने में अँधेरा जो था। मगर एक छोटा-सा पौधा निकल ही आया। उसके ऊपर झिरी से धूप आती थी।

“देख, अन्यूता, तेरे लिए है एक अचरज की बात,” दद्दू ने कहा।

और मटर की बेल हर दिन नहीं, बल्कि हर घण्टे बढ़ती। अन्यूत्का बहुत ख़ुश थी, वह पौधे को पानी देती, उसे सहलाती। पौधा ताकतवर होने लगा, फ़र्श को तोड़ने लगा। दद्दू ने फ़र्श ठीक कर दिया। पौधा बढ़ता रहा, छत तक पहुँच गया। छत से टकराने लगा। दद्दू ने छत में छेद बना दिया बढ़ने दो पौधे को, पोती को ख़ुश होने दो। पौधा बढ़ता ही रहा, छप्पर तक पहुँच गया। छप्पर को भी ठीक करना पड़ा। अन्यूत्का उसे ख़ूब पानी पिलाती, पास में ही नदी जो थी।

और मटर का पौधा बढ़ते-बढ़ते सीधे आसमान तक पहुँच गया, ख़ूब घना और मोटा हो गया। दद्दू इवान फ़सल बटोरने चला। दादी मारिया ने रास्ते के लिए केक बनाकर दिया। मगर तभी पोती ज़िद करने लगी।

“मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारी मदद करूँगी !”

“मैं तुझे कहाँ ले जाऊँगा? तू इत्ती छोटी है, गिर जाएगी, चोट लगेगी।”

“जेब में बैठूँगी। देखो तो कितनी बड़ी-बड़ी जेबें हैं तुम्हारी !”

बात सही थी, दद्दू की जेबें बोरे जितनी थीं। उसने पोती को जेब में रख लिया और मटर के पौधे पर चढ़ने लगा। धीरे-धीरे चढ़ता रहा, मटर की फ़लियाँ तोड़ता रहा, काम करते-करते पोती के बारे में भूल गया। जेब से तम्बाकू का बटुआ निकालने लगा, और बटुए के साथ-साथ अनजाने में ही चोटी पकड़कर अन्यूता को बाहर निकाल लिया। अन्यूता चिल्ला भी नहीं पाई और नीचे गिरने लगी। गिरने लगी,गिरने लगी और घास के मैदान पर गिरी। चारों ओर देखा अनजानी जगह है।।।।

उधर दद्दू ने थोड़ी देर सिगरेट पी और कुछ और ऊपर चढ़ गया। चढ़ता , चढ़ता गया,और आसमान तक पहुँच गया। जैसे ही उसने आसमान पर खड़ा होने की कोशिश की, ज़ोर से बिजली कड़की और धुँआधार बारिश होने लगी। दद्दू आसमान पर भागने लगा जिससे अपने आपको बचा सके, मगर भटक गया। अचानक पोती की याद आई, जेब में हाथ डाला मगर वो तो नहीं थी। क्या करे? ‘अन्यूत्का, अन्यूत्का’ चिल्लाने लगा और उसे ढूँढ़ने लगा। मगर वह कहाँ थी ! ! दद्दू इवान बहुत दुखी हो गया। उसने उस जगह पर लौटने की कोशिश की जहाँ मटर की बेल लगाई थ, मगर नहीं पहुँच सका। और ज़्यादा भटक गया। अचानक घास के ढेर पर गिर पड़ा। उसने घास से रस्सी बनाना शुरू किया। बुनता रहा, बुनता रहा, जब तक की पूरी घास ख़तम नहीं हो गई, एक लम्बी रस्सी बन गई थी। दद्दू इवान ने रस्सी का एक सिरा आसमान से बाँधा, और दूसरा नीचे छोड़कर उसके सहारे ज़मीन पर उतरने लगा।

वह बड़ी देर तक उतरता रहा, मगर अब रस्सी ख़तम हो गई। और हमारे दद्दू ज़मीन और आसमान के बीच लटकने लगा। मगर फिर उसने हाथ छोड़ दिए और मुँह के बल नीचे गिरने लगा। सौभाग्य से वह दलदल में गिता छपाक् ! मुश्किल से बाहर निकला।

दद्दू इवान घर आया और देखा कि उसकी झोंपड़ी टेढ़ी हो गई है और पास ही टीले पर दादी मारिया और अन्यूत्का बैठी हैं और रो रही हैं। उन्होंने दद्दू को देखा और उसकी ओर भागीं। रोते-रोते उससे लिपट गईं, उसे चूमने लगीं, रोते-रोते ही ख़ुशी के मारे हँसने लगीं। शोर सुनकर पड़ोसी भागे। वे भी ख़ुश हो गए।

जब दद्दू बता रहा था कि कैसे वह आसमान पर पहुँचा था, और मटर की फ़ल्लियाँ जेब में भर रहा था तो बड़ी देर तक सब ‘आह-ऊह’ करते रहे।

दूसरे दिन, पूरा परिवार मटर छीलने लगा। और क्या आश्चर्य ! जैसे ही वे कोई फल्ली छीलते, उसमें से सोने का मटर निकलता। ऐसे दानों का पूरा ढेर लग गया। उसके बाद वे आराम से रहने लगे। नई झोंपड़ी बना ली,अन्यूत्का को नई-नई चीज़ें ख़रीद कर दीं।

क्या वे लम्बे समय तक रहे, इस बारे में किसी को मालूम नहीं है। बड़े-बूढ़े कहते हैं कि जहाँ उनकी झोंपड़ी थी, वहाँ अजीब-से फूल खिल गये। और लोग उन्हें ‘इवान और मारिया’ कहने लगे और उस जगह, जहाँ से अन्यूत्का चली थी, बनफूल खिलने लगे। उतने ही ख़ूबसूरत, जितनी अन्यूत्का की आँखें थी।


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