वो अठन्नी
वो अठन्नी
"आँगन में छोटे चमकीले पत्थर इकट्ठे कर ही रहा था तभी एक आवाज़ आई।
सूरज- ये तो माँ की आवाज़ है। दौड़ कर अन्दर गया तो माँ ज़मीन पर पड़ी थी। चमकीले पत्थर की परवाह कहाँ थी, हाथ से छूट गए थे।
माँ क्या हुआ? कुछ बोल तो माँ, माँ कुछ नहीं बोल पा रही थी। मेरी साँस गले में अटक गयी थी, क्यों ना होती? माँ के अलावा कौन था मेरा, बाप २ साल पहले भगवान को प्यारा हो चुका था।
"अभी १० साल का ही तो हूँ"
"तू फ़िक्र मत कर माँ, मैं डॉक्टर चाचा को लेकर आता हूँ, गरीब के पास होता क्या है, बस रिश्तों की दौलत।"
अपने तो मुसीबत में साथ छोड़े देते हैं, इसलिए हम अनजान लोगो से भी रिश्ते बनाते गुरेज़ नहीं करते।
"डॉक्टर चाचा के साथ ऐसा ही रिश्ता था"
मैं सूतली से बंधी टूटी चप्पल से जितनी तेज दौड़ सकता था अस्पताल की और दौड़ा।
“डॉक्टर चाचा डॉक्टर चाचा”
“क्या हुआ सूरज”
“चाचा वो माँ”
“बैठ पानी पी, आराम कहाँ था, अब बता क्या हुआ”
“चाचा वो माँ बोल नहीं पा रही है, आप चलो"
घर पहुँच कर
“अरे तूने तो मुझको डरा ही दिया था, कुछ नहीं हुआ है। कमज़ोरी की वजह से चक्कर आ गया था। चल ये दवाई ले आना, खाली पेट मत देना कुछ खिला देना।
"खिला देना” मैंने उदासी भरी नज़रो से पूछा, याद नहीं कब चूल्हा जला था। माँ घरो में काम किया करती थी, जो जूठन बचती थी उसी को खा कर जी रहे थे।
“कहाँ खो गया में चलता हूँ”
मैंने घर में छुपे राशनों की तहलिया को खंगालना शुरू किया। शायद कुछ मिल जाए तभी कुछ गिरा। मेरी आँखों में चमक आ गयी “ये तो अठन्नी है।” जो शायद माँ ने सम्भाल कर रखी थी।
मैं बाज़ार की और दौड़ा, अठन्नी हाथों मैं ऐसे पकड़े हुई थी मानों ज़िन्दगी हो हाथों में। तभी मेरा पैर फिसला, शायद चप्पल अपना धैर्य खो चुकी थी और मैं अपना। हाथ से ज़िन्दगी छूट चुकी थी। मैं सड़क पर खो चुकी अपनी उम्मीद को तलाश रहा था, तभी मेरा हाथ किसी चीज़ से टकराया लगा शायद उम्मीद अभी बाकि थी, धूल में छुपा हुआ बटुआ पड़ा था, खोल के देखा सारे गम एक झटके में खो चुके थे। नोटों से ठूस-ठूस कर भरा था, पहले कभी इतने नोट कहाँ देखे थे।
"एक तरफ भूखा पेट था, उम्मीद थी, दूसरी तरफ स्वाभिमान, ईमानदारी, माँ की सीख थी।" "भूख से एक बार शरीर मरता पर बेईमानी से आत्मा।" मानो अंदर जंग चल रही थी और दोनों तरफ से मैं खुद से लड़ रहा था।"
अब ईमानदारी पर बेईमानी हावी हो रही थी।
तभी किसी ने अंदर तक झकझोर दिया,"जो चीज़ हमारी मेहनत से मिले उसी चीज़ पर हमारा अधिकार होता है" माँ की बोली बात याद आ गयी। हाथ अब कांप रहे थे। हिम्मत करके बटुआ खोला एक फोटो सामने दिखी, अरे! ये तो वो ही साहब है जो अभी रिक्शे से उतर कर सामने वाली लाला की दुकान में गए थे। तुरंत मैं लपका दुकान की और नज़ारा अंदर कुछ और था साहब अपनी जेब को मानो कई बार टटोल चुके थे, मैं अंदर दूकान में गया।
"साहब ये आपका है” मैंने कहा"
"तुमको कहाँ से मिला"
"सड़क पर गिरा हुआ था" मैंने कहा
"साहब एक बार देख लो पैसे पूरे है ना?"
"देखना क्या है अगर पैसे लेने होते तो तुम ये लाते थोड़ी" ऐसा कहते हुए साहब ने बीस रुपऐ निकाल कर मेरी और बढ़ा दिए।
"नहीं साहब, ये तो मेरा फ़र्ज़ था" मैंने कहा
"इतनी सी उम्र में ऐसे संस्कार, इतना स्वाभिमान, नाम क्या तुम्हारा?"
"सूरज" मैंने कहा
"सूरज मतलब रौशनी, खुद जल कर सबको रौशन करने वाला बिलकुल वैसे ही हो तुम"
अपने नाम का मतलब जान कर में भी चकित था- मैंने मन में सोचा
"कौन सी कक्षा में हो बेटा?" साहब ने पूछा
"2 साल पहले 5 वी कक्षा में था साहब"
"2 साल पहले? साहब ने बड़े आश्चर्य से पूछा
"2 साल से स्कूल नहीं गया। माँ जितना कमाती हैं उतने में मुश्किल से खाना ही खा पाते हैं वो भी कभी-कभी।" दया भरी नज़रो से वो साहब को तब तक देखता रहा जब तक साहब वहां से चला ना गया।
मायूसी के साथ घर पहुँचा, माँ खाट पर बैठी कुछ खा रही थीं। "माँ तू ठीक है" -मैंने माँ से पूछा
"हां मैं ठीक हूँ"
"खाना कहाँ से आया?"
माँ ने टूटे स्टूल पर बामुश्किल से बैठे एक इंसान की और इशारा किया।
"अरे साहब आप यहाँ कैसे? आपको घर कैसे मिला?"
"तू जानता है इनको?" माँ ने चकित भरी नज़रो से मुझसे पूछा
मैंने सर हिला दिया।
"सूरज अब तुम स्कूल भी जाओंगे और तुम्हारी माँ को घरो में काम भी नहीं करना पड़ेंगा। तुमको बहुत कुछ करना है, अपने नाम की तरह रौशन होना है। ऐसे विचारो को में ज़ाया नहीं जाने दूंगा" साहब ने सर पर हाथ रखते हुए कहा।
टीरिंग... टीरिंग... फ़ोन की घण्टी बजी, मैं बचपन की यात्रा से वापस लौट आया। आज में जिलाधिकारी हूँ, अपने नाम की भांति काम करने की कोशिश कर रहा हूँ। सोचता हूँ, अच्छा हुआ माँ बीमार पड़ी और उससे भी अच्छा हूँ वो अठन्नी खो गयी।
"सच में इंसान के भीतर अपार सामर्थ्य छुपा हुआ है, बस उस पल का इंतज़ार करना होता है जब वो अपार सामर्थ्य आपको पुकारे, उसकी आवाज़ को अनसुना मत कीजिये"