पड़ोसी
पड़ोसी
किसी की प्रशंसा करना तो दूर, सुनना भी मिस्टर अस्थाना की आदत में शुमार नहीं है। उनके सम्मुख कोई किसी की अच्छाई या बुराई की चर्चा कर दें, तो वह उन्हें स्वयं की बुराई जैसी लगती है। यह कॉम्प्लैक्स उनके मन में घर कर गया है।
इसका इज़हार करते हुऐ वे कहते हैं, ''अरे इसमें उसने कौन सा तीर मार दिया, यह काम तो मैं चुटकियों में कर देता।'' पड़ोसी को कैसा होना चाहिऐ? उसका क्या फर्ज़ होना चाहिऐ? इस विषय पर अस्थाना साहब अक्सर लैक्चर देते रहते हैं। जैसे पड़ोसी ही समय पर काम आते हैं। दुःख-सुख में सबसे पहले वे ही साझी होते हैं। आदि वाक्य वे सबके सामने दोहराते रहते हैं।
उनके घर के पिछले आँगन से जुड़े घर वाले पड़ोसियों के बच्चे छत पर खेल रहे थे। थोड़ी सी उठा-पटक में एक बच्चा छत से लुढ़क गया। शोर शराबा सुनकर मिसेज अस्थाना दोनों घरों के बीच की छोटी दीवार के नज़दीक गईं, तो पड़ोसिन ने रुँधे कंठ से और डबडबाई आँखों से चिंतित होते हुऐ कहा, ''ज़रा अस्थाना साहब को गाड़ी निकालने को कहे, हमारे बिट्टू को चोट लग गई है, उसके पापा शहर से बाहर गऐ हुऐ हैं।'' मिसेज अस्थाना ने बड़ी चतुरता से उत्तर दिया, ''हाँ, वैसे तो आज संडे है, पर ये भी कहीं बाहर जाने के लिऐ तैयार हो रहे थे, देखती हूँ, हैं या निकल गये।''
कहकर तेज़ी से कमरे में चली गईं, इस आशंका से कि कहीं वे आवाज़ सुनकर बाहर न निकल आऐं ओर वहीं से ज़ोर देकर पड़ोसन को सुनाते हुऐ कहा, ''ये भी चले गऐ हैं, घर में नहीं है।''
अस्थाना साहब आराम से पलंग पर लेटे हुऐ अख़बार पढ़ रहे थे। पत्नी से घटना की जानकारी मिलने के बाद बोले, ''तुमने ठीक किया, मैं तो आज आराम करने के मूड में हूँ। अस्पताल जाने का मतलब है, कम से कम दो-तीन घंटे ख़राब करना।''
पड़ोसन किसी तरह बच्चे को रिक्शा में लेकर डॉक्टर के पास पहुँची थी। शुक्र था कि बच्चे का सिर जमीन पर नहीं लगा। उसका वजन टाँग पर रहा। लिहाजा टाँग में फ्रेक्चर हो गया था। डॉक्टर ने प्लास्टर बाँध दिया था और बच्चे की माँ को तसल्ली देकर आवश्यक हिदायतें दे दी थीं। शाम के समय बच्चे को देखने के लिऐ आस-पास के लोगों का आना-जाना लग गया। मौका देखकर अस्थाना साहब भी पहुँच गऐ और बोले, ''ओह माई गॉड यह क्या हो गया, ये सब कैसे हुआ? मैं तो अभी घर लौटा हूँ। पता लगा तो भागा - भागा चला आया।