पिचकारी
पिचकारी
होली के शोरगुल में किसे सुनाई पड़ रही थी संजू की आवाज़ ! ढोल- नगाड़े बज रहे थे। संजू तो होली खेलने गया था अभी-अभी। अम्मा मालपुआ, चटपटी तरकारी पूड़ी बना कर… आराम से बैठ कर बाबू जी से बतिया रहीं थी। बाबू जी को भी आज जाने क्या सूझा ! वे बोले,क्यों जी होली नहीं खेलोगी…. आप भी न आज दस बरस बाद होली की सुध कहाँ से आ गई...! अब आ गई तो आ गई। और बाबू जी ने प्लेट में पड़ी अबीर मुट्ठी में भर कर अम्मा के गाल को लाल कर दिया। और अभी ब्लाउज में हाथ डाले ही थे कि बिन्नो आ धमकी! हतप्रभ सी खड़ी देखती रह गईं! अम्मा भी लजा गईं थीं और कुछ अचकचाईं - नाराज़ सी हो गईं थीं। आप भी न उन्होंने आँखों आँखों में कह दिया! बाबू जी भी लजा कर अख़बार में निगाह गड़ा लिऐ! बिन्नो, जा खेल.... बिन्नो गई तो खेलने लेकिन उसके मन में यह बात रह गई कि, आखिर अम्मा बाबू जी क्या कर रहे थे! बच्ची! वह भी आठ साल की! बिन्नो एक बात को छोड़ कर, दूसरी बात को महत्व दे सकती थी! उसकी उम्र को इस बात का हक़ था। आख़िर अम्मा - बाबू जी क्या करेंगे! मुझे तो देखना है। लेकिन देखूँ कैसे! वाह खिड़की रानी तुम किस काम आओगी! बाबू जी अम्मा के ब्लाउज को आगे से छू छू कर कह कर कह रहे थे! आज तुम्हें नहीं छोड़ेगे संजू की माँ, आज नहीं। उन्होंने अम्मा को अब आँगन में घसीट लिया। अपने धुन में मगन! बिन्नो ने अम्मा और बाबू जी के इस रूप को कभी नहीं देखा था...
संजू अपनी पिचकारी और रंग लेने आया था। अभी वह रंग भर भी न पाया था कि जगेसर, ज़बरदस्ती संजू को गोद में उठा कर भागा गया था। संजू दाढ़ी नोचता रहा...हाथ पैर मारता रहा.. लेकिन जगेसर ने एक न सुनी! दुलारता –पुचकारता वह संजू को ले भागा। बिन्नो यही तो बताने आई थी, माँ को ... लेकिन ! ! !नहीं अभी तो बाबू जी अम्मा को संजू की पिचकारी से रंग उड़ा रहे थे औ माँ कह रही थी बस करिऐ ! बस करिऐ। अब क्या होगा...क्या हो रहा होगा.. संजू के साथ वह क्या जाने बेचारी अभी...लेकिन बिन्नो! अरे तू कब आई फिर....!बिन्नो की आवाज़ लड़खड़ा गई.... वो वो वोह.. अरे अम्मा जगेसर चाचा संजू को गोद में लेकर गऐ भागते हुऐ...! संजू जाना नहीं चाह रहा था...लेकिन वे ज़बरदस्ती ले गऐ...और यह उसकी पिचकारी...देखो अम्मा अपने हाथ में देखो... अरे.. बाबू जी... नहीं आज वे अपने रंग में थे...जा बिन्नो खेल...बिन्नो फिर परेशान थी संजू के लिऐ...! संजू जगेसर चाचा के ज़बरदस्ती करने पर ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहा था....नहीं जाऊँगा, नहीं जाऊँगा दुखता है....! पर यह वाक्य बिन्नो के सिवाय किसी को सुनाई नहीं दिया....अम्मा ने देखा कि बिटिया के फ्रॉक पर रंग का नामोनिशान नहीं है। लेकिन बाबू जी को तो अब भी नहीं सुनाई पड़ रहा था कुछ न दिख रहा था...! बिन्नो अब रोते हुऐ ...अपने पूरे दम भर माँ को झकझोर रही थी अम्मा! अम्मा! हे प्रभु ! शायद यही तो कहाँ बिन्नो ने...बिन्नो अ..... अम्मा हक्का बक्का पूछ पड़ी... तुमने होली नहीं खेली..... मैंने होली भी नहीं खेली.....संजू पिचकारी भी नहीं भर पाया था अम्मा.....। मैं उसे जगेसर काका के हाथ से छुड़ा भी नहीं पाई... संजू बोल रहा था, दुखता है....! नहीं जाऊँगा... छोड़ो..... छोड़ो मुझे काका.. छोड़ दो....। माँ काका... संजू को लेकर दुखाने गऐ है! अम्मा अब अवाक हो गई ...! कुछ कुछ समझ गई..... उन्होंने बिन्नो को ज़ोरदार चपत लगाई....। अभी बता रही है मरी.... पहले क्यों नहीं बोला....! अम्मा ने घड़ी की ओर निगाह दौड़ाई ..तीन बज गऐ थे। बाबू जी सोने की तैयारी में थे... भाँग और..रंग. भरे पेट के नशे में चूर.. नशा चढ़ चुका था उन पर...हे भगवान जैसे वो आज बेटी नहीं माँ बन गई थी.. अपने ही पिता की.. बिन्नो भोकार छोड़ कर रो रही थी...बाबू जी उठो... संजू संजू... उसका असल दु:ख अब फूटा था.... अम्मा ने बाबू जी को झकझोर कर उठाया गुस्से से लाल आँखें । नींद से भरी। हट सोने दे चुड़ैल। क्यों जगा रही है। अरे चलो उठो संजू का कहीं अता-पता नहीं। घड़ी देखो! बाबू जी बिस्तर पर पड़े पड़े माँ को देख रहे थे, जैसे कुछ समझ न पाएं हो।
बिन्नो की पीली फ्रॉक पर रंग का एक भी बूँद न देख... बाबू जी भी हड़बड़ा कर उठ बैठे...! बिन्नो बिन्नो कहते हुऐ बाबू जी उसका हाथ पकड़े हुऐ थे। वह रोती जा रही थी। हिचकती.. खाँसती... उल्टियाँ करती... वह बाबू जी का हाथ थामें थी...
अम्मा आगे आगे दौड़ रहीं थीं। बिन्नो बाबू जी के साथ पीछे पीछे ।सब तरफ रंग और सन्नाटा पसरा था। संजू, संजू पुकारती माँ... कहाँ हो.. संजू बेटा आओ घर.. चलो खाना खा लो संजू... कहीं संजू का पता न चला... रोती बिसुरती अम्मा, बिन्नो बाबू जी.. कहाँ ढूढें संजू को.... अब.. माँ लपकी जगेसर काका के घर... जगेसर तान कर.. माचे पर सो रहा था.. संजू की माँ ने जगेसर की माचा(बड़ी खाट) उलट दी...। बता मेरा संजू कहाँ है... बता ....?मुझे क्या पता.... ! जैसे ही जगेसर ने यह कहाँ... संजू की माँ की आँखों में ख़ून उतर आया... उसने अपनी साड़ी में खोसी हुई कटार निकाली और जगोसर की गरदन देखते -देखते अलग कर दिया... जगेसर के घर रोने चीखने चिल्लाने से उकताऐ..विश्वेश्वर... यानि संजू के बाबू जी..जो ख़ून से नहाई, नंदिनी देवी को बाबू जी अभी थाम ही रहे थे... कि कुछ मिनट वे हाँफती- डाँफती हुई... विश्वेवर को देखती रहीं .... उनक हिम्मत न हुई कि हाथ से कटार छीन लें..और इनकी भी लीला समाप्त हो गई......और नंदिनी बड़बड़ाने लगी.. देखो भला.. संजू बाप के होते हुऐ.. अनाथ की तरह होली खेलने निकला... और हम.. (आआक्थू..... !!!) जगेसर काका के घर के लोग चीखते चिल्लाते रहे...आस पड़ोस की भीड़ जुट गई... खुसर फुसर होती रही.. लेकिन नंदिनी से किसी ने आँख न मिलाई... आँखों से अंगारे फेंकती नंदिनी आगे बढ़ती जा रही थी... बिन्नो को कुछ सूझ नहीं रहा था... वह कभी माँ का हाथ पकड़ रही थी ...कभी आगे आगे भाग रही थी..... बाबू जी ... संजू ..... उसकी कराह बढ़ती जा रही थी... संजू...! गाँव घर के लोग नंदिनी से डरे हुऐ थे... सँभलते हुऐ ही गाँव के ही सुदामा सिंह... ने कहा चलो... नंदिनी देवी...ट्यूबेल पर चल कर देखते हैं... अम्मा भागी जा रही थी पीछे –पीछे बिन्नो और पूरा निमोहपुरा गाँव भाग रहा था.... ट्यूबेल पर पहुँच कर पूरे गाँव ने देखा कि संजू ख़ून से सना पड़ा है अचेत ......उसकी पैंट फट गई है.... मुँह दबाने से गाल पर उपट आऐ उँगलियों के निशान साफ़ दिख रहे हैं....
नंदिनी...बिन्नो संजू से लिपट लिपट कर रो रही है। संजू को गोद में उठा कर सुदामा सिंह घर ले आऐं हैं। अम्मा क्रिया-कर्म का सारा इंतेज़ाम सुदामा सिंह करते है... नंदिनी तो कुछ सुनती नहीं.... बस संजू की पिचकारी लिऐ बैठी है... न आँगन से हटती है... न कुछ बोलती है। बिन्नो भाई का अंतिम संस्कार कर रही है.... चुपचाप… सुदामा काका जो कह रहे हैं, कर रही हैं....