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महालीला

महालीला

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अर्जुन: प्रिय राम, आपसे एक अनुरोध है।

राम: बोलो अर्जुन क्या चाहते हो ?

अर्जुन: युद्ध के विषय में सोच कर आज मैं कुछ विचलित हो रहा हूँ। आप कृपया हमारा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलिये।

राम: ठीक है, हम अभी ले चलते हैं।

[रथ मंच के बीच आने के पश्चात्]

अर्जुन: प्रभु, मैं यह कैसी परिस्थिति में आ गया हूँ आज। मेरे गुरु कृपाचार्य, भीष्म पितामह, मेरे चचेरे भाई और जाने कितने परिजन जिनके साथ मैं बड़ा हुआ, सभी मेरे सामने खड़े हैं। मैं इनसे कैसे युद्ध कर सकता हूँ ? राम: पार्थ, इस युद्ध के आखिर समय में तुम यह क्या बच्चों वाली बात कर रहे हो ? तुम्हें तो मालूम है इस गम्भीर स्थिति को बिना युद्ध के सुलझाने का हमने कितना प्रयत्न किया है।

अर्जुन: अगर हम और कुछ समय लगाए तो शायद कोई समाधान मिल जाए।

राम: इस समय हम क्या समाधान ढूँढेंगे। छोड़ो इन भावनाओं को और मर्दों की तरह धनुष-बाण उठाओ और रणभूमि में अपना कर्तव्य निभाओ।

अर्जुन: प्रभु यह हम मर्दों का अहंकार ही तो हमारी सब समस्याओं की जड़ है।

रामः अर्जुन तुम एक मर्द ही नहीं एक क्षत्रिय भी हो। तुम्हारे बहुत कर्त्तव्य हैं। तुम्हें राष्ट्र के हित के लिए समाज से सब बुराइयाँ दूर करनी हैं।

अर्जुन: पर समाज की बुराइयाँ दूर करने के लिए मैं अपनों को नहीं मार सकता प्रभु।

राम: पार्थ, मनुष्य शरीर का तो पुनर्जीवन होता है पर उसकी आत्मा कभी मर नहीं सकती, कोई शस्त्र आत्मा को घायल नहीं कर सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती और जल उसे भिगो नहीं कर सकता। तुम इस बात को एक बार समझ जाओगे तो तुम्हें कभी शोक नहीं होगा।

अर्जुन: यह शरीर का पुनर्जीवन तो प्रकृति का काम है प्रभु, मेरे जैसे योद्धा को इसमें योगदान देने का कोई अधिकार नहीं है।

राम: यह तुम्हारा अज्ञान बोल रहा है अर्जुन, तुम अपना हर काम भक्ति के साथ मुझमे समर्पित कर दो और युद्ध करो, विजयी होगे तो राज करोगे, मृत्यु होगी तो स्वर्ग मिलेगा।

अर्जुन: प्रभु आप तो सर्वव्यापी हैं। आपको तो मालूम होगा कि भगवान कृष्ण ने जरासंध के साथ युद्ध में रण-भूमि को छोड़ दिया था और अपनी यादव सेना के साथ वृन्दावन से द्वारका चले आए थे।

राम: हाँ, हाँ इसीलिए उन्हें रणछोड़ कहा जाता है।

अर्जुन: भगवान् कृष्ण भी क्षत्रिय हैं और मैं भी क्षत्रिय हूँ। अगर वो रण छोड़ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं छोड़ सकता ?

रामः हाँ, बात तो तुम उचित कहते हो पार्थ…पर अपने भाइयों को यह बात समझाओगे कैसे ?

अर्जुन: इसीलिये तो मुझे आपकी आवश्यकता है। … कृपया आप ही उन्हें समझाइये।

राम: चलो हम प्रयास करते हैं। जाओ युधिष्ठिर को बुला के लाओ।

अर्जुन: अभी बुलाता हूँ, प्रभु।

युधिष्ठिर: प्रणाम प्रभु। कैसे याद किया मुझे युद्ध की इस अंतिम बेला में ?

राम: आओ युधिष्ठिर, कुछ समय से मैं और अर्जुन युद्ध के बारे में चर्चा कर रहे थे। बहुत विचार के बाद अर्जुन ने निर्णय किया है कि वह युद्ध नहीं करना चाहता है और मैं इसके निर्णय से सहमत हूँ।

युधिष्ठिर: यह कैसे हो सकता है प्रभु, अर्जुन के बिना तो हम युद्ध में निश्चित ही पराजित हो जायेंगे। हम में से और कौन भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे योद्धाओं का सामना कर सकता है ? प्रभु, इस नालायक को समझाइए।

राम: मैंने बहुत समझाया। इसमे और समय व्यर्थ न करके अब हमें सोचना है कि दुर्योधन से कैसे निपटेंगे।

युधिष्ठिर: दुर्योधन से निपटना क्या है ? मैं जा कर उससे हार मान लेता हूँ और हस्तिनापुर का अगला सम्राट बनने की बधाई दे देता हूँ और क्या।

राम: इतनी शीघ्र पराजय न मानो वत्स।

युधिष्ठिर: मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा इस समस्या से हम कैसे निकलेंगे। आप ही बताइये प्रभु मैं क्या करूँ ?

राम: जाओ दुर्योधन को बुला के लाओ। मैं उससे बात करूँगा।

युधिष्ठिर: जैसी आपकी इच्छा।

दुर्योधन: प्रणाम प्रभु, आपने मुझे बुलाया ?

राम: हाँ दुर्योधन, यहाँ आओ। (राम दुर्योधन के कंधे पर हाथ रख कर श्रोताओं की तरफ जाते हैं) हमारे दोनों ओर तुम इन सैनिकों को देख रहे हो ?

दुर्योधन: हाँ देख रहा हूँ। सहस्त्रों सैनिक अपना जीवन देने को तैयार हैं।

राम: तुम्हें मालूम है इन सब सैनिकों के घर में माता-पिता हैं, पत्नियाँ हैं, बच्चे हैं। अगर युद्ध हुआ तो कितने ही मारे जायेंगे और कितने घर नष्ट होंगे, तुम्हें यह स्वीकार होगा ?

दुर्योधन: मैं यहाँ युद्ध करने आया हूँ, श्री राम। आपका व्याख्यान सुनने नहीं आया, बताइए पांडव गण युद्ध के लिए तैयार हैं ?

राम: देखो दुर्योधन, अर्जुन इन निर्दोष सैनिकों को मरते हुए नहीं देख सकता। वह युद्ध नहीं करना चाहता है।

[तभी भीष्म मंच पर आते हैं… ]

भीष्म: प्रणाम प्रभु ! सेनाओं के बीच यहाँ क्या चर्चा हो रही है ?

राम, युधिष्ठिर, अर्जुन: प्रणाम भीष्म पितामह !

दुर्योधन: होना क्या है, पितामह। अर्जुन युद्ध करने से मना कर रहा है। उसके बिना पांडव हमसे अवश्य हार जायेंगे। इस लिए राम चंद्रजी चाहते हैं कि हम भी युद्ध न करें। मैं कहे देता हूँ, पांडव युद्ध करें या न करें मैं आज यहाँ युद्ध करने आया हूँ। और ये नहीं भाग लेंगे तो विजय हमारी मानी जाएगी।

भीष्म: कुछ क्षण ठहरो दुर्योधन, मैं अर्जुन से सुनना चाहता हूँ कि उसके मन में क्या है।

अर्जुन: पितामह, आज सोच कर तो यही आया था कि युद्ध करूंगा। पर रणभूमि में जैसे ही मैंने आपको, कृपाचार्य और अपने सबको सामने देखा तो मेरा मन भर आया और मैंने प्रभु से कहा कि मुझसे आज युद्ध नहीं होगा।

भीष्म: वाह अर्जुन वाह। तूने आज यह कह कर मेरा मन मोह लिया। आज तक तो मैं तुझे अद्वितीय योद्धा मानता था, पर आज तूने दिखा दिया कि तेरा हृदय भी बहुत विशाल है। आज तूने हमारे भरत वंश का नाम रोशन कर दिया।

दुर्योधन: भीष्म पितामह। आप हमारे सेनाध्यक्ष हैं, शत्रु की इतनी प्रशंसा आपको शोभा नहीं देती।

भीष्म: अरे कल के बालक, तू क्या सिखायगा मुझे क्या शोभा देता है ? तू ही नहीं जब तेरा पिता भी महलों में नंगा घूमता था, मैंने उसकी नाक भी साफ़ की है। बहुत हो गयीं यह युद्ध की बातें। आज मैं तुम्हारा कुलपति होने के नाते निर्णय करूँगा कि बिना युद्ध के हस्तिनापुर का अगला सम्राट कौन बनेगा।

दुर्योधन: आप जो भी कहें, आपकी बात मानेगा कौन ?

भीष्म: यह तो समय बताएगा, बालक। और जो मेरी बात नहीं मानेगा उसे मुझसे लड़ना होगा। तेरे जैसे कई मैं अकेला संभाल सकता हूँ।

दुर्योधन: मैं तो नहीं, पर मैं जानता हूँ कौन आपसे टक्कर ले सकता है। (जोर से) कर्ण जरा यहाँ आना।

[कर्ण के आने के बाद …]

कर्ण: बोलो दुर्योधन, क्या चाहते हो ?

दुर्योधन: कर्ण - हमारे पितामह अपनी सीमा से कुछ ज्यादा आगे चले गए हैं। इन्हें याद नहीं रहा कि इन्होंने किसका नमक खाया है इतने वर्ष। जाओ अपना धनुष-बाण लाओ और वार करो इन पर।

कर्ण: दुर्योधन तुम मेरे प्रिय मित्र हो। मैं तुम्हारे लिए प्राण भी दे सकता हूँ। पर जैसे तुम मेरे प्रिय हो, वैसे ही तुम्हारे पितामह भी मेरे प्रिय हैं। मुझे आज तक नहीं मालूम मेरे असली माता पिता कौन हैं। मैंने पितामह को ही अपना पूर्वज मान कर उन्हें पूजा है। मैं पितामह का बहुत आदर करता हूँ। मैं इन पर वार नहीं कर सकता। ऐसा तो केवल पांडव ही सोच सकते हैं। तुम कहो तो अर्जुन को मैं अभी नष्ट कर दूँ।

दुर्योधन: काश अर्जुन युद्ध के लिए तैयार होता। वह तो कायरों की तरह अपने शस्त्र छोड़ कर बैठ गया है। हम इतना भी नहीं गिरे कि निहत्थे पर वार करें।

भीष्म: दुर्योधन सीख कुछ अर्जुन से, इतना योज्ञ योद्धा होते हुए भी उसमे इतनी करुणा है दूसरों के लिए।

दुर्योधन: इतनी करुणा है तो रणभूमि में क्या करने आया था ? घर पर चूड़ियाँ पहन कर बैठता।

भीष्मः रणभूमि हमेशा बलवानों और कुशल योद्धाओं को विजयी बनाती है। चाहे वह राज्य करने के योग्य हो या न। आज मैं तुम सब का कुलपति होने के नाते निर्णय करूँगा कि बिना युद्ध के हस्तिनापुर का अगला सम्राट कौन होगा। यहाँ मेरी राज्यसभा लगाओ। आज मैं रणभूमि को न्याय भूमि बनाऊँगा।

अर्जुन: मैं आपके लिए सिंहासन लाता हूँ, पितामह।

[अर्जुन मंच पर एक कुर्सी लाता है, भीष्म उस पर बैठते हैं, एक तरफ पांडव और दूसरी तरफ कौरव खड़े हो जाते हैं …]

भीष्म: आप सब अपने विचार दीजिये कि कौन हस्तिनापुर का अगला सम्राट होने योग्य है। अंतिम निर्णय हम करेंगे।

कर्ण: पितामह मेरे विचार से अगला सम्राट कोई भी हो, पर युधिष्ठिर नहीं होना चाहिए। जिसने अपना राज्य जुए में लुटा दिया हो वह राज्य करने योग्य नहीं हो सकता।

भीष्म: और विचार ?

अर्जुन: दुर्योधन भी राज्य करने के योग्य नहीं है पितामह। इसने अपने ही चचेरे भाई हम पाँच पांडवों को मारने के लिए कितने षड्यंत्र रचाए। जो अपनों का भला नहीं सोच सकता, वह प्रजा का भला कैसे सोच सकता है। इसने अपने मामा शकुनि के साथ मिल कर हमें छल कपट से हराया था।

कर्ण: पितामह यदि पहली बार पांडवों को लगा की शकुनि छल करता है, तो यह दूसरी बार जुआ खेलने को क्यों तैयार हुए थे। जो एक बार नहीं दो बार अपना राज्य जुए में गवां दे वह निश्चित ही सम्राट होने के योग्य नहीं है।

भीष्म: जुए की चर्चा बहुत हो गयी। अब यह भी बताओ कि सम्राट होने के योग्य है कौन ?

अर्जुन: मेरे भाई युधिष्ठिर धर्मराज हैं क्योंकि इन्होंने धर्म की रक्षा के लिए बहुत बलिदान दिया है। जब हम वनवास में थे, हमने इनसे बहुत कहा कि तभी हम हस्तिनापुर पर आक्रमण कर दें, पर धर्मराज ने हमारी एक न सुनी क्योंकि ऐसा करना धर्म के विरूद्ध होता। जो धर्म की रक्षा कर सकता है वो प्रजा की भी रक्षा कर सकता है।

भीष्म: बहुत अच्छा बोले बेटा …। और कोई विचार ?

कर्ण: पितामह, एक सम्राट का कर्तव्य अपने राज्य की उन्नति और प्रजा का कल्याण है। इसमें धर्म का कोई स्थान नहीं होता। धर्म का पालन करने के लिए युधिष्ठिर को ऋषियों के साथ किसी आश्रम में रहना चाहिए। राज्य की उन्नति के लिए शत्रु की ओर ईर्ष्या और अपनी उन्नति के लिए असंतोष की आवश्यकता होती है। मेरे मित्र दुर्योधन में यह दोनों गुण हैं। हस्तिनापुर का अगला सम्राट दुर्योधन ही होना चाहिए।

भीष्म: तुम दोनों के कथन विचारणीय हैं। इससे पहले की हम अपना निर्णय दें, किसी और को कुछ कहना है ?

राम: भीष्म, हस्तिनापुर का अगला सम्राट कौन हो ये आपके कुल का निजी मामला है। पर मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।

भीष्म: बोलिए प्रभु, क्या पूछना चाहते हैं ?

राम: बताइये आपने आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा क्यों ली थी ?

भीष्म: इसलिए ली थी कि मेरे पिता जिस कन्या से प्रेम करते थे उससे विवाह कर सकें।

राम: आप भी तो विवाह कर के सुखी जीवन बिता सकते थे, पर आपने ऐसा क्यों नहीं किया।

भीष्म: क्योंकि मैं अपने पिता शांतनु का ज्येष्ठ पुत्र था, और मैं विवाह करता तो मेरा पुत्र अगला सम्राट बनता और यह कन्या के पिता को स्वीकार नहीं था।

राम: आपने अपने जीवन के सारे सुख त्याग दिए उस परंपरा के लिए जिसमे सम्राट का बड़ा बेटा अगला सम्राट बनता है।

भीष्म: मुझे समझ नहीं आ रहा प्रभु कि आप कहना क्या चाहते हैं।

राम: मैं यह कहना चाहता हूँ कि जिस परंपरा के लिए आपने अपना जीवन बिता दिया आप उस परंपरा को आज क्यों भूल रहे हैं ?

भीष्म: आप उचित कह रहे हैं प्रभु - क्योंकि पांडु और ध्रतराष्ट्र दोनों ने राज्य किया है, उनकी अगली पीढ़ी के ज्येष्ठ पुत्र को हीअगला सम्राट बनना चाहिए और उनका सबसे बड़ा बेटा युधिष्ठिर है।

[दुर्योधन जोर से अपना पैर जमीन पर मारता है]

राम: अपना निर्णय करने से पहले इनकी माँ से पूछ लें कौन सबसे बड़ा है, केवल एक माँ जानती है उसके पुत्रों में कौन सबसे बड़ा है।

भीष्म: अब इनकी माँ कुंती यहाँ रणभूमि में कैसे आएगी ?

अर्जुन: जिस रणभूमि में रामचंद्र जी हो वहाँ कुछ भी हो सकता है।

भीष्म: प्रभु ?

राम: हाँ हाँ, कुंती प्रस्तुत हो सकती हैं, आइये माता कुंती।

कुंती: ऐसा क्या हो गया कि मुझे रणभूमि में बुलाना पड़ा।

भीष्म: इसका उत्तर हम देते हैं पुत्रवधू कुंती, तुमसे हम एक प्रश्न पूछना चाहते हैं।

कुंती: ऐसा क्या प्रश्न है जो आप मुझसे पूछना चाहते हैं पितामह।

भीष्म: इस प्रश्न का उत्तर केवल तुम दे सकती हो पुत्रवधू, बताओ तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र कौन है ?

कुंती: मुझे यह कैसी दुविधा में डाल रहें हैं पितामह ? और वह भी भरी सभा के बीच।

भीष्म: यह प्रश्न हस्तिनापुर के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है पुत्रवधू, तुम्हें बताना ही होगा।

कुंती: ठीक है बताती हूँ, एक बार जब ऋषि दुर्वासा मेरे पिता राजा कुन्तिभोज के महल में रह रहे थे मैंने उनकी बहुत सेवा की थी। उन्होंने मुझे वरदान दिया कि मैं किसी भी देवता का ध्यान करके एक संतान प्राप्त कर सकती हूँ। बचपन की जिज्ञासा थी, एक दिन जब मैंने उस वरदान को प्रमाणित करने के लिए सूर्य देवता का स्मरण किया तो सूर्य देवता समक्ष प्रकट हुए और मेरी गोद में एक संतान दे गये। क्योंकि तब तक मेरा विवाह नहीं हुआ था मैंने लज्जावश अपनी दासी को उस बालक को टोकरी में रख कर नदी में बहाने को कह दिया।

भीष्म: तुम्हें मालूम है वह बालक अब कहाँ है ?

कुंती: जी हाँ, पितामह।

भीष्म: तो बताओ कौन है तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र ?

कुंती: मैं कैसे बताऊँ इतना बड़ा रहस्य कुछ समझ नहीं आ रहा। राम बताओ कुंती, निसंकोच बताओ।

कुंती: मेरा ज्येष्ठ पुत्र कर्ण है।

कर्ण: माँ क्या यह सत्य है ?

कुंती: हाँ बेटा।

[कर्ण कुंती के चरण स्पर्श कर उनसे गले लग जाता है। ]

भीष्म: मैं घोषणा करता हूँ कि हस्तिनापुर का अगला सम्राट कर्ण होगा।

[सभी अभिनेता स्थिर खड़े हो जाते हैं। राम मंच के आगे आते हैं और श्रोताओं से कहते हैं ]

राम: जैसा आपने देखा हमारी हर समस्या का समाधान युद्ध के बिना अहिंसा से भी ढूँढा जा सकता है।


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