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पत्थर दिल

पत्थर दिल

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शिरीष,

    कैसे हो! फोटो से तो यही लगता है, आगे के सारे बाल झड़ गये हैं। शायद चांद भी निकल आयी हो। चश्मे का नम्बर तो पता नहीं बदला या नहीं, पर इस फोटो में तुमने जो चश्मा लगा रखा है, तुम पर जंच रहा है। वह पहले वाला लापरवाही का-सा अंदाज शायद अभी भी छोड़ा नहीं तुमने! बधाई लो।

    तुम हैरान हो रहे होगे, कौन पाठिका है जो इतनी बेतकल्लुफी से लिख रही है। जानती है क्या मुझे! हां शिरीष, जानती हूं तुम्हें, तभी तो लिख रही हूं। तुम भी शायद मुझे भूले नहीं होगे। आज ही एक पत्रिका में तुम्हारी ताज़ा कहानी देखी और साथ में सचित्र परिचय तो लिखने का मन हो आया। नहीं, इतना लम्बा पत्र तुम्हारी कहानी की तारीफ में नहीं लिख रही हूं। मेरे जैसी नासमझ पाठिका तुम्हारी कहानी का कहां मूल्यांकन कर सकती है भला। हां, आज मैं खुद तुम्हें एक कहानी लिख रही हूं। पर वचन दो इसे कहीं छपवाओगे नहीं। बस, सिर्फ पढ़ना और इसे अपने तक ही सीमित रखना।

तुम्हें मुझसे शिकायत रहती थी ना, मैं बहुत कम बालती हूं। एक-एक, दो-दो शब्द के वाक्य, तो लो, आज ढेर सारे शब्दों में अपनी बात कर रही हूं। पिछली सारी कमी पूरी हो जायेगी।

    मैं श्रीपर्णा हूं। याद आया? नहीं! श्रीपर्णा मेहरा, रोल नं. तरेपन, बी.ए. सेकिण्ड ईयर। तुम्हारा रोल नम्बर तो बावन था। मैं ये सब यूं लिख रही हूँ, जैसे सचमुच रोल नम्बर के जरिये ही हम एक दूसरे को पहचानते हों। दरअसल मेरा रोल नम्बर आते ही तुम मेरा ''यस सर,'' सुनने के लिए एकदम तैयार होकर बैठ जाते थे। इसलिए याद रह गया। आज इतने बरसों बाद अचानक मेरा खत पाकर हैरानी हो रही है ना! हैरानी तो तुम्हें उस दिन भी बहुत हुई होगी, जब मैं अचानक गायब हो गई थी। बारह-मार्च थी उस दिन, सन् चौहत्तर। डॉ.मिश्रा का पीरियड चल रहा था। इतिहास का। तभी चपरासी मुझे बुलाने आया था, ऑफिस में मेरे लिए एक ज़रूरी फोन था। फोन एटैंड करते ही मैं तुरन्त क्लास में आई थी। सर से अनुमति ली थी और फिर लौटकर कॉलेज में कभी नहीं आई थी। मुझे बाद में पता चला था, तुमने बहुत कोशिश की थी, पता लगाने कि मैं अचानक कहां गायब हो गयी, पर तुम्हें कोई कुछ नहीं बता पाया था। बताता भी क्या। बताने लायक कुछ होता तो सबसे पहले मैं ही तुम्हें बताती। मेरे घर जाने की हिम्मत तो तुम नहीं ही जुटा पाये होगे। हो सकता है, तुमने मेरा बहुत-बहुत इंतज़ार भी किया हो, तुम्हारे कुछ नोट्स भी मेरे पास थे, शायद उन्हीं के लिए याद किया हो और बाद में उम्मीद छोड़ दी हो। यह भी हो सकता है, तुम्हें सारी बात का पता चल  गया हो और तुमने मेरे लिए बहुत अफ़सोस जाहिर किया हो। खैर, ये तो मेरे ख्याल ही हैं। सच क्या था, वही सब आज तुम्हें लिखने जा रही हूं।

    घर पहुंचते ही पता चला था, जचगी में दीदी की डैथ हो गयी है, जयपुर में। मेरे तो हाथ-पांव ही सुन्न हो गये थे सुनकर। मां वहीं गयी हुई थी उसके पास। पापा, वीनू भइया और मैं लगातार दस घंटे ड्राइव करके पहुंचे थे वहां। बस, हमारा ही इंतज़ार किया जा रहा था। दीदी सबको बिलखता हुआ छोड़ गयी थी। अपने नन्हें से बेटे का मुंह भी नहीं देख पायी थी बेचारी। उसे दूध पिलाने की तो नौबत ही नहीं आ पायी।

    सारे घर में कोहराम मचा हुआ था। क्या होगा, इन छोटे-छोटे बच्चों का! कैसा अभागा जन्मा कि मां का दूध तक नसीब नहीं हुआ! कैसे संभालेंगे रंजीत इन्हें! नौ साल का शेखर तो फिर भी थोड़ा समझदार था। तीन साल की प्रियंका को समझ में नहीं आ रहा था, यह सब रोना-धोना क्यों मचा हुआ है। उधर जीजाजी सदमे की वजह से एकदम चुप हो गये थे। बस, पथराई आंखों से सबको देख रहे थे। जब रोते हुए शेखर ने चिता में आग दी तो वे अचानक फूट-फूट कर रो पड़े थे और शेखर को सीने में भींच लिया था।

    मुझे वहां जाते ही बच्चों की देखभाल में व्यस्त हो जाना पड़ा था। मैं खुद रोती और नन्हां शंतनु मेरी गोद में रोता रहता। मेरे सीने में मुंह घुसेड़ता, पर कहां से उसे कुछ मिलता। मेरा प्यार, दुलार, स्नेह उसके लिए काफी न होते। उसे मां का-सा स्पर्श तो दे सकती थी, दूध कहां से देती। बोतल का दूध उसे पच नहीं रहा था। मेरा कलेजा मुंह में आने को होता। मैं मां के गले लगकर रोती और वह मेरे गले लग कर। समझ में नहीं आता था, आगे क्या होगा!

    दसेक दिन इसी तरह से बीत गये थे। उदास, परेशान और फीके-फीके। तेरहवीं की रस्म तक सभी लोग लौट चुके थे। मम्मी, डैडी, वीनू, मैं, रंजीत और उनके घर के लोग ही बचे थे। सबकी आंखों में एक बहुत बड़ा प्रश्न तैर रहा था। हर कोई सामने वाले की आंखों में इस प्रश्न को आसानी से पढ़ रकता था, पर जवाब किसी के पास नहीं था। रंजीत अभी भी पूरी तरह सहज नहीं हो पाये थे। एकदम गुमसुम बैठे रहते।

एक रात मम्मी, डैडी, रंजीत, उनके माता-पिता तथा दो-एक रिश्तेदार सिर जोड़कर एक बन्द कमरे में बैठे थे और जब वे दो-ढाई घंटे बाद बार निकले थे तो इस विराट प्रश्न का उत्तर खोज लिया गया था। मम्मी बाहर आते ही मेरे गले से लिपट कर रोने लगी थी, और उसके मुंह से मेरी बच्ची, मेरी बच्ची के सिवाय कोई शब्द नहीं निकल रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी, अचानक सब मुझे बेचारगी से क्यों देख रहे हैं! एकदम ठण्डी आवाज में मुझे बताया गया था, ''हमारे पास हर तरह से इससे अधिक स्वीकार्य कोई विकल्प नहीं है कि रंजीत से तुम्हारी शादी कर दी जाये। उसके टूट गये परिवार को सहारा देने के लिए यह बहुत ज़रूरी है।'' मैं एक शब्द भी नहीं कह पायी थी, बच्चों से लिपट कर देर तक रोती रही थी।

    आज सोचती हूं, किसके लिए और किस विकल्प की तलाश कर रहे थे सब! मेरे बारे में फैसला कर रहे थे और मुझसे पूछा तक नहीं गया था। सिर्फ फैसला सुना दिया गया था। रंजीत का परिवार टूटने से बच जाये, इसलिए किसी न किसी को बलिदान करना ही था। मैं एकदम सामने पड़ गई थी सबके। किसी को भी विकल्प की तलाश की ज़रूरत ही नहीं रही थी। काश, मेरे बारे में इतना बड़ा फैसला करने से पहले मेरी राय तो ली जाती! अब तो यही सोच कर तसल्ली कर जाती हूं कि अगर मुझसे पूछा भी जाता, तो मैं भी तो यही करती न। माया, ममता और सहानुभूति की भेंट वे न भी चढ़ाते, शायद, मैं खुद चढ़ जाती बिना एक शब्द भी बोले।

    मेरी शादी विशुद्ध रूप से सहानुभूति, जज़्बात, जल्दीबाजी और तथाकथित इन्सानी मूल्यों के नाम पर एक भावुकता भरा कदम थी। दीदी और बच्चों के प्रति मेरे पेम को यह मान लिया गया था कि मैं बड़ा से बड़ा त्याग करने में भी हिचकूंगी नहीं। उनके सामने मैं थी ही। इतने दिनों से बच्चों के पीछे खुद को भी भूली हुई थी, बस इसे स्थायी व्यवस्था की भूमिका मान लिया गया। इस शादी को मज़बूरी, ज़रूरत या सुविधा का नाम भी दिया जा सकता है। कई बार ख्याल आता है, रंजीत नये सिरे से, किसी नयी लड़की से विवाह करते तो क्या आज उन्हें उन आवरणों की ज़रूरत पड़ती, जिसमें वे खुद को वर्षों से कैद किए हुए हैं। न ही किसी से त्याग की उम्मीद की जाती और न ही बेहतर या कमतर विकल्प की बात उठती! लेकिन मैं ये भी सोचती हूं कि हगर मेरी शादी यहां न हुई होती तो मैं उतनी सुखी या दुखी होती, जितनी आज हूं। क्या मेरी पसंद के आदमी से शादी होने पर मुझे उससे वे सब शिकायतें न होतीं जो आज रंजीत से हैं। लेकिन यह सब तो होता, तब की बात थी।

    और इस तरह से हमारी शादी हो गई। महज औपचारिक शादी। दीदी की मृत्यु के ठीक सत्रह दिन बाद। उस समय मैं इक्कीस की भी नहीं हुई थी। रंजीत छत्तीस पूरे कर चुके थे। दीदी से उनकी शादी के वक्त मैं सिर्फ ग्यारह साल की थी, जिसे रंजीत जीजाजी टॉफी और आइसक्रीम से बहलाया करते थे। अब मैं उनकी पत्नी थी। उनके तीन बच्चों की मां।

    हमारी शादी में शादी जैसा कुछ था भी नहीं। न हंसी मज़ाक, न सहेलियां, न डोली, न बारात और न ही विधिवत कन्यादान। बेहद बोझिल वातावरण में बस पंडितजी की उपस्थिति में दो-चार मंत्र पढ़े गए थे और मैं शादी का जोड़ा पहनाकर ब्याह दी गई थी। तब मुझे समझ नहीं आ रहा था, मेरी लगातार रुलाई किसलिए थी। समझ तो आज तक नहीं पायी हूं कि मैं तब क्यों रो रही थी?

    तुम्हें हंसी आयेगी, हमारी पहली रात भी हमारे बीच नन्हां, सत्रह दिन का दूध पीता शंतनु सो रहा था और मुझे दो-तीन बार उसके पोतड़े बदलने के लिए उठना पड़ा था। अब उसकी मां जो थी मैं।

 

दीदी की स्मृतियां दिमाग पर बुरी तरह हावी थीं। उस सदमे से कोई भी उबर नहीं पाया था। गहरे पशोपेश में थी। बिल्कुल समझ में नहीं आता था, क्या हो गया ज़िंदगी का। बच्चों और रंजीत की तरफ देखती तो उनके लिए प्यार और तरस के भाव उपजते, खुद का सोचती तो रोना आता। क्या कुछ तो चाहा था, पढ़ना, कैरियर बनाना, खूब ऊपर उठना। जिस व्यक्ति को कल तक जीजाजी का आदर भरा सम्बोधन देती थी, कब सोचा था, वे ही अचानक एक दिन, बिना किसी भूमिका के मेरे पति हो जायेंगे। उनके जीवन में जहां-जहां मेरी दीदी थीं, वे सारी जगहें मुझे भरनी होंगी। शुरू-शुरू में समझ नहीं पाती थी, मुझे खुद अपनी ज़िन्दगी जीनी है, या दीदी बनकर, दीदी के बच्चों की मम्मी बनकर, दीदी के पति की पत्नी बनकर, दीदी द्वारा खाली की गयी जगह भरनी है! सब कुछ पूर्ववत् चलता रहे, इसकी कोशिश करनी है या हर जगह से दीदी का नाम धो-पोंछ कर खुद अपनी जगह बनानी है। तुम्हें मैं कैसे बताऊं शिरीष, कितना-कितना रोती थी मैं उन दिनों। एक भूमिका निभाना शुरू करती तो दूसरी भूल जाती। दूसरी में मन रमाने की कोशिश करती तो तीसरे में कन्फ्यूज हो जाती। खुद अपने आपको कहां रखना है, तय नहीं कर पाती।

    रंजीत के हाथ मेरी तरफ न बढ़ते। वह संकोच के मारे बेडरूम में न आते। हमने कई रातें यूं ही अलग-अलग काटीं। वह अगर मुझे छूते भी तो कई बार चौंक कर अपना हाथ खींच लेते। मैं भी संकोच में रहती। अरसे तक हम पति-पत्नी के सम्बन्ध को सहजता से नहीं जी पाये थे। बार-बार लगता, दीदी कहीं आसपास ही हैं और उन्हें सब पता चल गया है। अभी परदा हटाकर अचानक कमरे में आ जायेंगी और मुझे जीजाजी के साथ इस तरह रंगरेलियां मनाते देख, मेरी चुटिया पकड़, अपने घर से बाहर निकाल देंगी। मैं खुद को लाख समझाती, अब कुछ बदल चुका है। रिश्तों के अर्थ हमारे लिए बदल गये हैं, फिर भी मन आशंकित रहता। इस सबके बावजूद खुद सहज रहते हुए उन्हें भी सहज रखने की कोशिश करती, पर वह न जाने मौन के किस अंधे कुएं में उतर गए थे, आज तक, सोलह साल बीत जाने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाये हैं।

    जब पहले दीदी के घर जाती थी तो बच्चे लाड़ लड़ाते हुए मेरे पास सोने की ज़िद करते। मुझसे बहुत हिले हुए थे। अब मैं उनकी मां बनकर आ गई थी तो वे मुझे अविश्वास से देखने लगे थे। इस बदले हुए, थोपे हुए रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे थे। हर समय सहमे-सहमे रहते। मम्मी के न रहने से परेशान वैसे ही थे। शेखर को तो खैर इतनी समझ थी, प्रियंका महीनों तक मम्मी के पीछे पागल रही। उसने मम्मी को अस्पताल जाते हुए देखा था, वापिस तो वह आयी ही नहीं थी, सो प्रियंका अक्सर दरवाजे पर खड़ी मम्मी की राह देखा करती। मम्मी संबोधन तो खैर मुझे शंतनु के बोलना सीखने के बाद से ही मिलना शुरू हुआ था।

    अरसे तक हम दोनों का संवाद नपे-तुले शब्दों तक सीमित रहा। हम ज़रूरत भर बात करते। घर पर हर वक्त मनहूस-सा सन्नाटा पसरा पहता। खाना खा लीजिए, चाय पी लीलिए। आपके कपड़े रख दिए हैं, नहा लीजिए, जैसी निहायत ज़रूरी सूचनाएंं। सम्बोधन तो हमारे पास अरसे तक नहीं रहा। नाम से बुला न पाती। अभ्यासवश मुंह से जीजाजी ही निकलता। वह दीदी को अपर्णा न कहकर रिन्नी कहकर पुकारते थे। मेरा घर का नाम पर्णा था। वह अक्सर मुझे भी रिन्नी कहकर पुकार बैठते। अपनी गलती का अहसास होने पर हम देर तक नज़रें चुराते रहते।

    दीदी की पहली पुण्यतिथि पर मैंने उनका विधिवत् श्राद्ध  किया था। दान-पुण्य करके उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की थी। दीदी की पहली पुण्यतिथि के ठीक सत्रह दिन बाद हमारी शादी की पहली वर्षगांठ थी। हालांकि उस शादी में कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे याद रखा जाता, यहां तक कि उस मौके पर कोई तस्वीर भी नहीं खींची गई थी, लेकिन शादी तो फिर भी शादी थी। बेशक उनके लिए दूसरी हो, मेरे लिए तो पहली थी। वैसे भी दीदी को गुज़रे साल से ऊपर गुजर चुका था, और हम सबने नयी परिस्थितियों में, नये रिश्तों को स्वीकार करके जीना शुरू कर दिया था।

    रंजीत को हमारी शादी की पहली वर्षगांठ याद नहीं रही थी। अरसे तक याद नहीं आई थी। जीवन उनका ढर्रे पर चलने लगा था। लगता था, उन्होंने अपनी जीवन से सभी अच्छी-अच्छी तारीखें, चीज़ें मिटा दी थीं और अब जो कुछ बचा था, उनकी दृष्टि में उसमें सेलिब्रेट करने जैसा कुछ नहीं था। मैं चुप रह गई थी। याद नहीं दिलाया था उन्हें। यही सही।

    शादी के बाद जब पहला जन्मदिन आया था तो दीदी को गुज़रे ज्यादा अरसा नहीं हुआ था। मैं उनकी स्थिति समझ सकती थी! लेकिन जब शादी के बाद मेरा दूसरा जन्मदिन भी उन्हें याद नहीं आया तो मैं बहुत-बहुत रोयी थी। भला ऐसी भी क्या रुग्ण आसक्ति कि जो अब नहीं है, उनके लिए आप हर समय उदास ग़मगीन बने रहें और जो है, जिन्होंने आपके और आपके परिवार के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, वह कहीं नहीं है! जब मैं उनकी साली थी तो हर साल कोई न कोई तोहफा जरूर भेजते थे। कैमरा तक दिया था उन्होंने मुझे और अब पत्नी बन जाने पर इतनी बड़ी सज़ा!

    ऐसा भी नहीं था कि हमने इस दौरान बच्चों के जन्मदिन न मनाये हों। बेशक छोटे पैमाने पर सही, बच्चों को उनकी इस छोटी-सी खुशी से मैंने कभी वंचित नहीं किया था। खुद रंजीत के जन्मदिन पर मैंने उन्हें एक बढ़िया रेडीमेड शर्ट दी थी। केक बनाया था। उन्हें सरप्राइज दिया था कि आज उनका जन्मदिन है।

    अपने जन्मदिन के प्रति मैं शुरू से ही बहुत सेंसेटिव हूं। इसे इस तरह गुज़रते देख मैं बहुत रोयी थी। छटपटाई थी। दूसरी बार यह हो रहा था। मम्मी-पापा ने भी शायद मुझे विदा कर देने के बाद यह तारीख याद रखने की ज़रूरत नहीं समझी थी। केवल वीनू भैया का खूबसूरत कार्ड आया था जिसे मैंने तुरन्त छिपा दिया था। मानो उसकी खबर पाकर हंगामा मच जाएगा।

    ऐसा भी नहीं था कि अब तक रंजीत मुझे मानसिक और शारीरिक तौर पर स्वीकार न कर पाए हों। अपने अन्तरंग क्षणों में उन्होंने कई बार कहा था, पर्णा तुम न आती तो मैं तो बिल्कुल टूट जाता। क्या होता इन बच्चों का और मेरा! और वह मुझे बेहद प्यार करने लगते। लेकिन सुबह होते ही बिल्कुल बदले हुए इन्सान होते। एकदम रिज़र्व, अपने आप में गुमसुम।

    मैं उन्हें अक्सर कहती ''चलिए, कहीं घूम आयें। चेंज हो जाएगा।' लेकिन वह टाल जाते। ''मन नहीं करता'' कहकर घर से भी न निकलते। शहर से बाहर तो दूर, दोस्तों-परिचितों तक के घर भी वह जाने से कतराते। एक बार ऑफिस से आने के बाद अगली सुबह ही बाहर निकलते। उन्होंने शायद यह धारणा-सी बना ली थी कि श्रीपर्णा की तो कोई इच्छा ही नहीं है। सारा दिन घर और बच्चों के साथ मारा-मारी करके उसकी भी तो घर से बाहर निकलने की इच्छा हो सकती है, यह जानने-मानने की जैसे ज़रूरत ही नहीं थी उन्हें।

    जब दीदी थीं तो वे लोग हर साल कहीं न कहीं घूमने निकलते थे। मेरी शादी के चार साल तक रंजीत ने एक बार भी नहीं कहा कि चलो अब बहुत हो गया, कहीं घुमा लायें तुम्हें। इन वर्षों में हम केवल दो बार उनके घर कानपुर गये और एक बार मैं मायके आयी, वह भी इसलिए कि वीनू भैया की शादी थी और जाना ज़रूरी था।

    बाहर जाना तो दूर, वह कभी भूल से भी नहीं कहते, ''चलो पर्णा, आज कहीं होटल में खाना खाते हैं या चलो तुम्हें एक नयी साड़ी ही दिलवा दें।'' बीसियों बार टूर पर जाते हैं। बच्चों के लिए कुछ न कुछ लाते हैं। चाहे अपनी मर्जी से, या उनकी मांगें पूरी करने के लिए। उन्हें कभी सूझता ही नहीं, पर्णा के लिए भी कुछ ले जाया जा सकता है। उसकी भी कभी इच्छा हो सकती है, कोई गिफ्ट मिले। हर बार मुझे ही कहना, मांगना पड़ता है। अगर शिकायत करो तो बिना खिसियाए कहेंगे, ''तुम भी कह सकती थीं, मांग सकती थीं। न ला कर देता, तब कहती।'' अरसे से कुछ भी मांगना, कहना छोड़ दिया है। अपनी शॉपिंग खुद ही करती हूं।

    हां, याद आया, मेरी शादी के वक्त मम्मी बाजार से पांच-सात सोबर-सी लगने वाली साड़ियां ले आई थी। घर से तो हम दो-चार जोड़े ही लेकर चले थे। बेशक मम्मी ने मेरे लिए अच्छा-खासा दहेज जुटा रखा था, वह सब वहीं रह गया था। जब मैंने देशा कि रंजीत तो एक साड़ी भी कभी नहीं दिलवायेंगे, तो मम्मी से कहकर, एक-एक करके सारे कपड़े मैंने मंगवा लिये थे।

    दीदी की अलमारियां एक से एक बेहतरीन साड़ियों, ड्रेसों से अटी पड़ी थीं, लेकिन उन्हें मैं कभी नहीं पहन पाई थी। एक बार एक साड़ी बहुत अच्छी लगने पर मैंने पहन ली थी तो सारे घर में रोना-धोना मच गया था। रंजीत और बच्चों को दीदी की याद आ गयी थी और सब रोने लगे थे। मेरे लिए उसके बाद अलमारी कभी नहीं खुली थी। सारे कपड़े मैंने इधर-उधर दे डाले थे।

    कई बार अपनी उम्र के हिसाब से सुन्दर और आकर्षक कपड़े पहनने का मन करता। मेक अप करने की इच्छा होती, लेकिन रंजीत की हद दरजे की उदासीनता से कुछ न कर पाती। वह सारी शामें, सारी छुट्टियां घर पर लेटे रहकर गुज़ारते। मेरा दम घुटता, छटपटाहट महसूस होती। लेकिन रंजीत न जाने किस मिट्टी के बने हुए हैं। उन्हें कुछ महसूस ही न होता। ज़िंदगी के प्रति कोई उत्साह नहीं। कुछ नया, कुछ उमंग भरा करने की कोई ललक नहीं, बस हर वक्त सुस्ता रहे हैं।

    मैं उनके इस रूखे व्यवहार की वजह समझ न पाती और रोती रहती। समझ न आता क्या हो रहा है और वह ऐसा क्यों कर रहे हैं! उनसे पूछती, गिड़गिड़ाती, अपने मन की बात क्यों नहीं कह कर हल्के हो जाते ! क्यों तिल-तिल कर मर रहे हैं? आखिर मेरी गलती, मेरा कसूर तो पता चले कि यह सज़ा क्यों दी जा रही है मुझे, पर शायद रंजीत को मुझसे कोई शिकायत नहीं थी, खुद से ही थी। हर बार यही कह कर टाल जाते, सब ठीक तो है। तुम्हें बेकार वहम हो रहा है।

इसी दौर में तीन-चार घटनाएंं एक साथ घटीं। शादी के चौथे-पांचवे साल में। हमारा बेटा हुआ। परेश। मैंने बी.ए. का फार्म भरा। शेखर हॉस्टल में चला गया और, और रंजीत को किडनी स्टोन की शिकायत हुई। इन सारी घटनाओं ने हमारे परिवार के सारे समीकरण बदल दिए। यह एक ऐसा दौर था, जब मुझ पर अपनी सार्थकता, अपनी अहमियत को सिद्ध करने का जुनून-सा सवार हो गया था। मैं खुद को बच्चों की पढ़ाई, घर-बार की बेहतरी और अपना खुद का सर्किल बनाने में पूरी तरह व्यस्त रख कर तसल्ली ढूंढ़ने लगी थी। पिछले पांच सालों से घुटन भरे माहौल से एकदम विद्रोह करने की-सी मानसिकता थी मेरी। ऐसा नहीं था कि मैंने रंजीत की तरफ ध्यान देना कम कर दिया हो, वह खुद को किसी तरह इस सबसे बाहर रखने की कोशिश करते। उन्हें सब लल्लो-चप्पो लगता।

    किडनी स्टोन की बीमारी रंजीत को इस तरह एक वरदान की तरह मिली थी। वह बड़ी सफाई से हर तरफ की मुसीबतों, जिम्मेदारियों और औपचारिकताओं से मुक्त हो गए थे। कई बार मुझे लगता है, अगर उन्हें पथरी की शिकायत न होती तो और कोई बीमारी हो जाती, कोई ऐसी बीमारी जो ज्यादा तकलीफ दिए बिना अरसे तक आपके साथ चल सके। जब आप चाहें कह दें, अब ठीक हूं, और जब आप चाहें उसकी आड़ लेकर बिस्तर पर पड़ जायें। यह बीमारी एक ऐसा अंधेरा कमरा थी जिसमें वह जब चाहें छुप जाते थे, आराम से खुद को हम सबसे काट सकते थे। जब देखते, अब सब कुछ ठीक है, तो हौले से बाहर आ जाते, लुका-छिपी के खेल की तरह। तब से आज तक मुझसे उनका लुका-छिपी का खेल जारी है।

    कई बार मुझे लगता है, मैं इतने सालों से किसी सिविल अस्पताल में रह रही हूं। चारों तरफ दवाओं की गंध है। जिस चीज को भी छुओ, किसी न किसी टेबलेट की गंध उसमें बसी हुई है। हवा यहां की इतनी भारी है कि अब सांस लेने में भी तकलीफ होती है। हमारा बेडरूम तो कब से पेशेंट रूम में बदल चुका है। मुझे कुछ नहीं हुआ है, फिर भी हर वक्त खुद को बीमार महसूस करती हूं। इस सिविल अस्पताल में मेरी भूमिका क्या है, मुझे नहीं मालूम। बस यहां एक अदद मरीज है और इस घर का कारोबार घर उसी की सुविधा, ज़रूरत, इच्छा या जिद के हिसाब से चलता है। उसे जो खाना चाहिए सबके लिए वही बनेगा। उसे घर में ही पड़े रहना है तो कोई बाहर नहीं जाएगा। कोई किसी को तंग नहीं करेगा। यह मरीज किसी से कुछ नहीं कहता, किसी को मन मर्जी करने से रोकता भी नहीं, परन्तु इतने बरसों से कुछ न कहने के अभ्यास से उसने घर भर को अपनी इतनी जबरदस्त गिरफ्त में ले रखा है, कि कोई ऊंचे स्वर में बात नहीं कर पाता। असली दिक्कत ही यही है कि वह कुछ कहता नहीं। कहे और एक ही बार में सब कुछ खत्म हो गया तो वह क्या करेगा! कई बार लगता है, हम सब मरीज हैं, जिन्हें इस घर का दमघोंटू सन्नाटा हर वक्त कुतर-कुतर कर खा रहा है। हम असहाय से देख रहे हैं।

    यह मरीज सारा दिन अपनी दवाइयों की दुकान सजाए रहता है। कभी वह होम्योपैथी का इलाज करवा रहा होता है, तो कभी ऐलोपैथी, यूनानी या आयुर्वेदिक का। पता भी नहीं चलने देता कब इलाज बदल दिया। उसे शहर भर के किडनी स्टोन के डॉक्टरों और मरीजों की पूरी जानकारी है और वह अपनी बीमारी पर घंटों बात कर सकता है। सच तो यह है कि अब वह सिर्फ अपनी बीमारी पर ही बात कर सकता है। हमारे घर मेहमान हमसे बोलने-बतियाने या खाने-पीने नहीं आते। उसका राग-पत्थरी सुनने आते हैं, जिसे वह पिछले दस-ग्यारह साल से अनवरत गाए जा रहा है।

    उसे बच्चों के जन्मदिन की तारीखें, शादी की वर्षगांठ की तारीखें भले ही याद न रहती हों, पिछले दस सालों से किस-किस डॉक्टर ने किस-किस तारीख को उसका इलाज किया है, उसे उंगलियों पर याद हैं। मज़े की बात तो यह है कि लोगों का किडनी स्टोन एकाध ऑपरेशन से या यूं ही पेशाब के साथ निकल जाता है, लेकिन रंजीत का स्टोन पता नहीं किस पेड़ पर लगता है, जब देखो, अपनी मौजूदगी को अहसास कराता रहता है। जब देखो, उसे शूल उठते ही रहते हैं। कोई बड़ी बात नहीं, स्टोन की उसकी बीमारी तो कब की ठीक हो चुकी हो। बस, उसे ही नहीं पता।

    उसने बच्चों को कभी पास बिठाकर बेशक कभी होमवर्क न करवाया हो, किडनी स्टोन पर छपने वाला हर आर्टिकल ज़रूर पढ़ा होगा। कई बार वह बिल्कुल ठीक होता है। एक-एक, दो-दो साल, लेकिन कतई जाहिर नहीं करता वह। उसे एक कवच की तरह ओढ़े रहता है, सामने नहीं आता, सहज होकर।

    कितनी बड़ी यंत्रणा है, शिरीष, हम पति-पत्नी और हमारे चार बच्चे कभी भी एक साथ बैठकर ठहाके नहीं लगाते। कहीं घूमने-फिरने नहीं जाते। काफी अरसा लग गया था मुझे बच्चों को यह विश्वास दिलाने में कि अब मैं ही उनकी मां हूं। अब तो स्थिति यह हो गई है कि मैं सगी मां तो कब की बन चुकी हूं लेकिन रंजीत ही सगे पिता नहीं रह गए हैं। पता नहीं इस घर में पेइंग गेस्ट रंजीत हैं, या हम बाकी लोग।

    तुम हैरान-परेशान हो रहे होंगे, शिरीष कि मैंने तुम्हें यह सब क्यों लिखा। मुझे तुम्हारी सहानुभूति नहीं चाहिए। वह तो इस ज़िंदगी में इतनी मिल चुकी है, अब और नहीं सही जाएगी। दरअसल किसी ऐसे आदमी से कुछ कहने के लिए मैं कब से तड़प रही थी जो मुझे सिर्फ सुने, कोई प्रश्न न करे। मुझे कोई भी तो ऐसा नहीं मिला, जिससे मैं अपनी बात कह पाती, अपने मन का कुछ बोझ हल्का कर पाती, और पूछ पाती, ''यह सब मुझे ही क्यों मिला! क्या मुझे अपने तरीके से अपनी ज़िन्दगी का यह स्वरूप सौंप दिया गया था, क्या उसे संवारने-सजाने में रंजीत की कोई भूमिका नहीं थी, हमारी शादी की यह शर्त तो कतई नहीं थी कि वह सब कुछ मुझे सौंप कर, एक आया, नर्स, नौकरानी या हाउस-सर्वेन्ट बनाकर अपने ही बच्चों से दूर जाकर खड़े हो जायेंगे। मैं पूछना चाहती थी शिरीष, मैंने इस घर के लिए इतना सब कुछ किया, नहीं, उसे त्याग का नाम नहीं दूंगी, उसके बदले में मुझे अपने ही पति से इतना क्रूर ठण्डापन क्यों मिल रहा है? आज उनका परिवार एक ठोस आधार पर खड़ा है। शेखर आर्मी में कैप्टन है, प्रियंका डॉक्टरी कर रही है, शांतनु और परेश अच्छे अंक ला रहे हैं और मैं एम.ए., बी.एड. होने के बावजूद नौकरी नहीं कर रही क्योंकि मैं अभी भी मानती हूं, रंजीत, बच्चों और इस घर को मेरा पूरा समय मिलना ही चाहिए। मैं आज की नहीं सोचती, आने वाले समय की सोचकर मेरे माथे की नसें तड़कने लगती हैं। पांच-छ: साल बाद रंजीत रिटायर हो जायेंगे। तब तक बाकी बच्चे भी अपने कैरियर में लग ही चुके होंगे। तब चालीस-इकतालीस साल की उम्र से शुरू होने वाला हम दोनों के बीच का ठंडापन मुझे कब तक भोगना होगा, यह सोच-सोचकर मरी जाती हूं।

ऐसा नहीं है कि मैंने रंजीत को इस अंधे कुएंं से निकलने की कोशिश न की हो। प्यार, मनुहार, रूठना, गुस्सा होना, उन पर कोई असर नहीं करते। वह अभी भी बेडरूम में लेटे लिथोट्रिप्सी पर कोई लेख पढ़ रहे हैं। मुझे पता है वह सचमुच बीमार हैं तो लिथोट्रिप्सी ट्रीटमेंट से एकदम ठीक हो जायेंगे। लेकिन वह ठीक ही कहां होना चाहते हैं। दरअसल, उन्हें कोई रोग है ही नहीं। उन्हें रोग होने का वहम भर है। और वहमों के इलाज नहीं हुआ करते। वे हाइपोकौन्ड्रियाक हैं।

    ये सारी बातें थीं, किसी से कहना चाहती थी। आज तुम्हारी कहानी देखकर, लगा तुम्हीं सही व्यक्ति हो, जिससे मैं अपने मन की बात कह सकती हूं। हम दोनों एक-दूसरे को जानते-समझते थे। अपने प्रति तुम्हारी भावनाओं को मैं समझती थी, तुम मुझे अच्छे लगते थे और, मुझे पता है तुम्हारी उन दिनों की सारी कहानियों, कविताओं की नायिका मैं ही हुआ करती थी। शायद आगे चलकर हमारे सम्बन्ध और प्रगाढ़ होते, लेकिन ये सब तो तब होता जब होता, हुआ तो वही जो आज मेरे सामने है। तुम यह भी सोच सकते हो, ये बातें मैं तुम्हें पहले भी तो लिख सकती थीं, तुम्हारी कहानियां उपन्यास पहले भी खूब छपे ही हैं, पर हर बार मैं खुद को एक मौका और देती थी। शायद कहीं कुछ हो जाए। स्थितियां बदल जायें। लेकिन शायद बदलाव शब्द मेरे हिस्से में नहीं लिखा है।

    मैं अपना पता जानबूझ कर नहीं लिख रही हूं। नहीं चाहती तुम मुझे ढूंढ़ते हुए आओ और अब जब सब कुछ खत्म होने को है, तुम आकर मेरी और अपनी परेशानियां बढ़ाओ। तुम्हारे लेखन के बारे में तो खूब जानती हूं, कामना करती हूं और ऊपर उठो, तुम्हारे परिवार के बारे में जानना चाहती थी, पर उसके लिए पता लिखना पड़ेगा। तुम मुझे पत्र लिखो, यह मैं नही चाहती।

एक बात और, यह सब पढ़कर मेरे लिए अफसोस मत जाहिर करना, न ही यह सोचना कि तुम मेरे लिए कुछ नहीं कर पाए। उसकी ज़रूरत नहीं। हां, कहीं भूल से अगर मुलाकात हो जाए, तो यही जतलाना, तुम मझे नहीं जानते, न ही तुम्हें यह सब पता है।

    फिर से वचन दो, इसे कहीं छपवाओगे नहीं।

    बस, खत्म करती हूं।

    श्री...

 


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