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ख़ुदकुशी

ख़ुदकुशी

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शहर इलाहाबाद। ये शहर कई मायनों में बहुत मशहूर रहा है। कुम्भ का मेला जो सबसे बड़ा मेला होता है हिंदुस्तान का। इलाहाबाद विश्वविद्यालय देश के गिने चुने विश्वविद्यालयों में से एक है। शहर भी खूबसूरत है। शहर के किसी भी इलाके की किसी भी गली में आप चले जाइए यकीनन हर गली में एक बड़ा अधिकारी मिल जायेगा आपको। यहाँ रहने वाले छात्र इसको बड़ी उपलब्धि मानते हैं इस शहर की।
हर गली में आपको कोचिंग संस्थान मिलेंगे। हर कोचिंग संस्थान में आपको छात्र-छात्राओं का मेला दिखेगा। कम शब्दों में कहें तो ये शहर आईएएस, पीसीएस की कोचिंग संस्थाओं के लिए भी बहुत मशहूर रहा है। ग़ालिबन दो लाख छात्र हर साल इस शहर में दाखिल होते हैं। हर नौजवान कुछ बन जाने की चाहत लिये शहर आ रहा है। हसरतें लिए मैंने भी इस शहर में आठ साल गुज़ार दिए हैं। पर मैं अकेला नहीं हूँ ज़िसने आठ साल इस शहर में गुज़ार दिया हो और बदले में मिला हो कुछ नहीं। यही सोचकर यहाँ रूका हुआ हूँ। कितने तो ऐसे हैं ज़िन्हें पन्द्रह साल से भी ज़्यादा हो गया है बस इन्हीं से ताकत मिलती रही है। यहाँ किसी की भी ज़िंदगी सीधी नहीं है। मेरा मानना है ज़िंदगी एकदम सीधी भी नहीं होनी चाहिए। पर कोई दलदल में फंसा है तो किसी को इतनी ठोकरें लगी हैं कि चल नहीं पा रहा फिर भी दौड़ने की कोशिश कर रहा है। कोई दाँये-बाँये मुड़ते-मुड़ते बहुत ज़्यादा परेशान हो गया है। कोई उतार-चढ़ाव के इतने रास्ते तय कर लिया है कि सांस फूलने लगी है। पर सब चल रहे हैं कि उन्हें आगे पहुँच जाना है। कोई डीएम कोई एसडीएम कोई जज तो कोई कुछ और। शायद ही कोई कुछ न बनना चाहता हो शायद क्या ऐसा कोई है ही नहीं यहाँ। कोई ब्याज पर क़र्ज़ लेकर शहर आया है तो कोई खेत बेचकर कोई माँ के जेवरात बेचकर तो कोई खेत गिरवी रखकर। बस इसी दबाव ने सबको एक कमरे तक महदूद कर दिया है। एक कमरा ही सबकी दुनिया है यहाँ। बस इसी नहीं बल्कि हर शहर की यही दास्ताँ है। किसी ने ठीक ही कहा है ज़िंदगी जंग है। हर कोई इस जंग में शरीक है। अपने अपने तरीके से सब लड़ रहे हैं। पर कोई इस जंग में हारते हारते इतना परेशान हो जाता है कि ज़िंदगी ही समाप्त कर बैठता है। सबको जीने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जो बुनियादी ज़रूरत है चाहिए पर सबको मुनासिब नहीं क्यों? किसी के पास इतना है कि कुछ नहीं करता फिर भी अय्याशी कर रहा है और कोई सुबह से लेकर शाम तक जी तोड़ मेहनत कर रहा है फिर भी तबियत खराब होने पर इलाज का मोहताज है।


बहरहाल मैं इस वक़्त अस्पताल में हूँ। मेरे सामने वाले कमरे में वेंटीलेटर पर एक लड़का पड़ा है ज़िसको मैं आठ सालों से जानता हूँ यानि जब से इस शहर में दाखिल हुआ तब से। इसके और मेरे दरमियान ऐसा कुछ नहीं जो हम नहीं जानते हों। इस शहर में न तो मेरा कोई था ना है। अगर कोई था तो यही लड़का- विपिन। डॅाक्टर अंदर बाहर कर रहे हैं। मुझे उससे मिलना है ताकि पूछ सकूँ कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया पर मेरे लिए अंदर जाने की मनाही है। इंतज़ार कर रहा हूँ कि कब डॅाक्टर आकर कह दे कि मैंं अब मिल सकता हूँ। पर नहीं। घण्टों बीत चुके हैं। डॅाक्टर से कई दफा पूछ चुका कि अब कैसा है वो। हर बार डॅाक्टर बैठने का इशारा कर देता। हर डरा आदमी भगवान को याद करने लगता है जैसे मैं कर रहा हूँ। डॅाक्टर भी भगवान पर सबकुछ छोड़ दिए हैं।

अभी-अभी डाक्टर ने बताया कि विपिन नहीं रहा। डॅाक्टरों ने हर संभव कोशिश की लेकिन नाकामयाब रहे। विपिन मुझसे जुदा हो गया। अब मैं इस शहर में तनहा हो गया हूँ। बारिश हो रही है। राकेश ने विपिन के घर फोन कर दिया था। घर वाले रास्ते में हैं। अब उन्हीं का इंतज़ार मैं और राकेश कर रहे हैं। चार दिन बाद पीसीएस का पेपर होने जा रहा है। दोस्त पेपर की तैयारी में व्यस्त हैं इसलिए नहीं आ पाये। ये दूसरी मौत है जो मेरे आँखों के सामने हुई है। अखबारों में रोज़ कहीं न कहीं छात्रों की मौत की खबरें आ रही हैं। कोटा से लेकर कानपुर तक। आखिर इन मौतों का ज़िम्मेदार कौन है? याद है विपिन अक्सर मुझसे अपने हालातों के बारे में बताता था। तो क्या हालात ही ज़िम्मेदार है इन तमाम मौतों का। देश को आज़ाद हुए साठ साल से भी ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन इन साठ सालों में हम कहाँ आ पहुँचे हैं। देश ने हर क्षेत्र में तरक्की की है लेकिन इन्हीं सालों में अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता गया है इस कड़वी सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। तो क्या गरीब ही अपनी गरीबी के लिए ज़िम्मेदार हैं। कौन मुफलिसी में जीना चाहता है। कौन नहीं पढ़ना चाहता। कौन ये नहीं चाहता कि वो सम्मानजनक ज़िंदगी जीये। रिक्शे वाला भी पैडल पर अपने पैर रखता होगा तो सोचता होगा कि उसकी आने वाली नस्लें रिक्शा नहीं चलायेंगी। ख्वामख्वाह कितनी गालियाँ सुननी पड़ती हैं सुबह से लेकर शाम तक। जब से हॅास्पिटल में आया हूँ ऐसा मालूम होता है मेरे सामने आठ वर्ष की एक फिल्म चल रही हो। इन आठ सालों में मेरे सामने की ये दूसरी घटना है। हर रिजल्टआने के बाद विपिन रोने लगता था। जब रोने लगता था तो पता नहीं चलता था कि ये वही विपिन है जो बात बात में में कईयों की मिसाल दिया करता था और अक्सर कहता था मुरारी तो तेरह साल से थे यहाँ आखिर हुए न। हर रिजल्ट के बाद और मेहनत करने लगता।रिजल्ट आने के बाद घर पर घण्टों बातें करता। कर भी क्या सकता था। इस बार चूक गया कुछ नंबर से अगली बार हो जायेगा इतना काफी होता घर वालों के लिए। और अगली बार के इंतज़ार में घरवालों ने भी आठ साल तक इंतज़ार किया पर शायद अब ज़्यादा हो रहा था।
जब मैं पहली बार उससे मिला था तो ऐसा मालूम हुआ कि किसी पुराने दोस्त से मिल रहा हूँ। हॅास्टल में मेरे के कमरे के ठीक बगल उसका कमरा था। ग्रैजुएशन के बाद हम दोनों एक एक छोटा सा कमरा ले लिया था।
एक दिन बात ही बात में बात घर तक पहुँच गयी। बताने लगा, माँ बाप का अकेला लड़का है। सबसे छोटा। काफ़ी मिन्नतों के बाद पैदा हुआ। चार बहनें हैं। दो की शादी हो चुकी है दो की करनी है। माँ-बाप की उम्र साठ से ऊपर जा चुकी है। अक्सर दोनों की तबीयत खराब ही रहती है। बस सब आस लगाये बैठे हैं कि जल्दी से नौकरी मिल जाये तो दोनों बहनों की शादी हो जाए और माँ-बाप का अच्छे से इलाज हो। पिताजी किसी न किसी तरीके से रूपये भेज ही दिया करते। एक-एक रूपये से एक ही उम्मीद जुड़ी हुई है बस एक नौकरी। पिताजी किसान हैं। लेकिन किसानों की हालत हिंदुस्तान में किसी से छिपी बात नहीं है। विपिन ने ही एक दिन अखबार में छपे सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा था "आजाद हिंदुस्तान में पहली बार इतने किसान एक साल में मरे हैं। क्या सरकारें इससे नावाक़िफ हैं"। आज उनतीस तारीख है। मकान मालिक को एक तारीख को कमरे का किराया देना है। दुकानदार भी बाक़ी रूपयों के लिए कई बार टोक दिया है। सुबह-सुबह विपिन घर फोन किया था तब से कुछ उखड़ा-उखड़ा सा लग रहा था। वो घर के हालातों से वाकिफ ही था। पर क्या करे। उसे पता था कि घर वाले पैसे किस तरह से भेजते हैं। किस खर्च से पैसे कम किये जाते हैं। बहनों की पढ़ाई वर्षों पहले ठप्प हो गयी थी ताकि वो पढ़ सके। इस बात का उसे बहुत मलाल था। करता भी क्या। ये सोचकर मेहनत कर रहा था कि कहीं हो जायेगा तो सब ठीक हो जायेगा। बहुत हिम्मती था फिर ये क्यों कर बैठा समझ नहीं आ रहा है। सिर्फ दस मिनट में ये हो गया मानों पहले से उसको इंतज़ार हो कि मैंं बाहर जाऊँ ताकि वो ये कर सके। आया तो इस हालत में पाया। ये दूसरी घटना है ज़िसको मैंने अपनी आँखों से देखा है। बहुत सारे लोग ये कदम ना चाहते हुए उठा लेते हैं। अखबारों के कोने में कहीं खबर छप जाती है। पत्रकारों के लिए ये बड़ी घटना नहीं है।
ज़िंदगी में कुछ घटनाए ऐसी होती है जो जेहन में खास खबर की तरह हमेशा के लिए छप जाती हैं। ज़िंदगी की जह्द में ये घटनाए याद नहीं आतीं पर फ़ुर्सत में दिमाग पर बिना जोर डाले आँखों के सामने इसका मंज़र होता है। ऐसी घटना कहीं हो या ऐसी ही घटना का ज़िक्र आये तो दिमाग के कोने से निकलकर ये याद सबसे पहले हो लेती है।

याद है सुबह मैं और अखिलेश साथ नाश्ता किये साथ कॉलेज गये। वो अपने डिपार्टमेंट और मैं अपने। सुबह के नौ बजे तक सब कुछ अच्छा था। पर आजतक पता नहीं चला कि आखिर पाँच घण्टों में ऐसा क्या हुआ उसके साथ कि वो ऐसा कदम उठाने पर मजबूर हो गया। जब कॉलेज से बाहर आया तो पता चला अखिलेश पंखे से लटक गया है। कॉलेज के सामने ही हॅास्टल था पहुँचा तो अखिलेश को एम्बुलेंस से ले जाया जा रहा था मैंं भी साथ गया था। यही दिन थे। अखिलेश हफ्तों कोमा में रहा था। कॉलेज में ही था तो पता चला वो चला गया हमेशा के लिए। कॉलेज उस दिन बंद हो गया इस शोग में कि कॉलेज का एक छात्र मर गया है। पर किसी ने जानने की कोशिश नहीं की आखिर अखिलेश ने ऐसा क्यों किया।
सब व्यस्त हो गये अपने में। शायद ही किसी को याद होगा कि अखिलेश कौन था। याद भी कोई क्यों करे। क्या लगता था अखिलेश किसी का। कुछ नहीं। था किसी का भाई किसी का इकलौता बेटा। लेकिन मुझे याद है कि अखिलेश ने कहा था "इस तिजारत की दुनिया में संवेदनशीलता, बराबरी की बात सोचना भी अब बेमानी लगता है"। वो भी बैंक से लोन लेकर इंजीनियरिंग करने आया था। अभी उसको दाखिला लिए भी दो ही महीने हुए थे। कुछ दिन इसकी चर्चा रही फिर सब सामान्य हो गया।
बहरहाल बारिश बंद हो चुकी है। विपिन के घरवाले स्टेशन पर हैं। राकेश उन्हें लेने गया है। डॅाक्टरों ने भी विपिन को बाहर कर दिया है। साथ में एक अस्पताल का कर्मचारी बैठा है कि कहीं हम विपिन को लेकर चले न जायें। कुल अस्सी हज़ार रूपये का बिल बना है डाक्टरों की नाकामयाब कोशिशों के बदले। यहाँ तक आ पहुँची है हमारी संवेदनशीलता। जहाँ मानवीय मूल्य तक की बिक्री होती हो वो समाज सभ्य तो हरगिज़ नहीं हो सकता। यहाँ हर एक आदमी की कीमत तय कर दिया गया है। यहाँ सिर्फ बोलियाँ लगती हैं। नफरत होने लगी है इस सोसायटी से। पर भागा भी नहीं जा सकता यही जमाने का चेहरा है और उन चेहरों में मेरा भी एक चेहरा है।

राकेश आ गया है। विपिन के ठंडे शरीर के पास खड़ा एक बूढ़ा आदमी एक टक उसके चेहरे को देख रहा है मानों वो उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो कि ये विपिन ही है। उसके ऊपर पड़ी है एक बेसुध बूढ़ी औरत जिसका रो रोकर बुरा हाल है। आँखों से आँसुओं की धार ऐसे बह रही है जैसे बारिश का सारा पानी उसकी आँखों के समंदर में ही इकट्ठा हो गया हो। ये बूढ़ी औरत और बूढ़ा आदमी कोई और नहीं विपिन के माँ-बाप हैं। उनके आँसू भी पोछने वाला कोई नहीं। क्योंकि वो विपिन कोई बड़े व्यापारी का बेटा नहीं था न ही किसी बड़े सियासतदान का कि पूरा शहर उसके मौत पर मातम मनाए।
राकेश विपिन के पिता से बात कर रहा है विपिन को ले जाने की। लेकिन ले कैसे जाए? अस्सी हजार क्या आठ हजार रूपये भी नहीं उनके पास। साढ़े पाँच हजार रूपये ब्याज पर लेकर आये हैं। डॅाक्टर मानने को तैयार नहीं है उसे डर है कि वो उसके रूपये नहीं देंगे। पैर पकड़ कर हम कह चुके हैं कि हम कल तक उसके रूपये चुकता कर देंगे पर नहीं क्योंकि गरीब आदमी की इस सोसाइटी में कोई क्रेडिट नहीं।
एक ही रास्ता है अस्सी हजार रुपये का इंतजाम हो पर करें कैसे कौन है इस शहर में। पैसे के इंतजाम के लिए विपिन के पिता को गाँव जाना पड़ेगा। बहरहाल वो जा रहे हैं उसकी माँ को छोड़कर क्योंकि माँ मौत के बाद भी अपने बेटे को छोड़ती नहीं। राकेश एक कोने में बैठा है। वो मुझे देख रहा है मैं उसे देख रहा हूँ। जैसे इस सभ्य समाज के लोग एक दूसरे का चेहरा देखते हैं। चेहरा देखते दो दिन गुज़र गया है। माँ के आँसूओं की धार बराबर गिर रही है पर विपिन के पिता अब तक नहीं आए है।


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