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Tulsi Tiwari

Tragedy

2.5  

Tulsi Tiwari

Tragedy

नाम पता

नाम पता

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   छोटा तो और महान् है उसे हरिद्वार जाने की सलाह देता है ताकि आने जाने वालों को बताये कि वह तो कहीं के राजा का बेटा है ।श्यामा को प्रारंभ से ही सिनेमा देखने का बहुत शौक था उसने सिनेमा की नायिकाओं के चरित्र से अपना आदर्श गढ़ा था। उसने सिनेमा में बड़े से बड़े विलेन को अपनी माँ से अटूट प्यार करते देखा था, उसे लगता था उसने बड़ी मेहनत की है , बड़ी मर्दानगी दिखलाई है अपने बच्चों को अकेले परवान चढ़ा कर । वे तो उसकी पूजा करेंगे । उसे दुनियाँ की सबसे अ़च्छी माँ कहेंगे। परंतु उसकी आशा घूल में मिलती चली गई समय के साथ-साथ।


शेखर के जाने के बाद उसके पैसे से यह छोटा सा मकान ले लिया था । वह जानती थी कि एक अकेली बेवा किराये के मकान में स्वाभिमान के साथ नहीं जी सकती उसे अपने इस फैसले पर भी अब पछतावा होने लगा है। तीनों बेटे अपने- अपने आलीशान मकानों में रहते हैं परंतु उनका लालच इस घर पर बेतरह बढ़ा हुआ है। रहना तो किसी को नहीं है बेच कर पैसे बाँटने हैं। वह इसके लिए तैयार नहीं है और बदले में भाँति- भाँति की प्रतारणा झेल रही है।

प्रताड़ना तो उसके भाग्य में ही लिखी है नहीं तो बैंक में अनेक अधिकारियों के साथ बना कर चलने वाली क्या अपने बच्चों से बनाकर नहीं चल पाती? बहुएं तो माना कि परकोठिया हैं, बेटों को तो उसी ने बनाया है, जैसा बनाया वैसा ही देख रही है।’ उसका सिर भारी हो गया उसने अपने दोनो हाथों के बीच अपना माथा लेकर दबाया । उसे बड़ा आराम मिला। रात धिर आई थी पानी लगातार बरस ही रहा था। उसने उठकर पूरे घर की बत्तियाँ जला दी। टी.वी. देखने का मन नहीं हुआ। क्या देखा जाय वही घिसे-पीटे समाचार , यदि एकाध नये हुए तो इतने बार इतने तरीके से सुनाये जाते हैं कि सुनते-सुनते जी ऊब जाता है। उसने बहुत दिन बाद एक पत्र लिखने का विचार किया अपने बड़े बेटे के लिए । मोबाइल की सुविधा ने आपसी आत्मिक जुड़ाव के एक महत्वपूर्ण माध्यम से हमें रीता कर दिया है। मोबाइल में हम कहने -सुनने योग्य बातें ही कहत हैं किंतु पत्र में वह सब भी लिख देते हैं जो अनुभव करते हैं।उस ने एक फूल स्केप कागज लिया और लिखने के पहले कुछ देर तक सोचती रही कि कैसे अपनी बात लिखूँ? सच कहें तो उसने भी बहुत कम चिट्ठियाँ लिखीं हैं जीवन में । पहले फोन आया अब तो घर में अनाज रहे न रहे प्रति सदस्य के पास मोबाइल रहना आवश्यक हो गया है । सरकार ने भी गरीब तबके को निःशुल्क मोबाइल दे दिया है। अब तो रिक्शे वाला हो या नाली साफ करने वाला मोबाइल वाला अवश्य है।

कुछ भी लिखने से पहले बड़े का गोल- गाल चेहरा, भोली- भाली आँखें उसका माँ- माँ कहकर बार-बार सीने से लगना याद आ गया और उसकी आँखें बरस पड़ीं -

’’ ऐसा कौन सा पाप हुआ बेटा जो तुम मेरे न रहे ? न रहे तो न रहते बेतहाशा नफरत करने लगे। न जाने मुझसे कहाँ भूल हो गई शायद वहाँ जब मैंने बाप बनने की कोशिश की। मुझे लगा यदि मैंने इस समय अत्याचार का विरोध न किया तो तुम्हें लगेगा बाप होता तो बच्चों के झगड़ें में फतह खाँ कोतवाली का सिपाही तुम पर हाथ न छोड़ देता । मुझे अपने बचपन की घटना याद आ गई थी उस समय तो कुएं से पानी भरा जाता था। कहीं कहीं सडक के किनारे सरकारी नल लग गये थे जिनसे पानी भरने के लिए अक्सर लोग जूझ जाया करते थे । बड़े-बड़े बरतनों की लम्बी लाइन लगा करती थी। लोग एक दूसरे को देखकर कूढ़ते जलते अपनी बारी का इंतजार करते थे, जहाँ किसी के मुँह से कुछ निकला कि हुई जंग। ऐसी ही परिस्थिति में एक पड़ोसी ने मुझे कुछ तूका बेतुका कह दिया, मारने के लिए हाथ भी उठा लिया। मैं रोती-रोती घर से पिता जी को बुला लाई ’’ आप के रहते मुझे कोई भी जो चाहे कह सकता है ?’’ कहकर मैं जोर से रोने लगी। पिताजी ड्यूटी से आकर खाना खाने बैठे थे तुरंत नल के पास आये , परंतु उस अदमी ने मेरी जो शिकायत की, उसे सच मान कर मुझे लेकर घर आ गये। मेरे बाल मन पर इसका बड़ा विपरीत असर हुआ । मैं अपने आप को असुरक्षित अनुभव करने लगी। वैसे बहुत बाद में समझ में आया कि पिता जी ने छोटी सी बात में पड़ोसी से बैर मोल न लेकर अच्छा ही किया । उसने अपनी आँखें पोंछीं।

ऊँचा पूरा पठान था फतह खाँ , राज्य सरकार का सिपाही, बच्चे थे आठ , उसे कभी समझ नहीं आया कि एक कमरे के मकान में जवान बच्चियों की उपस्थिति में कैसे उनके यहाँ हर साल बच्चे हो जाते हैं, परिवार नियोजन उनके में धर्म के खिलाफ माना जाता है । वह श्यामा के घर वाली लाइन में ही किराये से रहता था। श्यामा हमेशा उनके चुल्हे का ख्याल रखती थी। फतह की औरत उसके पास आकर बैठती थी वह भी कभी -कभी आकर बैठ जाता था श्यामा ने कभी ऐतराज नहीं किया। वह तो दिन भर सैकड़ों लोगों के बीच काम करती हैं उसे अपनी सुरक्षा करना आता है। वह फतह के परिवार को अपना समझने लगी थी।

   एक दिन उसका सात साल का लड़का किराये की छोटी वाली साईकिल लिए मेन रोड पर तेजी से चला रहा था, उसने बच्चे को रोक कर उसे डाँटा-  ’’ गिर जायेगा तो चोट नहीं लगेगी तुझे ? दवाई कहाँ से करायेंगे माँ-बाप? कल से दिखा तोमार दूंगी। घर के सामने वाली सड़क पर चलाओ वह भी देख-भाल कर।’’ दूसरे दिन जब शाम को घर पहुँची तो बड़के ने रो-रोकर बताया कि फतह खान ने मैदान में साइकिल चलाने को लेकर उसे पकड़कर पीटा है। उसके गालों पर अंगूलियों के निशान बता रहे थे कि उसे मार पड़ी है। वैसे भी उसे घर आने में देर हो गई थी,उस रात होलिका दहन होेने वाला था, अगले दिन होली का अवकाश था त्यौहार की कोई तैयारी नहीं हो पाई थी, उसे रात भर जाग कर अपने बच्चों के लिए पकवान बनाना था, वह सामान बाजार से लेती आई थी। बड़े का हाल देख कर वह गुस्से में आ गई ं जिसके बच्चों को उसने कभी भूखा नहीं सोने दिया उसने आज उसके बिन बाप के बच्चे पर हाथ उठाया । वह उसी पैर फतह के दरवाजे पर चढ़ दौड़ी । उसका दरवाजा बंद था बहुत आवाज देने पर भी जब दरवाजा न खुला तब उसने उसके दरवाजे पर पत्थर मार दिया। जैसे ही दरवाजे से पत्थर टकराया अचानक दरवाजा खुला और फतह ने उसके सिर पर डंडे से वार कर दिया। वह गिर पड़ी तब भी वह मारता रहा, वह तो सामने वाले पड़ोसी ने आकर उसका डंडा कस कर पकड़ लिया तब कहीं और लोगों ने आकर श्यामा को उठा कर अस्पताल पहुँचाया। तीनों बच्चे किसके पास रात में रहे? उनका क्या हुआ? उसे कुछ होश न रहा। शेखर के एक मित्र ने अस्पताल में उसकी देख-भाल की । कई दिन बाद जब वह अस्पताल से घर आई तो मकान मालिक ने उसे घर खाली करने के लिए कह दिया । उसकी जैसी झगड़ालू औरत को अपने यहाँ किराये से रखना किसी खतरे को आमंत्रित करने जैसा था। उसी समय श्यामा ने फैसला किया कि यहाँ से सीधे अपने घर में ही जायेगी , चाहे इसके लिए उसे शेखर के पी. एफ. के सारे रूपये ही क्यों न खर्च करने पड़ जायं। यह भी तो एक गलती ही थी न उसकी।

 उसने एक बार फिर अपनी आँखें पोंछी और कागज पर कुछ लिखने लगी।

"तुम मेरे सपनों की ताबीर हो बेटे!आज जो तुम मुझसे दूर हो गये हो यह मेरी ही भूलों का परिणाम है। मैंने औरत होकर मर्द बनने की कोशिश की, विधवा होने के बाद मुझे घर से कदम नहीं निकालना चाहिए था। तुम्हारे पिता की सारी बचत खर्च करने के बजाय तुम तीनों को सौंप देना था। उस समय तो मैं जवान थी क्या मुझे घर न मिल जाता? जिस छोटी सी नौकरी में मैंने तुम लोगों को इतना ऊँचा उठा दिया कि उस नौकरी से जुड़ी होने के कारण तुम लोगों को मुझे माँ कहते लज्जा आती है, मुझे करनी ही नहीं चाहिए थी, कर भी ली तो इसकी कमाई से तुम लोगों को पालना नहीं चाहिए था तुम लोग भीख मांग के भी तो पल ही जाते , जाको राखे सांइयाँ मारि सके ना कोय , मैने अपनी महत्वाकांक्षा तुम लोगों पर लादी।

 उसी का फल पा रही हूँ, तुम्हें तो याद नहीं होगा बेटा कि मैं तुम्हें देखे बिना रह नहीं सकती थी , जब तुम बाहर चले गये पढ़ने के लिए तब मैने त्यौहारों के दिन उपवास रहने का नियम बना लिया अपने लिए । रोते -रोते आँखें खराब कर ली। क्या पता था कि तुम मेरी मौत की कामना करने लगोगे। तुमने अपनी पसंद से शादी की मुझे बताया तक नहीं, फिर भी मैंने बहू- बेटे का स्वागत किया ,यह मेरी गलती नही ंतो क्या है । आज तुम तीनों को मेरी जरूरत नहीं है फिर भी जिंदा हूँ क्या यह भी उचित है मेरे लिए? अच्छे खासे वेतन के बाद भी मलेच्छ की तरह जीवन काट दिया, मुझसे तुम्हें नफरत होनी ही चाहिए बेटे । तुम पास नहीं हो न इस लिए बेटा कह कर अपनी अहक पूरी कर ले रही हूँ। मेरी और भी जितनी गलतियाँ हों, सबके लिए तुम लोगों से माफी मांगती हूँ । अगले जन्म में मन पसंद माँ चुन कर ही इस दुनिया में कदम रखना


  तुम्हारी ,  श्यामा

                             

उसने पत्र एक लिफाफे में बंद किया । आँखें पोंछीं और दरवाजा बंद करने के लिए निकल ही रही थी कि अम्माँ! अम्माँ की मोटी भद्दी टेर सुनाई दी, तालियों की आवाज से वह समझ गई कि शहर के किन्नर आ गये हैं होली का इनाम लेने । उसने बाहर की बत्ती जलाई और पाँच सौ का एक नोट लेकर बाहर आई । अनजाने में पत्र वाला लिफाफा भी लेती आई नोट देखते ही किन्नर राधा एक हजार की मांग करने लगी।

’’ माँ ! मैं आप की बेटी हूँ न? मुझे एक हजार दे दो! त्यौहार मना लूंगी।’’ वह बेतहासा मटक- मटक कर बातें कर रही थी।

 ’’ चलो रे! माँ के लिए गाना गाते हैं" - उसने अपनी सहेलियों को आमंत्रित किया- और स्वर गूंज उठा-

 मेरी दुनिया है माँ तेरे आंचल में

शीतल छाया है तू

दुख के जंगल में

 मेरी दुनिया हे माँ तेरे आंचल में।’’ उनकी आवाजें फटे बाँस से निकलती जान पड़ रही थीं किंतु भाव! वह अपने आँसू पोछती अंदर गई और पाँच सौ रूप्ये और लाकर राधा के हाथ में रख दिया। साथ ही वह लिफाफा भी, जिसे उसने हाथ में थाम रखा था।

’’ ये क्या है माँ ? समझ गई भइया के लिए कुछ लिखा होगा ,माँ !मोबाइल से बात कर लो! रो क्यों रही हो? भइया लोग नहीं आये इसलिये क्या? हम लोग आयेंगे कल होली खेलने, माँ बस टीका लगा कर पैर पड़ लेंगे माँ! हम जानते हैं आप होली नहीं खेलती , पर अपनी बेटियों के लिए माँ , आप जानती हैं न हमें कोई प्यार नहीं करता इनाम भले ही दे दें , सब हमारा मजाक उड़ाते हैैं माँ, हम ऐसे हैं इसमें हमारा दोष क्या है माँ?"

राधा की बात सुनने के लिए सब चुप हो गये थे ।

’’ आना मत बेटी मैं कल घर में नहीं रहूँगी , एक रिश्तेदार के यहाँ जाना है तुम लोग खेलो! तुम सब बच्चे हो , वे जाने लगीं तब श्यामा ने राधा को बुला लिया- "क्या है माँ?’’ उसने पूछा।

 ’’ मेरा एक काम कर देना, बेटी ये चिट्ठी लाल डिब्बे में डाल देना।’’ उसने राधा को पत्र थमा दिया।

 ’’ अरे माँ ! नाम-पता तो लिखा ही नही, भूल गई न ?’’

’’ भूली नहीं बेटी, बस तू डाल देना, नाम पते की जरूरत नहीं है।’’ उन लोगों की ओर देखे बिना उसने दरवाजा बंद कर दिया।




                                     


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