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गाँव - 1.2

गाँव - 1.2

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और तीखन इल्यिच उसे ज़ादोनक ले गया। मगर रास्ते में सोचता रहा कि वैसे भी ख़ुदा उसे इस बात की सज़ा तो देगा ही कि परेशानी और भागदौड़ के चलते वह सिर्फ ईस्टर के अवसर पर ही गिरजाघर जाता है, और दिमाग़ में भी नापाक ख़याल आते रहे : वह सन्तों के माता-पिता की स्वयम् से तुलना करता रहा, जो लम्बे अर्से तक निःसंतान रहे। यह अकलमन्दी की बात नहीं थी, मगर वह काफ़ी समय से गौर कर रहा था, कि उसके भीतर कोई है – उससे भी ज़्यादा मूर्ख। जाने से पहले उसे अफ़ोन से पत्र मिला : “ख़ुदापरस्त मेहेरबान, तीखन इल्यिच! सुकून और हिफ़ाज़त, सुकून और हिफ़ाज़त, ख़ुदा की दुआएँ और सबकी अजीज़ ख़ुदाई माँ का साया, उनके धरती पर मुकाम, मुबारक पहाड़ अफ़ोन से, आपके सिर पर रहे! आपके नेक कारनामों के बारे में सुना, और यह भी कि आप ख़ुशी-ख़ुशी इबादतगाहों को बनाने और सजाने के लिए, पादरियों के कमरे बनवाने के लिए मदद करते हैं। फ़िलहाल वक्त के थपेडों से मेरी झोंपड़ी ऐसी ख़स्ताहाल कि। । । ” और तीखन इल्यिच ने इस झोंपडी की मरम्मत के लिए लाल नोट भेज दिया। वह ज़माना कब का बीत चुका था जब वह मासूम घमण्ड के साथ विश्वास करता था, कि उसके चर्चे सीधे अफ़ोन तक जा पहुँचे हैं, अच्छी तरह जानता था कि अफ़ोन में कुछ ज़्यादा ही झोपड़ियाँ ख़स्ताहाल हो चुकी हैं, मगर फिर भी भेज ही दिए। मगर इससे भी कुछ फ़ायदा न हुआ, गर्भावस्था पीड़ा के साथ ही समाप्त हुई। अंतिम मृत बालक को जन्म देने से पहले नस्तास्या पित्रोव्ना सोते हुए कँपकँपाती, कराहती, चीख़ती। । । उसके अनुसार एक पल में उस पर नींद में कोई अवर्णनीय, भयमिश्रित ख़ुशी हावी हो जाती : कभी उसे दिखाई देता कि खेतों से होकर उसके पास स्वर्गलोक से रानी आ रही है, सुनहरी पोषाक में दमदम दमकती और कहीं से सुनाई देता पल-पल तेज़ होता हुआ सुरीला गीत; या कभी खटिया के नीचे से अचानक उछलकर शैतान बाहर आता, जिसे अंधेरे में देखना मुश्किल था, मगर जो सिर्फ अंतर्दृष्टि से साफ़ दिखाई देता, जो झनझनाहट के साथ, दुष्टता से लगातार माउथ-ऑर्गन बजाने लगता! उमस में, परों के गद्दे पर सोने से बेहतर होता खुली हवा में, खलिहान की छत के नीचे सोना। मगर नस्तास्या पित्रोव्ना डर जाती,

“कुत्ते आ जाएँगे और सिर सूँघने लगेंगे। । । । ”

जब सन्तान पाने की आशा टूट गई, तो अक्सर दिमाग़ में ख़याल आने लगा, “आख़िर किसके लिए, ये सब यातनाएँ? भाड़ में जाए?” एकाधिकार ने तो ज़ख़्मों पर नमक छिड़क दिया। हाथ थरथराते, भौंहें पीड़ा से हिलतीं और ऊपर उठतीं, होंठ टेढ़ा होने लगा, ख़ासकर यह वाक्य कहते हुए जो ज़ुबान से हटता ही नहीं था, “याद रखना!” पहले ही की तरह वह जवान हो रहा था। फैशनेबुल काफ़ लेदर के जूते और दो पल्ले वाले कोट के नीचे कढ़ा हुआ कुर्ता पहनता। मगर दाढ़ी सफ़ेद होती रही, पतली होती रही, उलझती रही। । ।

और गर्मियाँ तो मानो जानबूझकर गरम और सूखी रहीं। जई की फ़सल तो बरबाद हो गई। और ग्राहकों से शिकायत करने में उसे मज़ा आने लगा।               

 “बन्द कर रहे हैं, बन्द कर रहे हैं,” ख़ुश होकर हर शब्द पर ज़ोर देते हुए कहता तीखन इल्यिच अपने शराब के व्यापार के बारे में। “क्या करें! इज़ारेदारी! वज़ीरे ख़ज़ाना को ख़ुद ही व्यापार करने की सूझी!”

“ओह, देख रही हूँ तुझे!” नस्तास्या पित्रोव्ना कराही। “मुसीबत में पड़ जाओगे। रात को मार के ऐसी जगह फेंक देंगे जहाँ कौआ भी हड्डियाँ नहीं ले जाता। ”

“घबराओ मत,” तीखन इल्यिच भौंहे नचाते हुए टोकता। “नहीं! हरेक का मुँह तो बन्द नहीं कर सकते!”

और फिर से, अधिक कटुता से शब्दों पर ज़ोर देते हुए ग्राहक से मुख़ातिब होता।

“और ज़ई तो बस ख़ुश कर देती है! याद रखना : सबको ख़ुश करती है! रात को तो बस, देखते ही रहो। देहलीज़ पर निकलो, चाँद की रोशनी में खेत को देखो : ऐसे चमकता है, जैसे गंजी खोपड़ी! बाहर निकलो, देखो : सचमुच चमकता है!”

उस साल पित्रोव्का के दिनों में तीखन इल्यिच चार दिनों तक शहर के मेले में रहा और कुछ ज़्यादा ही बेज़ार हो गया – ख़यालों से, गर्मी से, रातों को नींद न आने से। आम तौर से वह मेले में बड़े उत्साह से जाया करता। शाम को गाड़ियों पर तेल लगाया जाता, उसमें फूस भरी जाती, जिस गाड़ी में मालिक अपने बूढ़े कारिंदे के साथ जाता उसमें तकिए और 'चुयका' (घुटनों तक लम्बा कुर्ता – अनु। ) रखा जाता। देर से निकलते और चरमराते हुए, पौ फटने तक चलते रहते। पहले दोस्ताना अन्दाज़ में बातें होतीं, कश लगाए जाते, एक-दूसरे को उन व्यापारियों के बारे में डरावनी कहानियाँ सुनाई जातीं, जिन्हें रास्ते में और रैनबसेरों में मार डाला गया था; फिर तीख़न इल्यिच लेट जाता और इतना प्यारा लगता परिचितों की आवाज़ें सुनना, यह महसूस करना कि गाड़ी कैसे हौले-हौले हिचकोले खा रही है, मानो पहाड़ से नीचे उतर रही हो, तकिए पर गाल घिसट रहा है, टोपी गिर रही है और रात की ताज़गी सिर को ठण्डा किए जा रही है, पौ फटने से पहले ही उठ जाना भी अच्छा लगता, गुलाबी, दूब से नहाई सुबह, भूरी हरी फ़सलों के बीच, दूर तक नज़र दौड़ाकर नीलाभ तलहट में, सफ़ेदी से दमकते शहर को, उसके गिरजों की चमक को देखना, लम्बी सी जम्हाई लेना, दूर से आती घण्टों की आवाज़ सुनकर सलीब का निशान बनाना और रास ले लेना बूढ़े गाड़ीवान से, जो सुबह की ठण्डक में बच्चों जैसा ढीला पड़ जाता, और उषाकाल में खड़िया जैसा प्रतीत होता। । । इस बार तीखन इल्यिच ने कारिन्दे के साथ गाड़ी भेज दी और ख़ुद छोटी दुपहिया गाड़ी में चल पड़ा। रात गरम थी, साफ़ थी, मगर कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था; रास्ते में ही वह थक गया, मेले की, जेलखाने की, अस्पताल की बत्तियाँ, जो शहर आते हुए स्तेपी से दस मील की दूरी से ही दिखाई देतीं, ऐसा लग रहा था, कि उन तक, उन दूरस्थ उनींदी बत्तियों तक वह कभी पहुँच ही न पाएगा। श्चेप्नाया चौक वाली सराय में तो इतनी गर्मी थी, इतनी बुरी तरह से पिस्सू काट रहे थे, दरवाज़े के पास इतनी आवाज़ें हो रही थीं, पथरीले आँगन में आती हुई गाड़ियाँ इतना शोर कर रही थीं और इतनी जल्दी मुर्गे भी बाँग देने लगे, कबूतर गुटुर-गूँ करने लगे, बन्द खिड़कियों के बाहर उजाला हो गया कि उसकी आँख भी न लग पाई। दूसरी रात भी, जो उसने मेले में ही गाड़ी में काटने की कोशिश की, कम ही सो पाया : घोड़े हिनहिना रहे थे, तम्बुओं में मशालें जल रही थीं, आसपास लोग चल-फिर रहे थे और बातें कर रहे थे, और सुबह जब आँखें वैसे ही बन्द होने लगीं तो जेल में और अस्पताल में घण्टे बजने लगे – और सिर के ठीक ऊपर भयानक आवाज़ में गाय रंभा उठी। । । ”यातना!” अक्सर और दिन और रात में हर पल उसके दिमाग़ में यह ख़याल आने लगा।

पूरे एक मील की परिधि में फैला हुआ मेला हमेशा की तरह शोरगुल से भरा, बेतरतीब था। बेहूदा-सा हो-हल्ला, घोड़ों की हिनहिनाहट, बच्चों की सीटियों की लगातार आती आवाज़ें, द्रुतगति से बजते ऑर्केस्ट्रा की धुनों की हुल्लड़बाजी, औरतों और मर्दों का बातूनी हुजूम, सुबह से शाम तक गाड़ियों और तम्बुओं, घोड़ों और गायों, अस्थायी दुकानों और भट्टियों का दमघोंटू, बदबूदार धुआँ छोड़ते होटलों के बीच की धूल और लीदभरी जगह में घूमता रहता या पड़ा रहता। हमेशा की तरह घोड़ों के व्यापारियों की भरमार थी जो बहस और कारोबारी बातचीत को ज़िन्दादिल बना रहे थे। नाक के सुर में गाते अंधों और लाचारों, भिखारियों और अपाहिजों की कभी ख़त्म न होने वाली कतार बैसाखियों और गाड़ियों पर घिसटती जा रही थी; घुँघरू बजाती थानेदार की त्रोयका भीड़ में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, जिसे मखमली वास्कट, मटमैली और मोरपंखों से सजी टोपी पहने कोचवान चला रहा था। । । तीखन इल्यिच के पास ग्राहक बहुत थे। मटमैले रंग के जिप्सी, ढीले ढाले किरमिची चोगे और घिसी हुई एड़ियों वाले जूते पहने पोलैण्ड के यहूदी, धूप में झुलसे, चुन्नटवाले कुर्ते और टोपियाँ पहने छोटे-मोटे ज़मींदार आए, सुन्दर हुस्सार-राजकुमार बख़्तिन अपनी पत्नी के साथ आए जिसने अंग्रेज़ी सूट पहना था; दुबला-पतला सेवस्तोपोल का हीरो ख़्वस्तोव – ऊँचा, हड़ीला, ग़ज़ब के तीखे नाक-नक्श वाले साँवले, झुर्रियोंदार चेहरेवाला, लम्बा फौजी कोट और ढीली-ढाली पतलून, चौड़े पंजों वाले ऊँचे बूट और पीले पट्टे वाला बड़ा सा टोप पहने हुए, जिसके नीचे कनपटियों पर झाँकते, रंगे हुए भूरे बाल सँवारे गए थे। । । घोड़े को निहारते हुए बख़्तिन पीछे की ओर झुकता, चेरी के रंग की पतलून में अपना पाँव नचाता, गलमुच्छों वाली मूँछों में संयत ढंग से मुस्कुराता, ख़्वस्तोव घिसटते हुए घोड़े तक आता, जो उसे अपनी लाल आँख से देख रहा था, इस तरह रुकता मानो गिरनेवाला हो, बैसाखी ऊपर उठाता और उसने दसवीं बार खोखली भावरहित आवाज़ में पूछा :

“क्या लोगे?”

और सभी को जवाब देना ज़रूरी था। और तीखन इल्यिच जवाब देता, मगर ज़बर्दस्ती, जबड़े भींचते हुए, और ऐसी कीमत बताता कि सब पीछे हट जाते। वह धूप से एकदम स्याह पड़ गया, कुम्हला गया और निस्तेज हो गया, धूल में सन गया, मौत जैसी पीड़ा और पूरे शरीर में कमज़ोरी महसूस करने लगा। उसका पेट बिगड़ गया था, इतना कि उसमें ऐंठन होने लगी। अस्पताल जाना पड़ा। मगर वहाँ उसने दो घण्टे तक अपनी बारी का इंतज़ार किया, शोरगुल वाले कॉरीडोर में बैठा रहा, फ़िनाइल की अप्रिय गंध सूँघता रहा। उसे महसूस होने लगा कि वह तीखन इल्यिच नहीं है – और वह मानो मालिक के या किसी अफ़सर के प्रतीक्षा कक्ष में बैठा हो। और जब ताँबे जैसी गंध वाला काला छोटा कोट पहने, लाल चेहरे और साफ़ आँखों वाले, छोटे पादरी जैसे डॉक्टर ने गहरी-गहरी साँस लेते हुए उसके सीने पर अपना ठण्डा कान रखा, तो उसने फ़ौरन कह दिया, कि “पेट एकदम ठीक हो गया है,” और सिर्फ लिहाज़ के मारे कॅस्टर- ऑइल से इनकार नहीं किया और मेले में वापस लौटकर उसने नमक और काली मिर्च के साथ वोद्का का एक गिलास गटक लिया और फिर से सॉसेज के साथ घटिया आटे की डबल रोटी खाने लगा, चाय और बिना उबला पानी, सब्ज़ियों का खट्टा सूप पीने लगा – मगर प्यास फिर भी न बुझा पाया। यार-दोस्तों ने ‘बियर से ताज़ा-तवाना होने के लिए’ बुलाया और वह चला गया। ‘क्वास’ बेचने वाला दहाड़ रहा था;

“ले लो, ले लो, मेरा क्वास, नाक में धूम मचाने वाला! एक कोपेक का है गिलास, बढ़िया नींबू सोडे वाला!”

और वह क्वास वाले को रोक लेता।

“लो S S आइस्क्रीम!” पसीने से तर, गंजा, लाल कमीज़ पहने थुलथुल बूढ़ा आइस्क्रीम वाला पतली आवाज़ में चीख़ रहा था।

और उसने हड्डी की चम्मच से आइस्क्रीम खाई, जिससे कनपटियों में ज़ोर से हथौड़े बजने लगे।



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