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आँच--(अंतिम क़िस्त भाग )

आँच--(अंतिम क़िस्त भाग )

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भाग -- ४ - सियासत


गुरदीप सिंह बाजवा रावलपिंडी के बड़े और कामयाब, नामचीन व्यापारियों में गिने जाते थे. उनकी कपड़ों की दुकान "बाज़वा क्लॉथ स्टोर" पूरे रावलपिंडी शहर में मशहूर थी एक दाम और अपने बेहतरीन क़्वालिटी के सामान के लिए. बाज़वा साहब का अपने सामान को लेकर ऐसा भरोसा और उस से भी बढ़कर ऐसा बर्ताव कि लोग बोलते थे कि "...उनकी दुकान पर चले जाओ तो कुछ खरीद कर ही आओगे, खाली हाथ तो न आ पाओगे,..". उनके दो बच्चे सतविंदर और रीतिन्दर हुए और उन्होंने बड़े मन से और बड़ी निष्ठा से अपने पिताजी का कपड़े का व्यापार संभाल लिया, न सिर्फ संभाल लिया बल्कि उसको बढ़ाने की भी मज़बूत कोशिश की. छोटे बेटे रीतिन्दर का दिमाग लगा कि कपड़े की दुकान तो अच्छी चल रही थी लेकिन उस से होने वाला मुनाफा कहीं और भी लगाया जाये और पूँजी से पूँजी कमाई जाये। ये सोच के रीतिन्दर ने बाज़वा साहब छोले-भठूरे का रेस्टोरेंट खोलने की सलाह दी "सतविंदर पाजी कपड़े वाली दुकान देखेंगे, भठूरे और समोसे वाली मैं चलाऊंगा ". बाज़वा साहब भी व्यापारी ठहरे, पुत्तर की सलाह उनको जँच गयी, और रेस्टोरेंट खोल दिया "बाज़वा के छोले-भठूरे", और ऊपर वाले की मेहर से वो भी ज़बरदस्त चल निकला। बाद में लाहौर के अपने दोस्त गिल साहब की दोनों बेटियों निम्मी और सिम्मी से अपने दोनों बेटों सतविंदर और रीतिन्दर की शादियां हँसी-ख़ुशी कर दीं थीं .

अब तक बयालीस आ चुका था. गाँधी जी ने गर्जना की थी "अंग्रेज़ों भारत छोड़ो,...", जिन्ना साहब ने इसे इस तरह से कहा "अंग्रेज़ों ,भारत को बाँटो और छोड़ो,...". नफरत की लकीरें खींची जा चुकी थीं. लकीर के एक तरफ मुसलमान थे तो दूसरी ओर हिन्दू और खालसा। रावलपिंडी, कराची, लाहौर का माहौल बदलने लगा था और दिल्ली, अमृतसर, हिसार, करनाल, कलकत्ता, ढाका में भी गर्मियां बढ़ने लगीं थीं. बाज़वा साहब आज तक अपने परिवार, अपने व्यापार को लेकर कभी डरे नहीं थे लेकिन अब एक अजीब सा डर उनके मन में रहता था. दिल के किसी कोने में उनको उम्मीद थी कि धीरे-धीरे सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा लेकिन हालात किसी के संभाले नहीं संभल रहे थे और दिन-पर-दिन बिगड़ते ही जा रहे थे, छिटपुट वारदातों की खबरें आ ही रहीं थीं. कभी कोई बड़ी खबर भी आती. कभी मंदिर में गाय कटी मिलती तो कभी मस्जिद में सूअर। खैर, कुछ वक़्त और सही-सलामत बीता। फिर कैबिनेट मिशन आया. हिंदुस्तान के बड़े-बड़े लीडरान की मीटिंगें-दर-मीटिंगें हुईं जो विलायत से और पता नहीं कहाँ-कहाँ से बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर आये थे लेकिन गांव-शहर के सीधे से इन्सानों की सीधी सी बातें नहीं समझ रहे थे. कैबिनेट मिशन के जाते ही इलेक्शन हुए, फिर कॉन्स्टिट्यूशन असेंबली बनी,और बंगाल और पंजाब में दंगे शुरू हो गए. इन्ही दंगे-फसादों के बीच में बाज़वा साहब की दुनियां बिखरने लगी थी, जहाँ दो-बरस पहले ही शहनाईयां बज रहीं थीं. बाज़वा साहब का रेस्टोरेंट और कपड़े की दुकान रावलपिंडी की बड़ी दुकानें थीं, ऐसी नहीं थी कि गली-मोहल्ले की छोटी सी गुमटी हो जिसे कपड़े से ढक कर छुपाया जा सके. कामयाब इंसान के कुछ नक़ाबपोश दुश्मन भी होते ही हैं. रावलपिंडी में दंगे भड़के तो दंगाईयों के सबसे पहले निशाने पर उनके रेस्टोरेंट और घर ही पड़े. उस दिन दोनों ही दुकानें बंद थीं जिस दिन भरी दोपहरी में दंगाइयों ने शटर तोड़कर लूटपाट करके फिर उन्हें फूँक दिया।बाज़वा साहब को शायद इसका अंदाज़ा पहले ही हो गया था, इसलिए दो रातें पहले ही वो अपनी दुकान से ढेर सारे कपड़े, काफी सारे पैसे अपने घर ले आये थे. उस रात उन्होंने और उनकी पत्नी ने सतविंदर ,निम्मी ,रीतिन्दर और सिम्मी को बुलाया और कहा "..देखो पुत्तर जी , हम जो तुम लोगों को बता रहें हैं, उसको ध्यान से सुनों और सीधे मान लेना, कोई बहस मत करना। शहर का माहौल देख ही रहे हो तुम सब......छुपा नहीं है कुछ भी, जो हो रहा है......अगर ये सब ठीक हो गया तो अलग की बात है.......लेकिन अगर ऐसे ही चला तो........दुकानें तो फूँक ही दी हैं उन्होनें,......उनका अगला निशाना हमारा घर और परिवार होगा। देखो बच्चे,......हम तो अपनी ज़िन्दगी जी चुके, सब कुछ हंसी-ख़ुशी देख लिया जिसके लिए इंसान जीता-मरता है.......इतनी उम्र हो गयी हमारी तो.....लेकिन तुम लोग तो अभी बच्चे हो......जुमा-जुमा चार दिन शादी के हुए हैं........बच्चे भी नहीं हैं अभी तुम्हारे,....अभी क्या देखा है तुमने,.......सुनो, अगर कल को घर पर दंगाई हमला करें तो........हमने ढेर सारे कपड़े और काफी सारे रुपये इकट्ठा करके दीवान में रख दिए हैं, तुमने केवल गट्ठर बनाना है और हिंदुस्तान ले जाना है ताकि कल को तुम वहां अपनी नयी ज़िन्दगी शुरू कर सको और तुम लोगों को कम-से-कम तकलीफ हो......पिंडी तो अब बर्बाद हो रहा है पुत्तर जी,.....अब यहाँ कुछ नहीं रखा है....."...इतना बोलते-बोलते बाज़वा दंपत्ति के बुज़ुर्ग और झुर्रियों से भरे मासूम से चेहरों पर आंसू ढलक आये. वो दोनों एक-दूसरे के आँसू पोछने लगे, ये देख कर सतविंदर रो पड़ा और उनके पैरों पर गिरकर बोला ".... आपको छोड़ के कैसे और कहाँ जायेंगे भापा जी?.......". रीतिन्दर रोते हुए बोला "....चाहे कुछ हो जाये भापा जी, आप को छोड़ के नहीं जाना है......मरना हुआ तो आपके ही साथ मरेंगे,....". बाज़वा दंपत्ति ने अपने बच्चों को उठाया और सँभालते हुए बोले ".......ना पुत्तर ना......ज़िद्द ना करते ऐसे. औलाद वो अच्छी होती है जो माँ-बाप का नाम ऊँचा करे ,और इसके वास्ते ज़िंदा रहना ज़रूरी है पुत्तर". इतना बोलकर वो लोग उन चारों को दीवान के पास ले गए. "दीवान खोलो बच्चों" उन्होंने कहा. लेकिन सतविंदर, रीतिन्दर और उनकी पत्नियों ने हाथ भी नहीं लगाया दीवान को. बाज़वा साहब ने खुद रोते हुए दीवान खोली और दोनों बेटों से बोले "कपड़े और पैसे आधे-आधे कर लो". लेकिन चारों बच्चे पत्थर जैसे खड़े थे. बाज़वा साहब और उनकी बीवी ने खुद से ही सामान और पैसे बांटने शुरू किये। ये देख कर चारों का धीरज टूट गया और उन्होंने बाज़वा साहब और उनकी पत्नी को मना करके खुद रोते-रोते गट्ठर बनाने शुरू कर दिए. उस पूरी रात घर में बस मातम हुआ, किसी ने कुछ भी नहीं खाया। रात को ही बाज़वा साहब ने पुरानी पड़ी हुईं तीन बंदूकें और दो तलवारें निकाल ली थीं जिनको रात में ही उन्होंने चलाने लायक बनाया।

अगली सुबह साढ़े सात बजे होंगे। दरवाज़े पर ज़ोर की आहट हुई. पूरे परिवार ने रात से कुछ खाया नहीं था इसलिए नाश्ता जल्दी सुबह ही बना लिया था, फिर ये भी डर था ही की अगर कुछ अनहोनी हुई तो लड़ाई लड़ने के लिए पेट में अनाज होना ज़रूरी है. नाश्ता करके जैसे ही वो उठे, दरवाज़े पर ज़ोर की आवाज़ सुनकर बाज़वा साहब हाथ में तलवार लेकर खोलने गए. दरवाज़ा खोलते ही उनके दोस्त दर्शन सिंह और उनका बेटा किरपाल जो खून से लथपथ थे ,अपना संतुलन खोकर बाजवा जी के ऊपर गिर पड़े. दर्शन ने पूरी ताक़त से चिल्ला कर कहा "...जल्दी चले जाओ आप लोग....वो लोग इधर ही आ रहे हैं..." केवल इतना ही बोल पाए थे दर्शन सिंह। अगले पल उनकी और किरपाल की आँखें खुली हुई लाशें बाजवा साहब की गोद में पड़ी थीं. बाजवा साहब ने फ़ौरन दो बंदूकें और तलवारें अपने दो बेटों को दीं और तुरंत घर के पिछले दरवाज़े से निकल जाने को कहा. सतविंदर रोते हुए बोला "....आप भी चलो". बाजवा साहब डाँट कर बोले "...तू बावला है क्या?.....हम बूढ़े लोग.....भाग नहीं पाएंगे,.....और हमारी वजह से तुम मारे जाओगे। बहस मत करो,....जाओ. मैं उनको यहाँ रोकता हूँ......जल्दी जाओ...". चारों बच्चे न चाहते हुए भी पिछले दरवाज़े से रावलपिंडी स्टेशन के लिए, अपने गट्ठरों के साथ निकल भागे।

किसी तरह वो दिल्ली तक आये और यहाँ शाहदरा के रिफ्यूजी कैंप में उनको थोड़ी जगह मिली। दोनों भाइयों ने कैंप के बाहर कई दिनों तक अपने कुछ कपड़े बेंचे जिस से कुछ दिनों में कुछ पैसे इकट्ठे हो गए. उन पैसों से दोनों भाइयों ने छोले-भठूरे की छोटी सी रेड़ी शुरू की --"बाजवा के छोले-भठूरे". कुछ दिन में अच्छे स्वाद, साफ-सफाई और अच्छे बर्ताव की वजह से धंधा चल निकला। रेड़ी से अब गुमटी बन गयी थी. इसी दरम्यान बँटवारे के दो बरस बाद सतविंदर का एक लड़का दीप और रीतिन्दर का लड़का मनजीत पैदा हुआ. कुछ वक़्त के बाद उन्होंने एक दूसरी गुमटी किराये पर ले ली थी जिसमे बड़े मन से सतविंदर ने "बाजवा क्लॉथ स्टोर" के नाम से कपड़े की दुकान खोली। दीप और मनजीत को भी व्यापार जैसे विरासत में मिला था. वो भी शुरू से ही धंधे में सतविंदर और रीतिंदर का पूरा हाथ बंटाते थे. पिचहत्तर में जब इमरजेंसी लगी तब तक "बाजवा क्लॉथ स्टोर" एक गुमटी से निकलकर बड़ी ,आलीशान और मशहूर दुकान में बदल चुका था, और "बाजवा के छोले-भठूरे" की रेड़ी अब एक शानदार रेस्टोरेंट में बदल गयी थी जिसका स्वाद दूर-दूर तक पहुँच चुका था. सतहत्तर में जब इमरजेंसी हटी तब सतविंदर और रीतिन्दर ने अपने-अपने बेटों की शादियां कर दीं. दीप की पत्नी सुमन हिसार के एक सिख फौजी परिवार से आयी थी जबकि मनजीत की पत्नी सुरजीत चांदनी चौक के एक सिख व्यापारी परिवार से थी. कुल मिलाकर परिवार काफी खुश था अब और अब तो दीप का २ साल का बच्चा प्रीतम और मनजीत की १ साल की बेटी शालिनी भी थी जो पूरे घर में त्यौहार जैसा माहौल बनाये रहते। तीस साल की ये मेहनत से सतविंदर और रीतिंदर ने बड़ा शानदार घर भी बनाया था जिसमे पूरा परिवार रहता था. दोनों आज से तीस साल पहले जब निम्मी और सिम्मी के साथ रावलपिंडी से भाग कर आये थे तब वो पच्चीस-छब्बीस के थे. आज वो ख़ुशी-ख़ुशी साठ की तरफ बढ़ रहे थे. लेकिन आज भी रसोई एक ही थी, लोग चाहे कितने हों, और वक़्त चाहे जो हो.

लेकिन पिछले कुछ दिनों से मुल्क की सियासत एक अलग करवट ले रही थी. जनता पार्टी की सरकार दो साल में ही विदा हो गयी थी और इंदिरा गाँधी ने फिर से गद्दी संभाल ली थी. टी.वी. और अख़बार में अब परेशान करने वाली खबरें पंजाब से आ रहीं थीं. जरनैल सिंह भिंडरावाले जो दमदमी टकसाल का औसत कर्मचारी था, उसका क़द सिखों के रहनुमा के तौर पर काफी बढ़ता जा रहा था. ये सब किया-धरा उस अकेले का ही नहीं बल्कि वो पंजाब में अकाली दल को कमज़ोर करने के पीछे चली गयी कांग्रेस पार्टी की चाल का एक हिस्सा मात्र था जो अब काफी खतरनाक हो चला था .उसकी मांगे कठोर से कठोर होती जा रहीं थीं. १९८१ में लाला जगत नारायण की हत्या के मामले में वो गिरफ्तार भी हो चुका था और १९८२ में वो 'धर्मयुद्ध मोर्चा' भी निकाल चुका था जिसमे काफी बड़ी तादात में लोग जुड़े भी थे. १९८३ में डी.आई.जी. अवतार सिंह अटवाल की दरबार साहिब की सीढ़ियों पर दिन-दहाड़े हत्या कर दी गयी और कोई भी पुलिसवाला दो घंटे तक लाश को हाथ भी न लगा सका ,ये भिंडरावाले की ताक़त को बताने के लिए काफी था. अंततः वही हुआ जिसका डर था. जून,१९८४ में भारत सरकार ने स्वर्ण मंदिर में हिंदुस्तान की हथियारबंद फ़ौज को दाखिल होने का और सभी भिंडरावाले समर्थकों को मारने का हुक्म दिया। इसे 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' कहा गया. इस तरह से फ़ौज का इस्तेमाल तारीख में पहले कभी नहीं किया गया था.

सरकार की इस कार्यवाही से दुनिया भर के सिखों में ज़बरदस्त क्षोभ और आक्रोश फ़ैल गया, और इसकी सबसे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण अभिव्यक्ति देखने को मिली अक्टूबर,१९८४ में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या उन्ही के दो सिख अंगरक्षकों ने कर दी.

रामचरण को अस्पताल में बिस्तर पर अकेले बैठे हुए वो वक़्त याद आ रहा था जब दिल्ली में सिख-विरोधी दंगे भड़के थे. उन दिनों वह शाहदरा के पास वाले गोपालनगर एरिया के थाना इंचार्ज यानि एस.एच.ओ. थे. एम्स से इंदिरा गाँधी की पोस्टमॉर्टेम और मौत की खबर जैसे आग की तरह टी.वी., रेडियो पर फ़ैल गयी थी. ठीक उसी वक़्त एम्स से ही कई हथियारबंद नवयुवक दस्ते निकलते दिखाई दिए थे. ये कौन लोग थे? कहाँ से आये थे? कोई नहीं जानता था, मगर वो चीख रहे थे......चिल्ला रहे थे....."हमारी माँ को मारा,......छोड़ेंगें नहीं उनको,.....एक भी सरदार नहीं बचेगा,....." . उनको कोई डर नहीं था कि लोग उनको नंगे-धारदार हथियार लहराते हुए देख रहे हैं, चिल्लाते हुए सुन रहे हैं. इसी तरह का हाल कमोबेश हिंदुस्तान के कई शहरों भोपाल, कानपुर, अल्मोड़ा,आदि में देखा जा रहा था. और उसके बाद,ठीक अगले ही दिन से सिखों का ऐसा भीषण क़त्ल-ए-आम शुरू हुआ जिसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। इस क़त्ल-ए-आम का सबसे स्पष्ट, चश्मदीद गवाह बना दिल्ली शहर.

दिल्ली के वो इलाके जहाँ सिख तादात ज़्यादा थी, दंगाइयों का पहला शिकार बने. इनमे शाहदरा, त्रिलोकपुरी, सीमा पुरी सबसे मुख्य थे. गोपाल नगर भी इनमे से एक था. यहाँ सिखों के काफी परिवार थे और ज़्यादातर मामूली आमदनी वाले बेहद सामान्य नौकरी-पेशा लोगों के परिवार थे. सीधी सी बात थी, हैवानियत का नंगा नाच करने के लिए इस से बेहतर और कोई जगह नहीं हो सकती थी. दंगाई हाथ में वोटर-लिस्ट, बिजली-पानी के बिल, और खून से सने हथियार लेकर दिन-दहाड़े ,बीच सड़क पर दौड़ रहे थे. चुन-चुन कर सिखों की दुकानें और घरों की निशानदेही की जा रही थी और उनको जलाया जा रहा था. सिख घरों के मर्दों यहाँ तक की छोटे बच्चों को भी नहीं बख्शा जा रहा था. उन्हें घरों से, उनकी पगड़ी उतारकर, बाल और दाढ़ी पकड़कर खींचते हुए सड़क पर लाया जा रहा था और शरीर को सीधे टुकड़ों में काट दिया जा रहा था. कुछ को घरों से निकालकर सड़क पर ही उनके ऊपर मिट्टी का तेल या डीजल डालकर जलाया जा रहा था. उनके घरों की औरतें जो दंगाइयों को 'भैया,.....भैया,.......छोड़ दो इनको,......हमने तो कुछ नहीं किया,......हम तो कांग्रेस को ही हमेशा वोट देते आएं हैं........भैया,.....छोड़ दो इनको,......बच्चे को छोड़ दो भैया,......वो तो अभी कुछ नहीं जानता, अभी तो साल भर का ही है.......उसने क्या किया भैया,....", लेकिन उनकी इस विनती का न कोई फर्क पड़ना था, न ही पड़ा. उनके आगे ही उनके बच्चों, पतियों, भाइयों को क़त्ल किया जा रहा था.

रामचरण तब आराम से गोपालनगर के अपने थाने में ही, अपने साथियों के साथ बैठे टी.वी. देख रहे थे. भारतीय क्रिकेट टीम तब पाकिस्तान के दौरे पर थी. साथ में चाय की चुस्कियां और सॉल्टेड काजू भी चल रहे थे, जो दो दिन पहले ही थाने में भिजवाए गए थे. रामशरण के पास फोन पर फोन आ रहे थे, फोन करने वाला कोई सिख ही होता या होती थी. उनकी अत्यंत कातर स्वर में की गयीं विनती में भी रामचरण को बड़ा मज़ा आता था जबकि सड़क पर हर सेकण्ड इंसानियत शर्मसार हो रही थी और वो "....जी मैडम, हमने नोट कर लिया है......जी बस अभी तुरंत पहुँच रहे हैं....", और फिर से टी.वी. देखने लग जाते। कांस्टेबल ने कुछ कहा तो रामचरण को गुस्सा आ गया ".....क्या बोला तू ?.....होश में तो है?.......उन्होंने प्रधानमंत्री को मार दिया है......इतनी बड़ी हिम्मत दिखाई है साले आतंकवादियों ने......क्या छोड़ दें उनको बिना सज़ा दिए?.......अरे गद्दार हैं सब.......देश में रहना है तो देश का वफादार बन के रहना चाहिए। इसी देश का खाते हैं, पीते हैं, पहनते हैं और इसी देश की देवी दुर्गा की तरह प्रधानमंत्री को मारेंगे?........याद है पाकिस्तान को कैसी औकात बताई थी मिसेस गाँधी ने?.......ऐसी नेता को मारा है सालों ने.......एक भी साला सरदार बचना नहीं चाहिए भगवान कसम........जो इनसे बचा ,उनको तो मैं मारूंगा". इसी समय एक फोन आया, दूसरी तरफ महिला थी जो बेहद घबराई हुई थी और मुश्किल से बोल पा रही थी "...हैलो,....पुलिस स्टेशन,.....जी मैं बाजवा क्लॉथ स्टोर वालों के यहाँ से बोल रही हूँ........जी मेरे ससुर,जेठ "बाजवा के छोले-भठूरे" रेस्टोरेंट में फंस गए हैं...... प्लीज इंस्पेक्टर साहब , हमारी मदद कीजिये,.....रेस्टोरेंट को दंगाइयों ने घेर लिया है......मेरे हस्बैंड भी वहां नहीं जा पा रहे हैं.....प्लीज". रामचरण ने बेफिक्री से जवाब दिया "....मैडम बस अभी पहुँचते हैं", कहकर फोन रख दिया। तीन-चार मिनट बाद फिर से फोन आया, लाइन पर फिर वही आवाज़ थी "....हैलो,.....प्लीज हमारी मदद कीजिये,....रेस्टोरेंट वाला फोन लग नहीं रहा है.....". रामचरण ने रुखाई से जवाब दिया "...मैडम इतने फोन आ रहे हैं, कहाँ-कहाँ पहुंचें?.......बस आ ही रहे हैं". दो-तीन मिनट बाद फिर से फोन आया, फोन उठाते ही रामचरण ने कहा "....अरे आ रहे हैं भाई", इतने में दूसरी तरफ से रौबदार ,कड़क आवाज़ आयी. यह उस इलाके के डी.एस.पी. की थी "....कब से जा रहे हो तुम?......लोग तुमको फोन करने की जगह मुझे फोन कर रहे हैं कि गोपालनगर थाने का फोन पर रटा हुआ जवाब मिल रहा है कि 'आ रहे हैं'....कर क्या रहे हो तुम?......दिल्ली की सड़कों पर आग लगी है और तुम थाने में आराम फरमा रहे हो?". रामचरण ने जल्दबाज़ी में अपनी टोपी लगाते हुए कहा "....नहीं साहब , बस जा ही रहे हैं....", और ये कह कर ज़ोर से अपने स्टाफ से चिल्लाकर बोला जिस से डी.एस.पी. भी सुन ही ले ".....गाड़ी निकालो,....जल्दी करो.....बाजवा क्लॉथ स्टोर की तरफ चलो..... जल्दी".

दो-एक दिन बाद रामचरण अस्पताल से घर आ गये. अस्पताल से आते वक़्त सुरजीत से मिलने की कोशिश की लेकिन उस वक़्त वो सो रहीं थीं.


भाग--५ - आंच


सुरजीत घर पर अपने बिस्तर पर रात का खाना खाकर लेटी हुई थी लेकिन उसकी आँखों की नींद गायब थी. आज इतने दिनों के बाद, पूरे पच्चीस-छब्बीस बरसों बाद फिर से उसके पुराने ज़ख्म हरे हो गए थे, जो उसने इतने दिनों से दबाकर रखे हुए थे. उस दिन उसने गोपालनगर और शाहदरा थाने न जाने कितने ही फोन किये होंगे, लेकिन हर बार वही जवाब मिला "...आ रहे हैं मैडम", और थाने से कोई टीम नहीं आ रही थी. रीतिन्दर, और दीप रेस्टोरेंट में ही थे जब दंगाइयों की बड़ी भीड़ ने रेस्टोरेंट को घेर लिया था. उन्होंने भी शाहदरा और गोपालनगर थाने फोन लगाया लेकिन लगा नहीं। सुरजीत घर से भी रेस्टोरेंट में बराबर फोन लगा रही थी लेकिन एक-दो बार बात होने के बाद कुछ देर से रेस्टोरेंट के फोन पर भी घंटी नहीं जा रही थी. सतविंदर बँटवारे के वक़्त ये सब देख चुके थे, वो कपड़े वाली दुकान की तरफ निकल गए जिस से ढेर सारे कपड़े और पैसे उसी तरह ला सकें जैसे कभी रावलपिंडी में गुरप्रीत बाजवा ले आये थे. घर पर केवल मनजीत थे और घर की औरतें और दो छोटे बच्चे--६ बरस का प्रीतम और ५ साल शालिनी।

कहीं संपर्क न हो पाने की हालत में सुरजीत भागती हुई अपने पड़ोसी मिश्रा जी के घर पहुँची, और ज़ोर से दरवाज़ा पीटने लगीं "मिश्रा जी......सुन लो मिश्रा जी......जल्दी दरवाज़ा खोलो,..". हैरान मिश्रा जी ने अपनी पत्नी के साथ दरवाज़ा खोला तो हाथ जोड़े, रोती हुई सुरजीत खड़ी थीं. "अरे भाभी जी......क्या हुआ?.....अंदर तो आइये,...",मिश्रा जी बोले, लेकिन सुरजीत बहुत परेशान थीं. उन्होंने हाँफते हुए कहा "भाई साहब,....जल्दी कीजिये,...बड़े ससुर जी और जेठ जी रेस्टोरेंट में हैं.....और कोई फोन भी नहीं लग रहा उनका,.....कुछ पता नहीं चल रहा है,......पुलिस का भी कुछ नहीं,....यहाँ हालत बहुत ख़राब लग रहे हैं......छोटे ससुर जी कपड़े वाली दुकान की तरफ गए हैं.......भाई साहब,.....आप प्लीज बड़े ससुर जी और जेठ जी को रेस्टोरेंट से किसी तरह निकाल लाईये,.....मैं आपके पैर पड़ती हूँ...". मिश्रा जी की पत्नी ने कहा "...आप चिंता मत कीजिये भाभी जी.....ये अभी रोहन के साथ जायेंगे और अंकल जी और दीप भाई साहब को ले आएंगे", मिश्रा जी ने तुरंत अपनी कमीज़ बदलते हुए रोहन को आवाज़ लगायी "....ओ रोहन बेटा,.... ओ जल्दी स्कूटर निकाल और अंकल जी के रेस्टोरेंट की तरफ निकल,....जल्दी कर",कुछ ही मिनटों में रोहन, मिश्रा जी को लेकर निकल गया. उनकी पत्नी ने सुरजीत से कहा "...भाभी जी, आप शालिनी और प्रीतम को हमारे घर छोड़ दीजिये", लेकिन सुरजीत बोलीं "...नहीं भाभी जी...आपको खतरे में और नहीं डालेंगें,....भाई साहब और रोहन पहले ही गए हुए हैं", ये बोल के सुरजीत चली गयीं।

रोहन और मिश्रा जी रेस्टोरेंट पहुँचे तो नज़ारा देख कर दहल गए. कुछ कुत्ते और कौवे वहां घूम रहे थे. पूरा रेस्टोरेंट जो कभी शाहदरा की शान था, जल कर बिलकुल राख हुआ पड़ा था. खाने-पीने की चीजें, यहाँ-वहां बिखरी पड़ीं थीं. कीमती कुर्सियां और मेजें, जली-अधजली पड़ीं थीं. बदबू ऐसी उठ रही थी कि पता नहीं कौन सा गोश्त पकाया है. मुँह पर रुमाल रख के बाप-बेटे रेस्टोरेंट में दाख़िल हुए. रोहन के पैर से अचानक कुछ टकराया, वो डर से चिल्ला उठा "पापा!!!!", और मिश्राजी से लिपट गया. जो उसने देखा शायद वो देखने की हिम्मत उसमें नहीं थी. मिश्राजी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और नीचे झुक कर देखने लगे. आधे जले हुए,खून से लथपथ दो इंसानी शरीर थे जिन्हे बुरी तरह काटने-फाड़ने के बाद मिट्टी का तेल छिड़क कर जलाने की कोशिश की गयी थी. एक शरीर में तो कोई हरकत नहीं थी लेकिन दूसरा इंसान बहुत धीरे कराह रहा था. मिश्राजी ने ध्यान से देखा ,वो दीप था,और उसके बगल रीतिन्दर की काली पड़ चुकी लाश थी. मिश्रा जी ने रोहन की मदद से किसी तरह उन दोनों को स्कूटर पर सीधा खड़ा किया और जल्दी से उनको लेकर बाज़वा परिवार के घर पहुँचे। दीप ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया था. मिश्राजी और रोहन जैसे ही दोनों लाशें लेकर घर में अंदर आये, मानो कोहराम मच गया. दीप को देख कर सुमन तो बेहोश हो गयी, और निम्मी और सिम्मी छाती पीट कर रोने लगीं। मिश्रा परिवार ने उनको सँभालने की कोशिश की लेकिन ये हालात किसी के भी काबू के बाहर थे. मनजीत ने मिश्रा जी के परिवार से रोते हुए कहा "...आप लोग तुरंत यहाँ से चले जाइये,....हमारी वजह से आपके घर-परिवार पर भी मुसीबत आ सकती है.......हमारा तो सब ख़त्म हो गया,.....आप यहाँ बिलकुल मत रुकिए,...", ये बोलकर किसी तरह मनजीत उनको वहां से जाने के लिए कह रहा था लेकिन मिश्राजी का परिवार वहां से हटने को तैयार नहीं था. सुरजीत ने रोते हुए कहा "...भाभीजी , हमसे पाप मत करवाइये,.....आप प्लीज़ भाई साहब और रोहन को लेकर जाइये". किसी तरह मनजीत-सुरजीत ने उन्हें वापस भेजा।

घर में चीख-पुकार मची थी. दो छोटे बच्चे भी थे जिनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. इतने में दरवाज़े पर आहट हुई "...पुलिस". मनजीत ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला तो देखा सामने पुलिस टीम खड़ी है जिसमे एक दरोगा और कुछ कॉन्स्टेबल्स थे. वो धीरे-धीरे अंदर आ रहे थे और साथ में एक खून से सनी लाश भी उठा ला रहे थे. मनजीत लाश को देखकर ज़ोर से चिल्ला पड़ा "...ताया जी!!!!". लाश सतविंदर की थी जो पुलिस के मुताबिक़ उनको सड़क पर पड़ी मिली। सीने पर बड़ी नज़दीक से दागी हुई दो गोलियों के साफ निशान थे. सतविंदर की पत्नी निम्मी दिल की मरीज़ थीं, जिनका इलाज हो रहा था, अपने पति और देवर, जिनके साथ वो कभी जान बचाते हुए हिंदुस्तान आयी थी, की लाश देखकर उनको बहुत तगड़ा दिल का दौरा पड़ा और उनके प्राण-पखेरू तो वहीँ उड़ गए. दरवाज़ा और बाहर वाला गेट अभी खुला ही हुआ था. दरोगा मनजीत से सवाल-जवाब कर ही रहा था कि इतने में दंगाई "..इंदिरा गांधी अमर रहे...", "धर्म की विजय हो, अधर्म का नाश हो...","हर हर महादेव,...","जय भवानी" के नारे लगाते हुए खून से सने नंगे हथियार लेकर घर में घुस आये. पुलिस की जीप बाहर खड़ी है, ये देख कर भी उनको रत्ती भर डर नहीं लगा. अचानक ये देख कर शालिनी डर गयी और सुरजीत की गोद में जा छुपी। सबसे पहले उन दरिंदों के सामने मनजीत ही पड़ा जिसका सिर एक दंगाई ने सुरजीत और शालिनी के सामने ही धड़ से अलग कर दिया। दो लोगों ने निम्मी और सिम्मी के बूढ़े, जर्जर शरीरों में तलवारें उतार दीं. सुमन बेहोश पड़ी हुई थी, उसके भी शरीर में एक दंगाई ने तीन गोलियां दागीं जो उस फौजी परिवार की बेटी थी जिन्होंने पैंसठ और इकहत्तर की लड़ाईयों में हिंदुस्तान के लिए अपना खून बहाया था। एक दंगाई दौड़ कर ६ साल के प्रीतम की तरफ लपका और रोते हुए बच्चे का गला पकड़कर गालियां देते हुए उसकी कनपटी से बिलकुल सटाकर पिस्तौल चलायी। बेचारे प्रीतम का शरीर दूर दीवार पर जा लगा और उसका भेजा सिर से निकलकर दूर छिटक गया. भेजे का एक छोटा लोथड़ा सुरजीत के गाल पर भी लगा जो शालिनी को आँचल में कस कर दबाये, आँखों को भींचे बैठी थी,शायद इस डर से कि तलवार का कोई वार या बंदूक की कोई गोली उस पर भी बरस जाये।शायद उसका बढ़ा हुआ पेट देखकर किसी को कुछ दया आ गयी हो कोई भूल गया हो, उस पर कोई प्रहार नहीं हुआ. क़त्ल-ओ-गारद के बाद लूटपाट का दौर शुरू हुआ और जितनी बुरी तरह किसी अच्छे घर को लूटा जा सकता था वो लूटपाट चल रही थी. हैरानी की बात ये थी कि ये हैवानियत जारी थी और पुलिस टीम बिलकुल बेफिक्री से तमाशा देख रही थी.

थोड़ी देर बाद ये तांडव ख़त्म हुआ और जितना लूटते बन सकता था, उतना सामान और पैसे लूटकर दंगाई चले गए. फिर दरोगा ने सुरजीत की बांह पकड़कर ऊपर उठाया जिसके आगे उसके अपने लोगों की आठ-आठ लाशें पड़ी थीं, जिसमे उसके पति की भी लाश थी, और ताना देते हुए कहा "....सब तो गए, घर भी गया......किसके लिए जियेगी अब?". सुरजीत की केवल सिसकियाँ ही सुनाई दे रहीं थीं. दरोगा ने व्यंग्य से हँसते हुए कहा "....थोड़ा हमारे लिए भी जी ले.....दस-पंद्रह मिनट की बात है, वो बगल वाला कमरा तो खाली है ना ?......कितनों का ख्याल रखती थी घर में तू, अब तेरे घर आये हैं हम, थोड़ी हमारी भी खातिर कर दे...", दरोगा के साथ जो कॉन्स्टेबल्स थे, डरी-सहमी सुरजीत और शालिनी को देखकर बेशर्मों की तरह हँस रहे थे. दरोगा ने अपने कांस्टेबल आवाज़ लगायी "...ओये के.के.,.....लड़की को संभाल भाई....कबाब में हड्डी नहीं चाहिए मुझे". कांस्टेबल कृष्ण कांत ने लपक कर शालिनी को माँ से अलग किया और ५ साल की छोटी सी बच्ची की गर्दन पर तेज़ चाकू रख दिया, जो वैसे भी कुछ नहीं कर सकती थी और माँ के साथ बस रोये जा रही थी.। दरोगा ने सुरजीत को कमरे की ओर धकेला। सुरजीत हाथ जोड़कर रोते हुए बोली "इंस्पेक्टर साहब, थोड़ा तो लिहाज़ करो.....आप पुलिस में हो......आप का काम तो लोगों की हिफाज़त करने का है ना....रब दी सौ, मेरा पाँचवाँ महीना चल रहा है.....ये सितम न करो......तुम्हे तुम्हारे भगवान का वास्ता,.....मैं पैर पड़ जाऊं तुम्हारे". दरोगा हँसते हुए बोला "...तू मुझे मेरा काम मत सिखा,....और पाँचवाँ महीना,....इतनी बड़ी भी क्या बात है?". दरोगा ने अब सुरजीत के बाल पकड़े और खींच कर कमरे में ले गया, बेचारी सुरजीत की कितनी सारी मिन्नतों का उस वहशी दरिंदे पर थोड़ा भी असर न हुआ. कमरे के अंदर भी सुरजीत को उसने चार-पांच ज़ोरदार थप्पड़ जड़े. कुछ मिनटों के बाद कमरे के बंद दरवाज़े के बाहर सुरजीत के रोने और चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं. बाहर ही कृष्णकांत बच्ची की गर्दन पर चाकू सहला रहा था. उसने बेशर्मी से हँसते हुए रोती हुई बच्ची से पूछा "...तुझे पता है अंदर क्या हो रहा है?....ये आवाज़ें क्यों आ रही हैं?", बच्ची रो ही रही थी, क्या बोलती वो. बाकी के साथ वाले कॉन्स्टेबल्स राक्षसों जैसे हंस रहे थे.

थोड़ी देर बाद दरोगा साहब अपने कपड़े वगैर ठीक करते, बाहर निकलते हुए कांस्टेबल कृष्णकांत से हँसते हुए बाहर आये ... और फिर थोड़ी देर बाकी बची लूटपाट पुलिस के उन लोगों ने की और फिर अपनी जीप पर बैठ कर निकल गए.

डरी, सहमी, रोती हुई बेचारी शालिनी उस कमरे में दाखिल हुई जहाँ बिस्तर पर दर्द से कराहती सुरजीत बेहोशी की हालत में पड़ी थी. उसके गालों पर थप्पड़ के लाल निशानों की सूजन थी, कपड़े जहाँ-तहाँ फटे हुए थी और वो बड़ी धीरे धीरे से केवल "पानी....पानी...." कह पा रही थी. शालिनी को कुछ समझ नहीं आ रहा था. कुछ भी समझने के लिए अभी वो बहुत छोटी थी. शालिनी दौड़ कर रसोई से एक गिलास में पानी और एक बिस्किट ले आयी. उसको बताया गया था कि किसी को भी केवल सादा पानी नहीं दिया करते, साथ में कुछ खाने को भी देते हैं. "मम्मी ,.....ये पानी", रोते हुए उस बच्ची ने पानी का गिलास आगे बढ़ाया। सुरजीत अभी भी उठी नहीं। ५ साल की उस बच्ची ने फिर अपनी हिम्मत से माँ के सिर के नीचे हाथ लगाकर उसे उठाकर बैठाने की कोशिश की. सुरजीत ने भी हिम्मत की और उठ के अपना पेट पकड़कर और आँखें बंद करके बैठ गयी. वो दर्द से बुरी तरह कराह रही थी. बेटी सामने खड़ी थी शालिनी ने फिर गिलास और बिस्किट आगे किया। सुरजीत ने बिस्किट खाकर पानी पिया। बड़ी मुश्किल से वो बिस्तर से उठी और लंगड़ाते हुए बाहर वाले कमरे की तरफ बढ़ी जहाँ आठ-आठ लाशें पड़ी थीं. शालिनी उसके पीछे थी. लाशों के पास पहुंचकर वो ज़मीन पर बैठ गयी और फिर से रोने लगी. सबसे बड़ी समस्या इन लाशों के अंतिम संस्कार की थी. सभी गुरुद्वारे दंगाइयों के सबसे पहले निशाने पर थे, सो वे भी ज़्यादा मदद नहीं कर सकते थे. इतने में मिश्राजी का परिवार फिर से आ गया. कमरे का हाल देखकर वो दंग रह गए. पूरा फर्श खून से नहाया हुआ था और उसमे आठ लाशें। मिश्राजी की पत्नी सुरजीत के पास आयी और रोते हुए बोली "...भाभी जी,....चुप हो जाओ.....किस्मत ऐसे भी दिन दिखाती है कभी-कभी.....छोटी बच्ची है आपकी,....नया मेहमान भी आ जायेगा,.....उम्मीद और हौसला मत छोड़ो भाभीजी। जो गए वो तो नहीं आने, मगर जो हैं, जिनको आना है, उनके लिए हिम्मत रखो भाभीजी". ख़ैर किसी तरह पड़ोसियों की मदद से उन सभी का अंतिम संस्कार पूरा हुआ.

सुरजीत ने फिर बचे-खुचे पैसे और गहने और कुछ कपड़े लेकर गोपालनगर छोड़ दिया और शालिनी के साथ राजानगर कैंप में चली गयी जहाँ उनके जैसे सैकड़ों परिवार जमा हो गए थे. उन्होंने अपने ही मुल्क में खुद को रिफ्यूजी दर्ज कराया,और फिर हर रोज़ ज़िंदा रहने, खाने-पीने की जद्दोजहद शुरू हुई. कुछ वक़्त बाद गर्भ भी आठ महीने का हो गया था लेकिन सुरजीत को काम करने से कोई नहीं रोक सकता था. कैंप की दूसरी महिलाएं सुरजीत का भरपूर ख्याल रखतीं और नन्ही सी शालिनी अपनी तरफ से पूरी कोशिश करती की माँ को उठना न पड़े ,फिर भी सुरजीत चैन से नहीं बैठती थी और अपने लिए काम खोज ही लेती थीं. इन्ही हालात में रुपिंदर पैदा हुआ था. उस दिन वहां ७-८ औरतों ने मिलकर इस ख़ुशी के मौके पर खीर बनायीं थी. जब एक-डेढ़ माह बाद सुरजीत की तबियत ठीक हो गयी, तो सुरजीत ने रिफ्यूजी कैंप के बगल ही कुछ छिटपुट गहने बेचकर एक रेड़ी लगानी शुरू की जिस से कुछ पैसे भी कमाए जा सकें। रखा पैसा ज़्यादा दिन नहीं चलता। रेड़ी का नाम-- बाज़वा के छोले-भठूरे।

शालिनी और सुरजीत ने अब रेड़ी पर दिन-रात मेहनत शुरू की. सुरजीत शालिनी को सुबह ४ घंटे के लिए पास वाले स्कूल, जो सरकार ने शरणार्थियों के बच्चों के लिए अस्थायी तौर पर शुरू किये थे, ज़रूर भेजती थी. स्कूल से आने के बाद ही शालिनी को रेड़ी पर जाने की इजाज़त थी. इसी तरह गुजारा करते हुए कई महीने बीत गए और जब रेड़ी पर से अच्छे पैसे इकट्ठे हो गए तब सुरजीत और शालिनी ने कैंप छोड़ दिया। वहां से कुछ दूर करोलबाग़ में उन्होंने किराये पर एक कमरे का फ्लैट लिया और अपनी रेड़ी का काम वहां शुरू किया। रुपिंदर जब बड़ा हुआ तो उसने भी सुरजीत और शालिनी की पूरी मदद करनी शुरू कर दी. लेकिन सुरजीत इस बात का बराबर ख्याल रखती थी की पैसों के पीछे बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो. उसके मकान मालिक भी अच्छे थे और बेवजह महीने की पहली तारीख को किराये के लिए परेशान नहीं करते थे.

रुपिंदर पढ़ने में बहुत अच्छा निकला, और अपनी काफी पढ़ाई सरकारी वजीफे से की थी क्योंकि परीक्षाओं में उसके बड़े अच्छे नंबर आते थे और स्कूल में अध्यापक भी उस से काफी खुश रहते थे. वो बारहवीं में बड़े अच्छे नंबरों से पास हुआ था जिसके कारण उसको दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज के इकोनॉमिक्स विषय में दाखिला मिल गया था. बीते पंद्रह बरसों में "बाजवा के छोले-भठूरे" की वो रेड़ी एक छोटे से रेस्टोरेंट में तब्दील हो गयी थी जो सुरजीत दो कमरों को किराये पर लेकर चला रहीं थीं, एक हिस्से में छोले-भठूरे, चावल और समोसे बनते थे ,दूसरे हिस्से में कुछ कुर्सी-मेजें लगीं थीं. इस परिवार का एक कमरे का फ्लैट भी अब तीन कमरों का हो गया था. लगभग इसी साल दिल्ली में मेट्रो ट्रैन भी शुरू हुई थी. इस प्रोजेक्ट में सुरजीत का रेस्टोरेंट भी आ रहा था. सरकार ने रेस्टोरेंट के बदले काफी ज़्यादा कीमत ऑफर की जिसे सुरजीत ने मान लिया। मेट्रो से मिले पैसों से सुरजीत ने एक बिलकुल नया, पिछले से काफी बेहतर रेस्टोरेंट खोला जिसका नाम वो वही पुराना रखना चाह रहीं थी लेकिन रुपिंदर ने नया नाम सुझाया "बाजवा दी हट्टी" और समोसा केवल शाम को करके, राजमा-चावल भी शुरू करने को बोला जिस से दिन भर रेस्टोरेंट में ग्राहक बने रहें। माँ बहन ने उसकी बात मान ली और रेस्टोरेंट की आमदनी जल्दी ही और भी ज़्यादा बढ़ कर आने लगी. सुरजीत ने दिल्ली मेट्रो से ज़मीन के अधिग्रहण के बदले मिला सर्टिफिकेट शीशे के फ्रेम में मढ़वाकर दुकान की दीवार पर लगाया था जिसके नीचे लिखा था-- "दिल्ली मेट्रो,.....आपका लख लख शुक्रिया,.....खूब आगे बढ़ो". सुरजीत के यहाँ केवल करोलबाग़ मेट्रो स्टेशन के स्टाफ को ही उधार का खाता चलाने की छूट थी. स्टाफ भी "बाजवा दी हट्टी" के होते हुए किसी भी समय अच्छे-स्वादिष्ट खाना मिलता था


भाग--६ - सामना


उस दिन डी.एस.पी. साहब के धमकी भरे फोन के तुरंत बाद रामचरण अपनी टीम के साथ नीले रंग की जीप से दिखावटी गश्त पर निकल गए. रास्ते में टीम को समझा रहे थे "..ये डी.एस.पी. साहब भी.....सबसे बनाकर नहीं रहते हैं.....और झेलना हमें पड़ता है. अब ये तो आज, कल या परसों तबादला होकर चले जायेंगे,....और यहाँ एम.पी., कौंसिलर की डाँट सुनेंगे हम कि तुम हमारा कहा नहीं सुनते,....हम तुम्हारे फायदा क्यों करवाएं?.....जबकि मैंने बोला था इनको कि एम.पी., कौंसिलर को खुश रखा कीजिये,.....ये ऊपर आपका भी फायदा करवायेंगें पोस्टिंग-प्रमोशन और कमाई में भी.......लेकिन ये गाँठ के पूरे हैं बिलकुल,...". इतने में उनको ८-१० हथियार बंद लोगों की भीड़ दिखी जो एक बुज़ुर्ग सरदार को जानवरों की तरह पीट रही थी. जीप रुकवाकर वो नीचे उतरे और भीड़ के बीच में आकर सबको वहां से हटाया। बेचारा बूढ़ा सरदार के शरीर पर बड़े घाव थे और खून निकल रहा था. उसका स्कूटर बगल में बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ पड़ा था. रामचरण ने सरदार को गले लगाकर पूछा "क्या सरदार जी.....इनके हत्थे कैसे लगे तुम?", सरदार ने किसी तरह साँस लेकर जवाब दिया "....इंस्पेक्टर साहब,....यहीं पास में दुकान है मेरी,.....मैं दुकान से कुछ कपड़े और पैसे लेने आया था,....इन लोगों ने वापिस लौटते वक़्त मुझे रास्ते में पकड़ लिया, बोल रहे कि.....हमारी माँ को मारा है तुमने,....छोड़ेंगे नहीं तुमको,.....जबकि इंस्पेक्टर साहब, हम तो जनम से कांग्रेसी हैं, कांग्रेस ने ही हमें और हमारे परिवारों को बंटवारे के बाद रहने-खाने का आसरा दिया,....अब कुछ सिरफिरे लोगों ने ये कांड कर दिया,.... बताओ,...हमारी क्या गलती?......मेरे कपड़े और पैसे भी छीन लिए इन्होने,.....इतनी बुरी तरह मारा है....", ये कहकर बूढ़ा सरदार रोने लगा. इंस्पेक्टर रामचरण ने पूछा -- "क्या नाम है आपका?

"जी.....सतविंदर सिंह बाजवा"

"दुकान कहाँ है आपकी ?"

"...जी यहीं,.....पास में ही....बाजवा क्लॉथ स्टोर".

रामचरण ने ज़ोर से कहा "...बाजवा क्लॉथ स्टोर".

"घर कहाँ है आपका सरदार जी?"

"जी....यहीं,....आगे वाली रेड लाइट से दाहिने,.....बायीं तरफ दूसरा कट....तीसरा मकान".

रामचरण फिर ज़ोर से बोले "...आगे वाली रेड लाइट से दाहिने,.....बायीं तरफ दूसरा कट....तीसरा मकान".

फिर रामचरण ने झटके से सतविंदर को धक्का देकर ज़मीन पर गिरा दिया। सतविंदर हतप्रभ रह गए. कुछ देर के लिए तो उनको कुछ समझ नहीं आया. तब रामचरण अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाली और उनके पास जा कर बोले "....हमनें तुमको जगह दी....खाना दिया,.....और बताओ,....तुमने क्या किया?", ये बोलकर उन्होंने बिलकुल पास से सतविंदर की छाती पर एक के बाद एक दो गोलियां दागीं। बेचारे बूढ़े सतविंदर वहीँ ढेर हो गए. रामचरण ने दंगाइयों से कहा "अभी दुकान पर जाओ.....कुछ देर बाद घर आना".

सतविंदर की लाश लेकर रामचरण उनके घर पहुंचे जहाँ पहले से ही दो लाशें पड़ीं हुईं थीं और घर की औरतों की चीख-पुकार मची हुई थी जिसे देखकर और सुनकर रोंगटे खड़े हो रहे थे. रामचरण मनजीत से कुछ सवाल-जवाब कर रहे थे कि तभी १५-२० दंगाईयों की भीड़ "..इंदिरा गांधी अमर रहे...", "धर्म की विजय हो, अधर्म का नाश हो...","हर हर महादेव,...","जय भवानी" के नारे लगाते हुए खून से सने नंगे हथियार लेकर घर में घुस आयी. एक-एक करके क्या मर्द, क्या औरत, क्या बच्चे , सभी को मौत के घाट उतार दिया। रामचरण की पुलिस टीम होते हुए भी नहीं के ही बराबर थी और आराम से खड़ी होकर तमाशा देख रही थी. किसी तरह ५ साल की एक बच्ची और उसकी माँ बच गयी थी. दंगाई जब मारकाट और लूटपाट करके चले गए तब रामचरण ने उस बच्ची की माँ को बांह पकड़कर ऊपर उठाया जिसके आगे उसके अपने लोगों की आठ-आठ लाशें पड़ी थीं, जिसमे उसके पति की भी लाश थी, और ताना देते हुए कहा ".....तो तू ही कर रही थी न फोन गोपालनगर थाने पर बार-बार?....सब तो गए, घर भी गया......किसके लिए जियेगी अब?". उस महिला की केवल सिसकियाँ ही सुनाई दे रहीं थीं. रामचरण ने व्यंग्य से हँसते हुए कहा "....ले हम आ गए हैं अब......थोड़ा हमारे लिए भी जी ले..... दस-पंद्रह मिनट की बात है, वो बगल वाला कमरा तो खाली है ना ?......कितनों का ख्याल रखती थी घर में तू, अब तेरे घर आये हैं हम, थोड़ी हमारी भी खातिर कर दे...", साथ जो कॉन्स्टेबल्स थे, डरी-सहमी महिला और बच्ची को देखकर बेशर्मों की तरह हँस रहे थे. रामचरण ने अपने कांस्टेबल को आवाज़ लगायी "...ओये के.के.,.....लड़की को संभाल भाई....कबाब में हड्डी नहीं चाहिए मुझे". कांस्टेबल कृष्ण कांत ने लपक कर बच्ची को माँ से अलग किया और ५ साल की छोटी सी बच्ची की गर्दन पर तेज़ चाकू रख दिया, जो वैसे भी कुछ नहीं कर सकती थी और माँ के साथ बस रोये जा रही थी.। रामचरण ने उस औरत को कमरे की ओर धकेला। वो हाथ जोड़कर रोते हुए बोली "इंस्पेक्टर साहब, थोड़ा तो लिहाज़ करो.....आप पुलिस में हो......आप का काम तो लोगों की हिफाज़त करने का है ना....रब दी सौ, मेरा पाँचवाँ महीना चल रहा है.....ये सितम न करो......तुम्हे तुम्हारे भगवान का वास्ता,.....मैं पैर पड़ जाऊं तुम्हारे". रामचरण हँसते हुए बोला "...तू मुझे मेरा काम मत सिखा,....और पाँचवाँ महीना,....इतनी बड़ी भी क्या बात है?". रामचरण ने अब उस के बाल पकड़े और खींच कर कमरे में ले गया, बेचारी औरत की कितनी सारी मिन्नतों का उस वहशी दरिंदे पर थोड़ा भी असर न हुआ. कमरे के अंदर भी उसने उसको चार-पांच ज़ोरदार थप्पड़ जड़े और बिस्तर पर कपड़े के किसी बेजान गट्ठर की तरह उसे फेंक दिया। क्या विचित्र संयोग था!!....मथुरा नगरी का मिश्रा ब्राह्मण रामचरण जिसकी पतिव्रता स्त्री का नाम जानकी था, आज एक दूसरी गर्भवती महिला के ऊपर अपनी ताक़त दिखा रहा था और कांस्टेबल कृष्णकांत को ५ साल की अबला बच्ची के लिए पहरे पर बिठा रखा था. शायद आज भगवान राम, देवी सीता और भगवान श्रीकृष्ण को स्वर्ग से आ कर ये देखना चाहिए था.

थोड़ी देर बाद रामचरण अपने कपड़े वगैरह ठीक करते, बाहर निकलते हुए कांस्टेबल कृष्णकांत से हँसते हुए बोले "...ओ के.के.!...रोज़-रोज़ मरियल सी दाल-चावल-रोटी तो खाते ही रहता है.....जा आज ज़रा पंजाबी बटर चिकेन की थाली का स्वाद ले आ.....कसम से......बहुत मज़ा आएगा". के.के. थोड़ा शरमाते हुए बोला "...नहीं साहब,...जाने दो", इस पर सभी ज़ोर का ठहाका लगाकर हंस दिए. रामचरण मुस्कुराते हुए बोला "...अरे डरता है क्या?.....जा पंजाबी डिश खा ले आज मुफ्त में......रोज़-रोज़ कहाँ मौका आएगा?.....मैं हूँ यहीं पर, तू जा अंदर,...". कृष्णकांत हँस के बोला "छोड़ो साहब,....आप भी एवें ही.....". और फिर थोड़ी देर बाकी बची लूटपाट पुलिस के उन लोगों ने की और फिर अपनी जीप पर बैठ कर निकल गए.

आज रामचरण अपने कमरे में बैठे उस दिन को याद करके रो रहे थे. सगाई के दिन जिस महिला सुरजीत और जिस लड़की शालिनी से उनका आमना-सामना हुआ था वो वही महिला और उसकी बच्ची थी जो आज से २५ बरस पहले रामचरण की हैवानियत का शिकार बनीं थीं. रुपिंदर इसी सुरजीत का बेटा था जिस पर रामचरण की बेटी रूही जान छिड़कती थी. रोज़ रात के खाने के बाद रामचरण का परिवार उनके कमरे में बैठता और दिन भर की बातों पर, रिश्तेदारों पर दुनिया भर की गप्प होती, फिर नरेंद्र और रूही अपने-अपने कमरों में चले जाते। आज भी जानकी, रूही और नरेंद्र कमरे में आये लेकिन सभी दिनों के विपरीत उन्होंने रामचरण को रोता हुआ पाया। जानकी परेशान हो गयीं "...अरे....क्या हुआ जी आपको?...रोये जा रहें हैं बस.....कुछ बताइयेगा भी?....", रामचरण अब अपने पर काबू न रख सके और २५ सालों से अपने दिल में छुपा के रखा वो पाप आज अपनी पत्नी, बेटी, और बेटे के आगे खोल दिया।

शालिनी और सुरजीत अपने कमरे में रोती हुई बैठीं थीं जब रुपिंदर और अविनाश कमरे में दाखिल हुए. वो दोनों सगाई के दिन से ही बड़े परेशान थे कि न तो शालिनी, न ही सुरजीत कुछ बता रहीं थी. रुपिंदर ने फिर पूछा "...अब तो बताओ की क्या बात है?.....इतने दिनों से पूछ रहा हूँ, कोई कुछ बोलता ही नहीं है क्यों?". अविनाश ने कहा "...मम्मी जी...कुछ तो बताओ,....जब तक आप बोलोगे नहीं, हमें प्रॉब्लम का पता कैसे चलेगा और फिर हम उसको सुलझाएंगें कैसे?....शालिनी, यार कुछ तो बोल".शालिनी ने कुछ मिनटों के बाद अपने ऊपर काबू किया और गुस्से में बोली "...रूप की शादी उस लड़की से नहीं होगी". रुपिंदर दंग रह गया. किसी लड़की को वो पसंद करता है ,सबसे पहले ये बात डरते-डरते उसने शालिनी को ही बताई थी, और शालिनी ने हँस के वादा किया था कि वो किसी भी तरह रुपिंदर की शादी रूही से करवाएगी। रूही के पापा के नाम को लेकर वो अक्सर कंफ्यूज रहता था , कभी शालिनी को आर.सी. मिश्रा बताता तो कभी राधेश्याम मिश्रा। शालिनी ठिठोली करती "...बता ,तुझको अपने ससुर का नाम याद नहीं होता". आज शालिनी को इस तरह से बोलते देखकर रुपिंदर का कलेजा बैठ गया. उसने डरते हुए पूछा "...क्यों बीजी?....क्यों नहीं शादी,....उस लड़की से....क्यों?" शालिनी ने उसको डांट कर कहा "...नहीं तो नहीं,....बहस मत किया कर बस". अविनाश ने बीच में टोका "...शालिनी,...यार बच्चे से ऐसे मत बोल....बता तो सही कि बात क्या है?", शालिनी की आँखों से फिर आंसू निकल पड़े और रोते हुए २५ साल पहले की वो आप-बीती उसने कह सुनाई।

अविनाश को जैसे काटो तो खून नहीं। रुपिंदर की मानो दुनिया ही ख़त्म सी लगने लगी. उसकी आँखें फटी हुई और ज़बान सिल के रह गयी.

जानकी को समझ ही नहीं आ रहा था कि रामचरण की बात को सुनकर क्या करे. रामचरण की हिम्मत नहीं हो रही थी कि रूही और जानकी से नज़र मिला पाएं। रूही बिना कुछ बोले तुरंत वहां से उठी और भागते हुए अपने कमरे में गयी और बिस्तर पर पड़े तकिये में मुँह छिपा कर रोने लगी.

रात को २ बज रहे थे. किसी की आँखों में नींद नहीं थी, बस आंसू ही आंसू थे. रामचरण सोच रहे थे की आज उनके गुनाहों की गठरी का बोझ उनकी पत्नी और बेटी को उठाना पड़ रहा है. जानकी सोच रही थी कि अब जब सब कुछ ठीक होता लग रहा था तब उसके जीवन में फिर से ये तूफान आया है. सुरजीत के आगे सब कुछ घूम रहा था...ऋतिंदर,...दीप,.....सतविंदर,....निम्मी,....सिम्मी,.....सुमन,.....प्रीतम,....मनजीत,.....आज फिर से वो सब लौट कर आ रहे थे. उसके प्यारे से बेटे को प्यार भी हुआ तो किससे? उस हैवान, दरिंदे की बेटी से जिसने उसकी पूरी दुनिया उजाड़ दी? फिर उस बच्ची की भी क्या गलती है?....अपने बाप की करतूत तो पता होंगी नहीं उसे. शालिनी दुःख से पागल थी कि माँ और छोटा भाई दोनों की ज़िंदगियाँ और खुशियां एक-दूसरे से टकरा रहीं थीं. अविनाश तो कुछ बोलना ही जैसे भूल गए थे.

रुपिंदर की कुछ समझ नहीं आ रहा था. जीवन के कुछ मौके इतने जटिल भी हो सकते हैं, इसका उसको अब अंदाज़ा हो रहा था. हो सकता है की इन जटिलताओं का शालिनी और सुरजीत ने उसको भान न होने दिया हो कभी या उसके खुद के बेहद सरल व्यक्तित्व के कारण ऐसा हुआ हो या जो भी हो, रुपिंदर जितना सुलझाना चाह रहा था वो उतना ही इसमें उलझता जा रहा था. वो तय नहीं कर पा रहा था कि सही क्या है? इतने संघर्षों के बाद उसको ज़िन्दगी देने और ज़िन्दगी बनाने वाली माँ और बहन का साथ देना सही है या उस लड़की का जिसकी कोई भी गलती नहीं थी और जो कोई भी रिश्ता न होने पर भी हर परिस्थिति में रुपिंदर के साथ दीवार बनकर अडिग खड़ी रही?.

लेकिन सबसे बुरी हालत तो रूही की थी. जैसे उसके सारे रंग उतर गए थे. जीवन में वो अब खुद को एक अजीब मोड़ पर पा रही थी. उसके दिमाग में खलबली मची हुई थी. ऐसे में केवल एक इंसान उसकी मदद कर सकता था और वो था रुपिंदर। रुपिंदर रूही को पसंद ही इस वजह से आया था कि वो रूही के सारे नखरे बड़ी आसानी और शालीनता से झेल जाता था. वो कभी गुस्सा नहीं होता था, कभी ऊँची आवाज़ में नहीं बोलता था, और कभी हड़बड़ी नहीं करता था. रूही में ये सभी चीज़ें थीं. वो पल में गुस्सा भी हो जाती थी और बुरी तरह से रिएक्ट भी करती थी लेकिन रूप हमेशा बहुत शांत रहता था. आज यही सोचकर रूही ने रूप को व्हाट्सएप्प किया "..रूप,....सो गए?". कोई जवाब नहीं आया। रूही ने सोचा कि रुपिंदर सो गया होगा, ज़्यादा रात तक जागने वाला नहीं था वो, सुबह उठकर बगल के पार्क में दौड़ने जाता था. लेकिन थोड़ी देर बाद रूही का फोन वाइब्रेटर मोड पर घनघनाने लगा. रुपिंदर की कॉल थी. रूही ने हैरानी से, और डरते हुए फोन उठाया और बहुत धीरे से बोली "...रूप...अभी जाग रहे हो?". रुपिंदर धीरे से, भर्राये गले से बोला "...तुम नहीं सोये अभी?". रूही ने दुःखी स्वर में कहा "रूप, आज मेरे पापा ने मुझे कुछ बताया है....बहुत बुरा सा..". रुपिंदर जो अभी तक खुद को जज़्ब किये हुए था, रो ही पड़ा "..मुझे भी मेरी मम्मी और बीजी ने बहुत कुछ बताया है......रूही मुझे अभी बात करने का मन नहीं है,....मैं बाद में बात करूँगा", रूही जो और किसी दिन रूपिंदर से बोलती "..मेरी बिना परमिशन के तू फोन कैसे रख सकता है लड़के?.....बात कर मुझसे", आज उसने फोन रखना ही ठीक समझा। रूही समझ नहीं पा रही थी कि रुपिंदर से कैसे बात करे?, उसकी माँ और पूरे परिवार की ज़िन्दगी बर्बाद करने वाला, उसके घर के आठ-आठ लोगों की लाशें बिछाकर और उसकी माँ की अस्मत रुसवा करने वाला कोई और नहीं, रूही का अपना बाप है. लेकिन बिना रूप से बात किये वो रह भी नहीं सकती थी, उसका सिर फटा जा रहा था. रूप को ये अच्छी तरह पता था, इसलिये उसने फिर फोन किया "..हैलो,...रूही, सो जा यार. कल शाम को स्कूल से छूटेगी तो राजीव चौक पर मिलते हैं". ये सुनकर रूही कुछ शांत हुई और सोने की कोशिश करने लगी.

अगले दिन सुबह नाश्ता करके रुपिंदर तुरंत ही सिध्दू साहब के घर पहुंचा। सिध्दू साहब मानवाधिकारों के बड़े वकील थे और उसे अपने बेटे जैसा मानते थे. उनके पास कई मामले चौरासी के दंगापीड़ितों के भी थे जिनको इंसाफ दिलाने की लम्बी लड़ाई वो पिछले २०-२२ बरस से लड़ रहे थे. रुपिंदर सामान्यतः उनके घर कम ही जाता था लेकिन आज वो बड़ा बेचैन था. सिध्दू साहब और उनकी पत्नी ने वजह पूछी तो रुपिंदर ने सिर नीचे किये हुए बीती रात की पूरी बात बता दी जिसे सुनकर सिध्दू दंपत्ति सन्न रह गए. सिध्दू साहब बड़ी देर तक रुपिंदर को देखते रहे फिर बड़ी गंभीर आवाज़ में बोले "...तो क्या सोचा है रुपिंदर?". रुपिंदर ने मुश्किल से सिर उठाकर जवाब दिया "कुछ समझ नहीं आ रहा अंकल जी....क्या करूँ?...इसीलिए आपके पास आया हूँ". सिध्दू साहब ने अपनी पत्नी से पूछा "...यार...मदद करो....मेरी भी समझ नहीं आ रहा कुछ". श्रीमती सिध्दू ने रुपिंदर से पूछा "..रूही से बात की?". रुपिंदर ने कहा "नहीं, शाम को मिलूंगा आज". "क्या उसके घर उसके पापा ने ये बात बताई है? क्या वो अब भी तुमसे शादी के बारे में सोचती है?". "जी....उसके पापा ने भी बताया है.....अब पता नहीं वो क्या सोचती है?" फिर उन्होंने पूछा "...और शालिनी से?". "बीजी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं". "...और भाभीजी?". "..मम्मी जी तो सगाई वाले दिन से ही चुप हैं. ना अस्पताल में कुछ बोलीं, ना घर पर कुछ बोल रहीं हैं". श्रीमती सिध्दू जी ने कुछ देर बाद कहा "रुपिंदर , ये सही है कि शालिनी और भाभीजी के साथ जो हुआ है, उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती, मगर बेटा ,नफरत का ग़ुलाम बने रहना तो ठीक नहीं जान पड़ता है.....अंदर ही अंदर ये कष्ट हमें खाता ही रहता है और खोखला बना देता है. तू एक बार फिर से शालिनी और भाभीजी से बात करने की कोशिश कर". रुपिंदर ने सिध्दू साहब की तरफ देखा। सिध्दू साहब भी परेशान थे, एक तरफ वो दंगापीड़ितों को इंसाफ दिलाने की जंग इतने बरसों से लड़ रहे थे , वहीँ उनका ये असिस्टेंट एक ऐसे इंसान की बेटी से प्यार कर बैठा जो चौरासी के कई कसाईयों में से एक तो ज़रूर था, भले ही छोटा ही हो. तो उन्होंने साफ प्रतिक्रिया देने की जगह रूखेपन से जवाब दिया "जैसा तुझको ठीक समझ आये". रुपिंदर उनकी ये दुविधा साफ समझ रहा था. खैर.

....शाम को सेंट्रल पार्क में रूही रुपिंदर से मिलने आयी. आज उसको देखकर रुपिंदर हमेशा तरह हँसा-मुस्कुराया नहीं। आज कोई शायरी भी नहीं पढ़ी जो वो अक्सर रूही के आने पर सुनाता था जिसे सुनकर रूही बड़ी खुश हो जाती थी, आज ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. रूही इन बातों को समझ भी रही थी इसलिए कुछ भी नहीं बोली। वो दोनों चुप से ही बैठे थे, इस ख़ामोशी और तनाव को रूही ने ही तोड़ा "...क्या बात हुई घर पर?". रुपिंदर ने बिना उसकी ओर देखे कहा "...कुछ भी नहीं,....बीजी चाहती हैं कि....". "...क्या चाहतीं हैं दीदी?". "बीजी बोल रहीं थीं कि ये शादी,......नहीं होगी". हैरानी की बात थी कि ये सब सुनकर भी रूही चुपचाप बैठी रही, कुछ नहीं बोली लेकिन उसके गालों पर आंसू ढलक आये। रुपिंदर फिर उसका हाथ पकड़कर बोला "...देख, तू गलत मत समझ....हम सब के आगे अचानक ऐसी बात निकल के आ गयी है जो किसी ने कभी नहीं सोची होगी,.....बीजी बहुत गुस्से में हैं......मम्मी जी को जैसे सांप सूंघ गया है, वो कुछ भी किसी से भी नहीं बोल रही हैं....", ये बोलकर रुपिंदर भी रुक गया जैसे उसके पास भी शब्द ख़त्म हो गए हों. रूही अपने आंसू पोछकर बोली "...मैं समझ रही हूँ, तेरे घर जो हालात बने हैं और जिसके लिए मेरे पापा ज़िम्मेदार भी हैं......जो भी तू फैसला करेगा ,मैं वही मानूंगी। मैं निकलती हूँ, देर हो रही है..", ये बोलकर रूही तेजी से उठी और चली गयी. रुपिंदर जानता था कि कहीं देर नहीं हो रही थी,उसने उसे रोकना भी चाहा लेकिन रुपिंदर के अंदर जैसे कोई बैठा था जिसने रुपिंदर को आवाज़ लगाने से रोक दिया।

रात के खाने के बाद रुपिंदर, सुरजीत, शालिनी और अविनाश कमरे में चुप से बैठे थे. शालिनी ने कहा "...रूप, तू उस लड़की से अभी भी शादी करना चाह रहा है?". रुपिंदर चुपचाप बैठा रहा, कुछ नहीं बोला। शालिनी ने फिर कहा "..चल अगर तू करना चाहता है तो ठीक है....कर ले....लेकिन एक शर्त है". रुपिंदर और अविनाश ने अचानक से शालिनी की ओर देखा जिसके चेहरे पर गुस्सा साफ दिख रहा था. शालिनी ने बोलना जारी रखा "...शर्त ये है कि तू शादी तो करेगा लेकिन एक महीने के अंदर तलाक़ देगा उसको.....", ये सुनकर रुपिंदर और अविनाश को एक और धक्का लगा. अविनाश ने तुरंत टोका "...क्या बोल रही है शालू?....ये क्या तरीका है?".रुपिंदर ने पूछा "...ये क्या मतलब है बीजी?". शालिनी ने अपनी खरज़दार आवाज़ में कहा "...मतलब ये है कि उस कुत्ते की बच्ची से शादी करके महीने भर के अंदर तलाक़ देकर तू उसकी और उसके परिवार की ज़िन्दगी वैसे ही बर्बाद करेगा जैसे उस कमीने ने हमारी की है....", रुपिंदर बीच में गुस्से से बोला "....बीजी,....ज़बान काबू में रख", अविनाश ने भी रोका "...शालू , तू पागल हो गयी है क्या?". शालिनी फिर से गरजी "...हाँ, हाँ....सँपोले,....तुझको अपना खून देकर, पाल-पोस कर इसलिए इतना बड़ा किया कि तू उस हैवान, दरिंदे की दो कौड़ी की लौंडी के लिए मुझको बोल कि मैं ज़बान पर काबू रखूं?", ये कहकर शालिनी ने अपनी चप्पल उतारी और पूरी ताक़त से रुपिंदर की ओर फेंकी जो सीधे रुपिंदर के कंधे पर लगी. शालिनी रोते हुए अपने घुटनों पर गिर गयी और चेहरा हाथों में छिपा लिया। अविनाश ने आकर उसको धीरज देने की कोशिश की लेकिन शालिनी ने किसी को अपने पास आने से भी मना कर दिया। रुपिंदर ने अपनी प्यारी बीजी का ये रूप पहली दफा देखा था. वो चप्पल लेकर रोती हुई बीजी के पास आया और बहुत प्यार से बीजी को गले लगाकर बोला "....गुस्सा नहीं करते बीजी....चुप हो जाओ...". शालिनी फिर रोते हुए उस से बोली "...रूप तू वादा कर, तू ऐसा ही करेगा,....जिसने हमें उम्र भर का दर्द दिया है....आज ऊपर वाले ने हमें भी मौका दिया है बदला लेने का.....और हम बदला ज़रूर लेंगे,.....रामचरण की दुनिया में आग लगाना है......बोल तू करेगा ऐसा....", किसी तरह रूप और अविनाश शालिनी को उसके कमरे में ले गए ,पीने को पानी दिया और बिस्तर पर लिटाया। फिर रुपिंदर वापिस अपनी माँ के पास आ गया.

"मम्मी,.....बीजी को देखो,......मुझे सँपोला कह रही है......आज उसने चप्पल से मारा,.....खैर ये कोई बड़ी बात नहीं है......लेकिन मम्मी, वो बदला लेने को बोल रही है.....किसके गुनाह का बदला?, और किस से?..." माँ के पैर के पास बैठकर रुपिंदर रोने लगा. सुरजीत ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया। रुपिंदर पास आया तो सुरजीत ने कहा "....बेटा बीजी की बात को दिल पर मत ले....वो गुस्से में है अभी.....तू अपने कमरे में जा....सो जा". और सुरजीत ने कुछ नहीं कहा और आँखें बंद कर लीं. रुपिंदर चाहता था कि वो शादी की बात पर कुछ बोले, लेकिन सुरजीत कुछ नहीं बोल रही थी.

शाम को जब रूही घर पहुंची तो घर पर आश्चर्यजनक तौर पर ताला बंद था. तभी पड़ोस का एक बच्चा खेलता हुआ आया और बोला "रूही दीदी , आपके पापा की तबियत ख़राब हो गयी है, उनको लेकर सब लोग सदर अस्पताल गए हैं.....आंटी ने कहा था कि आपको बता दूँ। रूही तुरंत भाग कर सदर अस्पताल पहुंची जहाँ उसके पापा की हालत अचानक काफी बिगड़ गयी थी और डॉक्टर ने तुरंत उनको भर्ती कर लिया था. बाहर आकर डॉक्टर बोले "काफी तगड़ा हार्ट अटैक आया है.......अभी कुछ मत पूछिए , थोड़ा वेट कीजिये प्लीज,....आप इनको सही टाइम पर ले आये हैं". घर के सब लोग थोड़ी देर बाद वापिस चले गए और पापा के साथ रूही बैठी हुई थी. जानकी ने कहा था कि खाना लेकर नरेंद्र आ जायेगा और रात को वही वहां रुकेगा, रूही आ जाएगी। रूही ने रात को ११ बजे वापिस आ कर रुपिंदर को मेसेज किया "पापा एट हॉस्पिटल ,सीरियस". रुपिंदर ने मेसेज में ही जवाब दिया "..विल मीट यू टुमॉरो इवनिंग देयर".

अगले दिन शाम को रूही स्कूल से छूट कर सीधे अस्पताल गयी. वहाँ न रामचरण थे, न रुपिंदर। जाकर पता लगा कि अचानक दोपहर को रामचरण की तबियत काफी बिगड़ने लगी और तुरंत ही उनके घर वाले उनको गंगाराम अस्पताल ले गए हैं. परेशान रूही तुरंत गंगाराम अस्पताल की ओर भागी। रास्ते में जानकी को फोन करके कमरा नंबर पता किया और सीधे कमरे में पहुंची। रामचरण बिस्तर पर ऑक्सीजन मास्क लगाए अचेत पड़े थे. जानकी बगल में खड़ी रो रहीं थीं. वहीँ पास में रुपिंदर भी खड़ा था. जानकी ने रूही से रोते हुए, रुपिंदर को देख कर कहा "ये दोपहर में तेरे पापा को देखने आये थे....उसी समय पता नहीं क्या हुआ, तेरे पापा की तबियत अचानक और भी ज़्यादा बिगड़ने लगी.....ये जल्दी से तेरे पापा को इस बड़े अस्पताल में लेकर आये". इतने में डॉक्टर भी आ गये. रूही के पूछने पर बताया ".... प्रॉब्लेमैटिक केस है.....शुगर और ब्लड प्रेशर तो पहले से ही है......हार्ट की प्रॉब्लम भी ज़्यादा है और लिवर भी डैमेज लग रहा है...आप लोग इनको आराम करने दीजिये". इतने में रामचरण के शरीर में कुछ हरकत होने लगी, लोग फिर उनके पास आ गए. बेबस और लाचार रामचरण ने किसी तरह अपने दोनों हाथ जोड़कर रुपिंदर को नमस्कार करते हुए उठने की कोशिश की मगर उठ नहीं पाए और रामचरण की आँखों से निकले आंसू ऑक्सीजन मास्क पर पहुंचकर दोनों गालों पर ढलक गए. रुपिंदर ने भी उनको नमस्कार किया और लेटे रहने का इशारा किया। फिर वो कमरे से बाहर निकल गया और सीधे अस्पताल के लॉन में पड़ी पत्थर की बेंच पर जाकर बैठा। थोड़ी देर बाद रूही भी उसके पास आकर बैठी और ज़मीन पर लगी हरी घास की तरफ देखते हुए धीरे से बोली "थैंक यू...". रुपिंदर चिंताग्रस्त रूही के हाथ पर हाथ रखकर बोला "...चिंता मत कर....उम्र ज़्यादा है....बीमारियां लगी रहतीं हैं....अंकल ठीक हो जायेंगे". वो दुःखी स्वर में बोली "...पता नहीं,...डॉक्टर ने सिरोसिस बताई है..... काफी खतरनाक बीमारी है". कुछ देर तक दोनों चुप रहे ,फिर रूही बोली "रूप.....वो अपने किये पर शर्मिंदा हैं". रुपिंदर चुपचाप बैठा रहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. रूही फिर चुप हो गयी. रुपिंदर हरी घास की तरफ देख कर धीरे से बोला "..तो?". रूही चुप ही रही, वो जवाब भी क्या देती। थोड़ी देर बाद रुपिंदर ने कहा "..देर हो रही है रूही", और इतना बोल कर वो निकल गया. रूही उसको रोक नहीं सकी.

कुछ और दिन बीते, लेकिन रामचरण की हालत सुधरने की बजाय बिगड़ती चली जा रही थी. दिल सही काम करता तो लिवर पिछड़ने लगता, और लिवर सही होता तो बी.पी. बढ़ जाता। ऑक्सीजन सिलिंडर एक दिन हट जाता तो अगले दिन फिर लग जाता। कुछ वक़्त बाद डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया "..लिवर और किडनी काफी ख़राब हो चुके हैं.....शायद काफी समय से ज़्यादा शराब पीने की वजह से.......बेहतर होगा कि इन्हे घर ही ले जाएँ,... हमारी ताक़त में जो था हमने किया, मगर अब मुश्किल है", ये सुनकर जानकी और रूही की आँखों से आंसू छलक गए थे. उस दिन वो दोनों डॉक्टर के साथ रिपोर्ट लेकर कमरे में आये तो रामचरण बिस्तर पर अधलेटे थे और ऑक्सीजन मास्क निकला हुआ था. रामचरण ने धीमी आवाज़ में उनसे पूछा "क्या हुआ जानकी?....डॉक्टर साहब?....रूही?". फिर डॉक्टर ने हिम्मत करके रामचरण को सच्चाई बता दी.

अपनी हालत सुनकर रामचरण धीरे से, बोले "....ये तो होना ही था....२५ बरस का पाप तो ऐसे ही निकलना था", इतना कहकर उन्होंने पास में बैठी जानकी के कंधे पर सर रख दिया और रोने लगे. थोड़ी देर के बाद जब संयत हुए तब रूही से कहा "...बेटा, वैसे तो मै तेरा नालायक बाप ही रहा, ऐसे बाप पर तुझे फख्र तो नहीं हो सकता। जिसने हमेशा तेरी देवी जैसी माँ को लातों से पीटा हो, भद्दी गालियां दीं हों.....जिसने दूसरी औरतों के साथ ऐय्याशी की हो......जिसने २५ साल पहले एक खुशहाल परिवार को बर्बाद किया और पुलिस की वर्दी में एक छोटी बच्ची के आगे उसकी विधवा, गर्भवती माँ की आबरू.......", आगे वो कुछ नहीं बोल पाए और फिर से रोने लगे. फिर थोड़ा पानी पीकर खुद को सँभालते हुए बोले "....बेटा, मरने से पहले एक बार उस औरत, उसके बच्चे और उस छोटी बच्ची से मिलना चाहता हूँ, और उनसे माफ़ी मांगना चाहता हूँ. ये गुनाह एक बोझ बनकर सीने पर कब से रखा है बेटा.......बस ये एक एहसान कर दे मुझ पर.....मै जानता हूँ कि जो कुछ किसी का चला गया वो वापिस नहीं आ सकता लेकिन मरता हुआ इंसान अपने दिल पर कुछ बोझ, कुछ क़र्ज़ लेकर मरे, ये भी तो सही नहीं।".

रूही ने घर आकर रुपिंदर को फोन किया और सारी बात बताई, और बहुत दुःखी होकर और हिम्मत करके अपनी माँ और बहन के साथ अस्पताल आने की विनती की. रुपिंदर फिर से ग़मज़दा हो गया और केवल इतना कहा "....मैं बात करता हूँ यहाँ", इतना कहकर फोन काट दिया।

अविनाश, शालिनी, सुरजीत, शालिनी के कमरे में थे और कुछ बातें कर रहे थे. उसी समय रुपिंदर वहां आया और धीरे से बोला "...जी कुछ बात करनी है आपसे....", रुपिंदर की बात से पहले ही शालिनी बीच में गरजी "..उस बाप-बेटी के बारे में तू कोई बात नहीं करेगा बस". सुरजीत ने बीच में ही रोका उसे "गुस्सा नहीं करते पुत्तर, बोलने दे उसे.....हाँ रूप.....बोल पुत्तर", और फिर रुपिंदर ने सारी बात कह सुनाई। कमरे में कुछ देर सन्नाटा ही रहा. फिर रुपिंदर हिम्मत करके बोला "...बीजी, एक इंसान है.....बहुत बुरा,.....लेकिन मरने वाला है वो, और अपनी गलती मान रहा है....माफ़ी मांगना चाहता है.....अब हम क्यों बुरे बनें?...... गुरु साहिब विच लिखा भी है 'जहाँ माफ़ी होती है, वहीँ खुदा होता है'....". रूप अपनी बात पूरी भी न कर पाया था की शालिनी बोल पड़ी "....वाह रे वीरे,....उस नागिन ने तेरे ऊपर ऐसा जादू किया है कि उसके पीछे पागल होकर तू हमारे साथ जो हुआ वो एक झटके में भूल गया?....आज तू हमें गुरु साहिब का ज्ञान बता रहा है?......तुझसे बदला लेने को कहा तुझे समझ नहीं.....". रूप बीच में ही चिल्ला उठा "बीजी,....थोड़ी देर के लिए रूही की जगह पर खुद को रख के सोच और फिर बता कि किस से किस बात का बदला लूँ?....जिसने कभी मेरे साथ बुरा नहीं किया, मुझे केवल ख़ुशी ही दी ,मैं क्यों उसकी ज़िन्दगी बर्बाद करुँ?". शालिनी भी उसी गुस्से से बोली "...तू भी थोड़ा खुद को मेरी और मम्मी जी की जगह पर रख कर सोच कमीने,...", उसी समय सुरजीत ने गुस्से में उसे टोका "..शालू, कितनी बार मना किया है, गाली मत दिया कर...". शालिनी अब चुप हो गयी थी. फिर सुरजीत वहां से उठ कर अपने कमरे में चली गयी.

रात हो गयी थी लेकिन पिछली कई रातों की तरह आज भी सुरजीत से नींद रूठी हुई थी.वो सोच रही थी कि यही होता आया है. पिछले पांच हज़ार साल से औरत ही हमेशा समझौता करती रही है. कभी औलाद के लिए, कभी पति के लिए, कभी किसी तो कभी किसी के लिए. आज वो रुपिंदर को रूही के लिए तड़पता लेकिन कुछ भी न कहता हुआ देखती है. लेकिन होता ये है कि वो खुद रुपिंदर से ज़्यादा खुद तड़पती है. वो शालिनी की तरह कठोर क्यों नहीं हो जाती? क्या गलत बोलती है शालिनी? क्यों सुरजीत नहीं बोलती रुपिंदर को कि शादी कर के ले आये रूही को और पंद्रह दिन बाद छोड़ दे? क्या कर लेगा उसका बाप? रिटायर्ड आदमी की औकात ही क्या होती है?....फिर मरने भी वाला है वो. विधवा जानकी तो खुद पिटती आयी है, वो भी क्या कर लेगी अगर रुपिंदर ने रूही को शादी करके छोड़ दिया तो? क्यों नहीं सोचती सुरजीत ऐसे?

सीता जी ने ही अग्नि परीक्षा दी थी, राम जी ने नहीं। २५ बरस पहले सुरजीत ने भी एक अग्नि परीक्षा दी थी. बीते २५ सालों से हर रोज़ वो ये परीक्षा देती आयी है. आज फिर से अग्नि उसके सामने है. आज उसका बेटा उसको उस हैवान से मिलने के लिया कह रहा है जो सुरजीत के हँसते-खेलते परिवार को बर्बाद करने के लिए ज़िम्मेदार है, और क्यों?....क्योंकि वो मरने वाला है?.....क्योंकि सुरजीत और शालिनी से माफ़ी मांग कर उसको जन्नत मिल जाएगी?....और ये सब किसलिए?.....क्योंकि वो मरनेवाला इंसान जानता है की सुरजीत का बेटा रूही से बहुत प्यार करता है और इसलिए वो शालिनी और सुरजीत को मना के यहाँ ले आएगा?....और अपने बेटे की बात अंततः सुरजीत मान ही जाएगी?.....क्या सुरजीत के अपने मान-सम्मान का कोई मोल नहीं?......क्या उसकी अपनी कोई हस्ती नहीं?, कोई वजूद नहीं?......इज़्जत तार-तार करके, फिर कोई माफ़ी मांग ले, केवल क्या इतनी सी ही बात है?.......इसी उधेड़बुन में करीब १२ बज चले थे. अशांत और अनिश्चित मन से सुरजीत धीरे से अपने घर से बाहर निकल कर पड़ोस के गुरद्वारे की ओर चल दी.

गुरद्वारे के ग्रंथी साहब सोने की तैयारी कर रहे थे की सुरजीत को दरवाज़े पर देख कर चौंक गए. बोले "...अरे बाजवा जी...इतनी रात गए?....एक फोन कर देते आप, मैं ही आ जाता। बताएं क्या बात है?". सुरजीत ने हाथ जोड़कर कहा "अमनसिंह जी.....मन बड़ा अशांत है, बड़ी उथल-पुथल हो रही है.... कुछ समझ नहीं आ रहा है....थोड़ा गुरु साहिब पढ़ के सुना देते तो चैन मिल जाता". अमनसिंह जी ने कहा "गुरु साहिब तो अब सोने चले गए. उनको तो बंद करके, सेवा करके रख दिया, अब तो सुबह ही उठेंगे,.....जपजी साहिब हैं, कहो तो पढ़ के सुना दूँ कुछ". सुरजीत ने कहा "...जी, जो भी पन्ना खुल जाये, थोड़ा पढ़ के सुना दो". ग्रंथी ने छोटी सी जपजी साहिब खोली और सुनाने लगा --

"इक ओंकार , सतनाम करता पुरख, निर्भय-ओ-निर्वैर;

अकाल मूरत अजूनी सैभान गुरू परसाद,

जप

आदि सच जुगाड़ सच;

है भी सच, नानक होसे भी सच".

"ज़रा मतलब भी बता दो अमनसिंह जी"

"एक ही रब है, उसका नाम ही एकलौता सच है. वही सब को बनाने वाला है. उसको किसी से डर नहीं, किसी से बैर नहीं है, वो डर और बैर से परे है. वो सब जगह है और खुद से ही प्रकाशित होता है. वही पहले भी सच था, वही हमेशा सच रहा है, और वही आज भी सच है, और वो हमेशा ही सच रहेगा।"

थोड़ी देर तक सुरजीत आँख बंद किये बैठी रही, फिर घर चली गयी.

सुबह वो जल्दी ही उठ गयी लेकिन आज उसके मन में एक ख़ुशी लग रही थी, चिड़चिड़ापन नहीं था, सिर भारी नहीं हो रहा था. पिछली कई रातों से वो सोई नहीं थी लेकिन कल रात गुरद्वारे से वापिस आ कर उसको बहुत अच्छी नींद आयी थी. आज सुबह नहा-धो कर वो फिर से गुरद्वारे पहुंची। पूजा करके जैसे ही वो बाहर सीढ़ियों के पास रखे अपने चप्पल पहनने गयी, उसकी मुलाक़ात जानकी से हुई जो उसको मिलने ही आयीं थीं. जानकी की सुरजीत से नज़र मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी लेकिन उन्होंने दम भर कर, हाथ जोड़कर कहा "भाभीजी , आपसे ही मिलने आएं हैं...", उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि सुरजीत ने मुस्कुराकर कहा "हाँ हाँ.....ठीक है....लेकिन आप गुरु के दरबार आयीं हैं, पहले दर्शन कर लीजिये, फिर घर चलते हैं. वहां आपको जो बात करनी हो, नाश्ते पर कीजियेगा". दर्शन कर के वो सुरजीत के कहने पर उनके घर गयीं, जहाँ शालिनी ने सबसे पहले दरवाज़ा खोला। सुरजीत से आँखों से ही उसको समझा दिया था कि कुछ नहीं बोलना है. रुपिंदर पार्क में दौड़ लगाने गया था.

शालिनी प्लेटों में पोहा और चाय बनाकर ले आयी थी. जानकी बड़ी मुश्किल से ,इस तरह से बैठ पा रहीं थी जैसे वो जल्दी ही यहाँ से निकलना चाहती हों. कारण भी सीधा सा था-- इस पूरे परिवार को दुःख की आग में आज से २५ साल पहले झोंकने वाला कोई और नहीं, उनका अपना पति था और जिसने सामने बैठी महिला को विधवा भी बनाया, और गर्भ के दौरान उसकी अस्मत को भी रुसवा किया। ऐसी महिला के सामने रामचरण की पत्नी जानकी इस तरह महसूस कर रहीं थीं की जैसे ज़मीन फट जाये और वो उसमे समा जाएँ। शुरुआत सुरजीत ने ही की "जी भाभी जी, बताएं". जानकी ने सीधे ही कहा "...देखिये, बताने को इतना अच्छा तो नहीं है कुछ....आप जानती ही हैं सब.....रूही के पापा अपने अंतिम वक़्त में आपसे और शालिनी से मिलना चाहते हैं". इतना कहकर जानकी चुप हो गयीं। उन तीनों के ताज्जुब का ठिकाना न रहा जब अगले ही पल सुरजीत ने कहा "ठीक है जी, मैं कल सुबह दस बजे रुपिंदर और शालिनी के साथ अस्पताल आउंगी।

जानकी के चले जाने के बाद गुस्से से फुफकारती हुई शालिनी बोली "क्यों जाना है उस नागिन के बाप के पास?.....हमने क्या ठेका लिया है क्या उसके स्वर्ग जाने का?....और अगर लिया है तो बिलकुल नहीं जाना चाहिए,.....मरे साला वहीं,.....जो कुछ उसके किया है उसके लिए तो जितनी दर्दनाक मौत आये उसको उतना कम है......कीड़े पड़ने चाहिए उस के पूरे जिस्म में......उस से जीते भी न बने और मरते भी न बने, ऐसी हालत होनी चाहिए उसकी। मेरा तो भाई मेरी बात नहीं सुनता वरना ऐसी दुर्गति करती मैं उस पुलिसवाले की.....अगर ये रूही से शादी करके दस दिन में तलाक़ दे दे तो उस के किये की सजा उसका पूरा खानदान भुगतेगा,...." ,इसी समय सुरजीत ने शालिनी के सिर पर हल्की सी थपकी लगायी। शालिनी ने झटके से पलट कर देखा तो सुरजीत कुछ गुस्से में थी "...तू एक शादी-शुदा औरत होकर दूसरी औरत के लिए ऐसा कैसे बोल सकती है?....क्या यही सिखाया है मैंने तुझे?". फिर सुरजीत ने शालिनी को कहा "..थोड़ा बैठ इधर", और ये कह के हाथ पकड़कर सोफे पर बिठा लिया और सामने से ठंडा पानी का गिलास और एक बिस्किट उठा कर दिया। शालिनी बिस्किट खाकर पानी पीने लगी और सुरजीत उसके सिर पर हाथ फेरने लगी. शालिनी के दिमाग की सारी गर्मी जाती रही. फिर सुरजीत ने कहा "..देख शालू पुत्तर, इक ओंकार , सतनाम करता पुरख, निर्भय-ओ-निर्वैर,....मतलब कि उसको न किसी का डर है, न उसको किसी से कोई नफरत है. वो डर, नफरत से परे है. जब वही नफरत नहीं करता तो इंसान होकर हमारी क्या औकात, क्या बिसात?....जिसको रब खुद उसके गुनाहों की सजा दे रहा है, जो खुद मर रहा है उसको हम क्या मारेंगे?......मेरे साथ जो हुआ, बेशक वो बुरा था लेकिन अफ़सोस मैं करूँ?.....गलती उसने की, ये नीच करम उसने किया,.....तो मुझे उसको लेकर शर्म क्यों आये?......शर्म उसको आनी चाहिए", फिर थोड़ा गुरुर में बोली " ओ पुत्तर ,असी सिक्खां ठहरे। सिक्खां दे दिल वड्डे होंदे हैं".

जानकी दरअसल गयीं नहीं थीं. दरवाज़ा बंद होने पर वो जाने के लिए मुड़ीं थीं जब उनको शालिनी की बेहद कठोर और तेज़ आवाज़ सुनाई दी थी. उन्होंने चुपचाप रहकर दीवार के पास जाकर पूरी बात सुनी। फिर वो दबे पाँव अपने आंसू पोछते हुए चली गयीं।

अगली सुबह लगभग ग्यारह बजे वो तीनों अस्पताल पहुंचे। तबियत ख़राब ही थी रामचरण की फिर भी जानकी का सहारा लेकर थोड़ा उठ कर बैठे और नज़र नीचे किये ही हाथ जोड़कर नमस्कार किया। इतने में रामचरण की सिसकियाँ कमरे में सुनाई देने लगीं। चेहरा ऊपर करने की हिम्मत नहीं हो रही थी उनकी आज. रामचरण ने सिर नीचे किये ही बोला "...भाभीजी, और बेटी शालिनी , जो कुछ आपके और आपके परिवार के साथ जो मैंने किया,....कायदे से तो माफ़ी माँगना भी इंसानियत की बेज़्ज़ती ही होगी। मेरे बदन के हज़ार टुकड़े भी हो जाएँ तो भी हर टुकड़ा ये सोचकर खुद को शर्मसार महसूस करेगा कि वो मेरे जिस्म का टुकड़ा है......इतनी घिन आ रही है आज मुझे अपने आप से. ऊपर वाले ने भी ये हालत कर दी है मेरी,........मैं जानता हूँ कि मेरे गुनाहों की कोई माफ़ी मुमकिन ही नहीं है....लेकिन फिर भी मेरे लिए माफ़ी यही होगी कि आप रूही को अपने घर की लक्ष्मी के तौर पर कुबूल कर लो. ये कहकर रामचरण ने अपने दोनों जुड़े हाथ सिर पर रख लिए और बेतहाशा रोने लगे. जानकी ने उनके कंधे पर हाथ रखकर सँभालने की कोशिश की लेकिन उन्होंने उसकी ओर देखकर इशारों से मना कर दिया। आज वो शायद खूब रोना चाहते थे, इतना कि सारे गुनाह की वो काली परछाइयां आंसुओं के रास्ते निकल जाएँ। कुछ देर बाद सुरजीत बहुत शांति से बोली "....जी ये तो ख़ुशी की बात है.....उस दिन सगाई अधूरी रह गयी थी......आज पूरी करेंगे?, ये कहकर सुरजीत ने रुपिंदर की पसंद की हुई अंगूठी अपने हाथ पर रखकर रामचरण के आगे की. रामचरण शायद इसके लिए तैयार नहीं थे, उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वो क्या बोलें। उन्होंने जानकी की तरफ देखा, मानो पता नहीं कितने खुश हों और कितना कुछ कहना चाह रहे हों। जानकी ने बड़ी ख़ुशी से अपने पर्स में सगाई के दिन से ही पड़ी अंगूठी निकाली और रामचरण को दिखाई। रामचरण ने रुपिंदर और रूही की तरफ देखा। वो दोनों अपने ख़ुशी और आंसू बड़ी मुश्किल से छिपाते हुए आगे आये और अंगूठी लेकर एक-दूसरे को पहना दी. उस पूरे कमरे में कोई भी ऐसा उस दिन नहीं था जो ख़ुशी के आंसू न रोया हो. शालिनी भी खुद को रोने से रोक नहीं पायी और रूही को बड़े प्यार से गले लगा लिया।सुरजीत अब कुछ कमज़ोर पड़ रही थी, जब उसे मनजीत और अपनी सगाई याद आ रही थी, और बड़ी देर तक खुद को जज़्ब करके चुपचाप रही सुरजीत की आँखों से अब धारा फूट पड़ी. रोते हुए उसने रूही को अपने गले लगाया और उसके मुख से बरबस ही निकल पड़ा "....चौरासी बड़ा याद औंदा है पुत्तर,........बड़ा याद औंदा है".



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