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हिम स्पर्श -07

हिम स्पर्श -07

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प्रथम कक्ष साधारण खंड जैसा था। प्रत्येक कोने में धूल, मिट्टी और मकड़ी के जाले फैले हुए थे। मकड़ी ने एक पारदर्शक किन्तु सशक्त दीवार रच दी थी। वफ़ाई वहीं रुक गई और पूरे कक्ष का निरीक्षण करने लगी, स्थल और स्थिति को समझने का प्रयास करने लगी।

कक्ष के मध्य में टूटी हुई एक कुर्सी थी। अन्य कोई सामान नहीं था। कोने में एक झाड़ू, दो बाल्टियाँ, पुराने कपड़ों के कुछ टुकड़े, टूटे हुए चप्पल, पानी का खाली घड़ा, स्टील के दो प्याले, प्लास्टिक का बड़ा प्याला और तीन चम्मच। बस इतना सा सामान था।

“यह सब वस्तुएं संकेत दे रही है कि इस कक्ष में कभी जीवन हुआ करता होगा। ना जाने यह जीवन कब इस कक्ष को छोड़ कर चला गया होगा। कुछ दिनों पहले अथवा कुछ महीनों पहले। यह निश्चित है कि यहाँ कभी जीवन था।“ वफ़ाई ने स्वयं को आश्वस्त किया।

दीवार पर बिजली की कुछ स्विच लगी थी। वफ़ाई ने बिजली की अपेक्षा की, किन्तु वह निराश हुई। बल्ब के स्थान पर बल्ब नहीं था, कोई पंखा भी नहीं था।

वफ़ाई ने मोबाइल चार्जर लगाया, मोबाइल चार्ज होने लगा।

“बिजली अभी भी प्रवाहित हो रही है। बस, एक बल्ब का ही अभाव है कक्ष को प्रकाशित करने के लिए।“वफ़ाई हंस पड़ी।

दीवार के एक कोने में, सुंदर पहाड़ का द्रश्य अपने में समेटे हुए, एक तस्वीर लटक रही थी। वफ़ाई उस की तरफ आकृष्ट हुई। तीव्र मनसा से वफ़ाई ने उस धुंधले चित्र को देखा।

“कितना सुंदर है यह? एक बड़ा सा पहाड़, हरियाली से भरी गहरी और तीक्ष्ण घाटी, पहाड़ के आँचल में बडी और सीधी खड़ी काले घने रंग की अनेक शिलाएँ। चोटियों और शिलाओं पर बिखरा हुआ गाढ़ा हिम। हिम और शिलाओं को स्पर्श कर रही सूरज की किरणें जिस के कारण देदीप्यमान हिम और अधिक काली दिख रही शिलाएँ। किन्तु यह चित्र यहाँ कैसे? हे चित्र तुम मुझे मेरे ही नगर के पहाड़ का स्मरण करा रहे हो।“

वफ़ाई को वह तस्वीर भा गई। उसने उस पर जमी धूल को हटाया। धुंधली तस्वीर अब पूर्ण रूप से स्पष्ट थी। वफ़ाई अपने नगर की यादों में खो गई। कुछ क्षण यादों में ही व्यतीत हो गए। अचानक दीवार को छोड़कर तस्वीर जमीन पर गिर पड़ी। वफ़ाई भी हिम पहाड़ों से मरुभूमि में सरक गई।

वफ़ाई ने झुककर तस्वीर उठा ली, अपने आलिंगन में ले ली।

वफ़ाई दूसरे कक्ष में गई। उसकी कथा भी पहले कक्ष जैसी ही थी। वहाँ से बाहर निकलने का एक द्वार था जो पीछे के भाग में खुलता था। वह बाहर निकली। वहाँ एक स्नान घर था, जिसे बंध करने का कोई द्वार नहीं था।

स्नान घर के समीप पानी का हाथ पंप था। एक शौचालय भी था, खुल्ला, बिना द्वार का।

वफ़ाई ने स्नानघर में प्रवेश किया। समय के किसी अज्ञात क्षण से वह सूखा पड़ा था। एक विचित्र गंध ने वफ़ाई के नाक पर आक्रमण कर दिया। उसने साँसे रोक ली।

तीन फिट ऊंचाई पर पानी का नल था। वफ़ाई ने उसे घुमाया, पानी की एक भी बूंद नहीं निकली। वफ़ाई ने तीन चार बार प्रयास किया किन्तु परिणाम शून्य। वफ़ाई ने रोकी हुई साँसे छोड़ दी ।

वफ़ाई स्नानघर को छोड़ कर शौचालय में गई। वहाँ भी वही स्थिति थी।

वह हाथ पंप की तरफ मुड़ी, उसे चलाने लगी। वह कठोर था, स्थिर था। वफ़ाई ने पूरी शक्ति से प्रयास किया, अनेक बार किया। अंतत: पंप से पानी निकला जो वफ़ाई पर बारिश की भांति गिरा। वह भीग गई, पूर्ण रूप से।

समय के लंबे अंतराल के पश्चात वफ़ाई के शरीर को पानी का स्पर्श हुआ था। उसे अच्छा लगा। वह कक्ष की तरफ दौड़ी, बाल्टी ले आई और उसे पानी से भर दिया।

वह आनंदित हो कर चीखी, चिल्लाई। उसकी आवाज हवा में धूमिल हो गई। उस की ध्वनि को सुनने के लिए वहाँ कोई नहीं था। वफ़ाई फिर से चीखी, चिल्लाई, इस बार अधिक शक्ति से।

“आज की रात तो यहीं रुकेना होगा।“ निश्चय कर लिया वफ़ाई ने।

उसने झाड़ू लगाया, कक्ष को साफ किया, पानी से धोया, कक्ष को रहने लायक बना दिया। बदले हुए कक्ष को देखकर वह प्रसन्न और संतुष्ट हुई।

जीप से कुछ सामान कक्ष में ले आई। जमीन पर चटटाइ बिछाई और उस पर लेटकर विश्राम करने लगी। वह थकी हुई थी, उसकी आँख लग गई।

कुछ समय पश्चात जब जागी तो घड़ी को देखकर बोली,”कितना अधिक समय बीत गया।“ वह कूदी और कक्ष से बाहर आ गई, आकाश की तरफ देखा, जहां संध्या खेल रही थी। दिवस अपने अंतिम क्षण जी रहा था। सूर्य अस्त हो चुका था। प्रकाश आने वाले अंधकार से अपने अस्तित्व का यूध्ध लड़ रहा था।

“ओह, मैं आज का सूर्यास्त चूक गई।“

“सूर्यास्त के समय तुम कहीं ओर व्यस्त थी।“

“‘हाँ, वह आवश्यक था।”

“सूर्य का अस्त होना भी अनिवार्य था।”

“किन्तु सूर्य मेरी प्रतीक्षा तो कर सकता था।”

“हा, हा, हा हा... सूर्य तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर सकता ...”

“सूर्य को करना चाहिए था। तुम्हें तो ज्ञात है कि मैं यहाँ अतिथि हूँ। अतिथि के लिए तो सूर्य को प्रतीक्षा करनी चाहिए थी अथवा अस्त होने के समय मुझे आवाज दे ...”

“वफ़ाई, तुम पागल हो।“

‘हाँ, मैं हूँ पागल। मैं स्वीकार करती हूँ। ओ गगन, ओ सूर्य, ओ दिशाओं, ओ बादलों... आपने सुना कि मैं पागल हूँ....” वफ़ाई ज़ोर से चिल्लाई, दिशाओं की तरफ अपने बाजुओं को फैला कर, आँख बंध कर उसे आलिंगन के लिए आमंत्रित करने लगी।

हवा के एक ठंडे टुकड़े ने वफ़ाई को आलिंगन दिया। वफ़ाई ने भी उसे अपने आलिंगन में लिया।

संध्या ढल गई, अंधकार ने गगन पर अपना आधिपत्य जमा दिया, किन्तु कुछ ही क्षणों के लिए। अंधकार को पराजित करने के लिए चंद्र निकल आया। पूरा गगन चाँदनी के श्वेत प्रकाश में नहाने लगा।

वफ़ाई कक्ष से बाहर आकर लंबे समय तक आकाश को, चन्द्र को, बादलों को, रेत को, मार्ग को, दिशाओं को.... देखती रही। समय के क्षण बीतने लगे, बीतता हुआ यह समय वफ़ाई को मनभावन लगा।

“यह क्षण मौन से सभर है, जैसे पहाड़ों के क्षण मौन से सभर होते थे।“

“किन्तु, दोनों मौन में अंतर है।“

“पहाड़ों पर, पहाड़ मुझ से बात करते थे। मौन भी रहते थे। मैं पहाड़ों के मौन से भी बातें कर लेती थी। वह मौन परिचित था। किन्तु, यहाँ सब कुछ अपरिचित है। हवा, रेत, क्षितिज और यह मौन भी।“

वफ़ाई ने अपरिचित मौन से बातें करना चाहा, वह विफल हो गई। किसी ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। मौन भी मौन ही रहा।

असीम गगन के स्थिर मौन को छोड़ कर वफ़ाई कक्ष में आ गई। उसे भूख लगी थी, रात्री भोज का आनंद लेने लगी। थकी हारी सो गई, सपनों के नगर में खो गई; अर्धजागृत मन को लेकर, अर्धजागृत सपने लेकर। ना तो विचार, ना तो मन और ना ही सपने स्पष्ट थे, फिर भी वफ़ाई सपनों के उस नगर में विचरती रही।

रात अपने मार्ग पर आगे बढ़ रही थी, और वफ़ाई अपने सपनों के मार्ग पर; बिना किसी भय के, बिना किसी चिंता के चल रही थी। एक निर्भीक पर्वत सुंदरी मरुस्थल की रात्री में निंद्राधीन थी।

निशा व्यतीत हो गई। नया प्रभात भी निशा की भांति ही मौन था। कहीं भी कोई ध्वनि नहीं था। पंखियों के मधुर गीत नहीं थे। मंदिर का घंटनाद नहीं था, मस्जिदों की अजान भी नहीं, कोई नर अथवा नारी भी नहीं थे। इतने शांत वातावरण में वफ़ाई जागी तब घड़ी में बजे थे - 9:11 ।

“या अल्लाह... यह भी कोई समय है जागने का .....।“ वह मन ही मन बड़बड़ाई।

वफ़ाई ने खिड़की से बाहर द्रष्टि डाली। द्वार और खिड़की के मार्ग से दिवस का प्रकाश कक्ष के अंदर घुस चुका था। सूरज भी आक्रामक था। प्रकाशमय था।

“यह तो आनंद सभर विस्मय है। पहाड़ों पर कभी भी तेजोमय दिवस नहीं होते थे। दिवस बिना प्रकाश के ही संध्या और रात्री में परिवर्तित हो जाता था। सूरज दिनों तक गायब रहता था। किन्तु यहाँ सूर्य देदीप्यमान है, दिवस तेजोमय है। कहीं भी अंधकार नहीं है।“

“मरुभूमि और पहाड़ के बीच यदि कुछ भी सामान्य है तो वह है- एकांत।“

वफ़ाई उठी, अंगड़ाई ली। सहसा उसे लगा कि कक्ष में कुछ है जो गतिमान है। वह चकित हो गई।

“मेरे सिवा इस कक्ष में और कौन हो सकता है?”

वफ़ाई ने सावधानी से उस दिशा में देखा। उसने दर्पण में अपने ही प्रतिबिंब को पाया। बाएँ कोने में एक छोटा सा दर्पण था। वह विचलित हो गई,”मैंने इसे कल देखा क्यूँ नहीं? मेरी द्रष्टि से यह चूक कैसे हो गई?”

वह दर्पण के समीप गई। उसमें उसने अपने मुख को, आँखों को, गालों को, होठों को और बालों को देखा। उसे अपना ही प्रतिबिंब अपरिचित लगा।

वफ़ाई ने दर्पण से पूछ लिया,”ए लड़की, कौन है तू?”

दर्पण ने भी यही प्रश्न पूछा। वफ़ाई ने दर्पण को स्मित दिया। दर्पण ने भी स्मित दिया।

दर्पण और दर्पण में स्वयं का प्रतिबिंब, वफ़ाई को भाने लगा। वह खुलकर हंस पड़ी। उसने दर्पण को चूम लिया।

तैयार होकर वह घर से बाहर आई। जीप वहीं खड़ी थी जहां कल शाम रखी थी। कुछ भी बदला नहीं था। धरती का एक भी कण अपने स्थान से हिला नहीं था। सब कुछ स्थिर था।

“रात भर यहाँ कोई नहीं आया, कोई पशु भी नहीं। हवा भी स्थिर सी होगी रात भर। बिना जीवन के किसी संकेत से भरा जीवन। कैसा है यह जीवन?” मन ही मन वह बोली।

वफ़ाई ने घर छोड़ दिया और विशाल मरुभूमि में किसी अनदेखे मार्ग पर किसी अज्ञात की खोज में निकल पड़ी। क्या था वह? वफ़ाई नहीं जानती थी।


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