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मूक बोझ

मूक बोझ

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हे भगवान ! यह लड़कीं भी पता नहीं कब सुधरेगी ? किताबें हाथ में ली नहीं कि नींद ने आ घेरा। ऐसे तो बन गई डॉक्टर....

बड़बड़ाते हुए मैं लैम्प बन्द करने ही वाली थी कि डायरी पर नज़र चली गई। उत्सुकता वश उसे लेकर पढ़ने लगी।

10 दिसम्बर

आजकल मैं असह्य मानसिक दुःख में हूँ। मुझे नहीं लगता कि माँ-पापा कभी मुझे समझने की कोशिश करेंगे।

"कोई भी चीज़- कितनी स्पष्ट- कितनी अस्पष्ट है ? कितनी साफ़-कितनी धुंधली और कितनी स्याह है और कितनी सफ़ेद ? मैं नहीं जान पाती हूँ। लेकिन इतना तो समझती हूँ कि मुझे इंद्रधनुष के रंग बहुत आकर्षित करते हैं।

15 दिसम्बर

जिंदगी में जैसे परिस्थिति व लोग बदलते हैं, वैसे हो सकता है मेरी भी रुचि बदल जाए लेकिन अभी की रुचि को देखते हुए मुझे नहीं लगता कि मैं डॉक्टर बन पाऊँगी।

माँ तो सब कुछ जानती थी मेरे बारे में फिर पापा का साथ देने के लिए कैसे तैयार हो गई ?

20 दिसम्बर

आज जब बायोलॉजी के प्रैक्टिकल में मेंढक काट रहे तो मुझे कैसा लिजलिजा लग रहा था ? जैसे सब कुछ मेरे साथ हो रहा हो।

"माँ बचपन से ही बगीचे में मुझे तितलियों के पीछे भागते हुए देखती आई हैं और घर आकर जब मैं उस तितली को उकेरती व रंग भरती थी तब वह कितनी बलैयां लेती थीं मेरी !"

अब ऐसा क्या हो गया है कि मुझे भी बुआ की बेटी अक्षरा दीदी की तरह डॉक्टर ही बनाना चाह रहे हैं वह दोनों।

15 जनवरी

"आजकल मेरे दिमाग में बहुत उथल-पुथल रहती है और बहुत सारी चीज़ें जो दूसरे लोग मेरी गलत ठहरा देते हैं, मेरे अंतर्मन से वे सही हैं।

5 दिसम्बर

अचानक, दुनिया बड़ी हो गई है माँ, खगोलीय लिहाज़ से नहीं, मेरे साथ जो हुआ उसके बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ मानो मैं जिस बुलबुले के भीतर थी वो फट गया है और मैं तीखी, कच्ची तथा मादक हवा के थपेड़ों के सामने हूँ।"

30 दिसम्बर

"मेरे दिमाग में इन पुस्तकों में लिखा हुआ कुछ भी नहीं घुसता है लगता है मेरा दिमाग ही फट कर बाहर आ जाएगा।"

पढ़ते-पढ़ते मुझे एहसास भी नहीं हुआ कि कब विनीत पीछे आकर खड़े हो गए और मैं बिलख पड़ी उनकी बाँहों में।

विनीत हमें बचाना होगा हमारी गुड़िया को, इसको इंद्रधनुष में रंग भरने देना होगा।


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