बेरंग
बेरंग
सुबह- सुबह सैर पर जाते हुए सफेद धोती में लिपटी अम्मा से सामना हो गया। वो अपने आप से बातें कर रही थी तथा दोनों हाथों की मुट्ठियों में बार-बार कुछ समेटती तथा उन्हें खोल कर हवा में हाथ लहरा कर आसमान की तरफ छोड़ देती। सैर से वापस आकर देखा तो उसका वहीं क्रम जारी था। हम से रूका नहीं गया और पूछ बैठे- अम्मा क्या कर रही हो।
वो बोली- इस दुनिया से सारे रंग समेट कर वापस आसमाँ में भेज रही हूँ।
आप ऐसा क्यों कर रही हैं, इससे तो यह संसार बेरंग हो जाएगा।
चेतना से भरा मानव, अवचेतना में खो गया है। अपने कृत्यों से रंगों की खूबसूरती को नष्ट करके स्वयं ही उन्हें बेरंग कर रहा है।
हमने हैरानी से उसकी तरफ देखा तो वह बोली- प्रकृति का विनाश, प्राकृतिक सम्पदा का दोहन, प्रदूषण, भ्रष्टाचार, झूठ, फरेब, ईर्ष्या, द्वेष और पल-पल रंग बदलती दुनिया ने तमाम खूबसूरत रंगों को रंगहीन कर दिया है इसलिए इन्हें इनके देवी-देवताओं के पास वापस भिजवा रही हूँ। कम से कम उनके पास यह सुरक्षित तो रहेंगे।
हम अपने स्वार्थ के आगे इतने विवश थे कि चाह कर भी कुछ नहीं कर सकें। मूक दर्शक बने प्रकृति के मधुर-मनोहर रंगों को इस तरह सिमट कर आसमाँ में जाते देखते रहें।