जाने कहाँ होगा वो
जाने कहाँ होगा वो
"जाने कहाँ होगा वो!" अनायास ही वो पूछ बैठी अपनी सखी से।
आज वर्षो बाद आँगन में बैठी वो बाहर गुलाल के उड़ते रंगों को दोबारा देख रही थी। लाल...गुलाबी...पीले...हरे.....रंग।
वही रंग जिनसे उसे गहरा लगाव था और जब से उसने होश सँभाला था आसपास फैले इन्हीं रंगीन अहसासों को वो अपनी बड़ी बड़ी आँखों में भर लिया करती थी। लेकिन एक दिन ऐसी ही किसी होली में एक बेदर्द ने उसकी आँखों के सभी रंग छीन उसे एक रंग दे दिया था, अँधेरे का रंग! और वो हमेशा के लिऐ, तन से ही नहींं मन से भी गहन अंधकार बन कर रह गई थी।
"मैं तुम्हारे जीवन के अँधेरोंं का साथी बनना चाहता हूँ, मैं तुम्हेंं हर ख़ुशी.......।" और फिर एक दिन जाने कहाँ से 'वो' आ गया था और देखते ही देखते उसका हमदर्द बन सारे ज़माने की परवाह को एक ओर कर उसके जीवन में सिन्दूरी रंग भरने की चाहत कर पूछ बैठा था। लेकिन वो तो अपने ही अँधेरों से ख़फ़ा बैठी थी। "मुझ अंधी की लाठी बनना चाहते हो! नहीं चाहिऐ मुझे तुम्हारी ये हमदर्दी। मुझे अब जीवन में सिर्फ़ अपने उजाले चाहिऐ, लौटा सकते हो मेरी आँखों के उजाले! दे सकते हो मेरे सभी रंगों को वापिस! नहीं तुम नहीं दे सकते...!" वो कहती रही और वो सुनता रहा, क्या कहता वो? बस चुप रहा और आँखें झुकाऐ चला गया उसकी दुनिया से दूर, शायद बहुत दूर।
........और आज वो अपनी सखी के सामने बैठी मन की परते खोल रही थी। "काश अगर वो अब लौट आये तो मैं उसे अपना लूँ।"
"नहीं! शायद तुम ऐसा कभी नहीं कर पाओगी?" सखी कहीं गहरी सोच में डूबी हुई थी।
"क्यों, क्यों नहीं कर पाऊँगी?" वो असमंजस से भर उठी।
"क्यूँ कि जो कभी अपने जीवन के अँधेरों को स्वीकार नहीं कर पाई थी, वो उस हमदर्द के अँधेरोंं को कैसे निभा पाती, यदि वो लौट भी आता।" सखी की आँखों से बीता हुआ घटनाक्रम आँसुओं में बह निकला था।