सच्ची शिक्षा का अर्थ
सच्ची शिक्षा का अर्थ
दरवाजे़ पर घंटी की आवाज़ सुनकर जैसे ही सुबह सुबह सुमित ने दरवाजा खोला सामने गांव के मास्टर जी और उनकी बीमार पत्नी खड़ी थीं। उनके हाथ में पुरानी सी अटैची थी। मास्टर जी को सुमित के चेहरे के हाव भाव से पता लग गया कि उन्हें सामने देख सुमित को जरा भी खुशी का अहसास न हुआ है। जबरदस्ती चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की कोशिश करते हुए बोला "अरे सर आप दोनों बिना कुछ बताए अचानक आ गये ? अंदर आइये।" मास्टर साहब अपना सामान उठाये अंदर आते हुए बोले "हाँ बेटा, अचानक ही आना पड़ा....मेरी पत्नी बीमार हैं पिछले कई दिनों से बुखार आ रहा है....उतर ही नहीं रहा, काफी कमजोर भी हो गई है। गाँव के डॉक्टर ने दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में अविलंब दिखाने की सलाह दी है....अगर तुम आज जरा वहाँ नंबर लगाने में मदद कर सको तो..."
“ अरे...नहीं नहीं सर, मुझे तो ऑफ़िस से छुट्टी मिलना असंभव सा है।" बात काटते हुए सुमित बोल पड़ा ।थोड़ी देर में सुमित की पत्नी शालू ने भी अनमने ढंग से से दो कप चाय और कुछ बिस्किट उन दोनों बुजुर्गों के सामने टेबल पर रख दिये। इसी बीच उनकी पाँच वर्षीया बिटिया तनु सोकर उठी तो मास्टर जी और उनकी पत्नी को देखकर खुशी से झूम उठी, चहकते हुए "दादू दादी" बोलकर उनसे लिपट गयी। दरअसल छः महीने पहले जब सुमित एक सप्ताह के लिए गाँव गया था तो तनु ज्यादातर मास्टर जी के घर पर ही खेला करती थी। मास्टर जी निःसंतान थे और उनका छोटा सा घर सुमित के गाँव वाले घर से बिल्कुल सटा था। बूढ़े मास्टर साहब तनु के साथ खूब खेलते और उनकी पत्नी बूढ़ी होने के बाबजूद दिन भर कुछ न कुछ बनाकर तनु को खिलातीं रहती थीं। उस एक सप्ताह में तनु बूढ़े मास्टर दंपति के साथ खूब घुल मिल गई थी। जब सुमित का परिवार गाँव से दिल्ली वापस जाने लगा तो तनु खूब रोई। उसके अपने दादा दादी तो थे नहीं इसलिये वह मास्टर जी और मास्टरनी जी को ही अपने दादा दादी की तरह समझने लगी थी। जाते समय सुमित ने अपने घर का पता देते हुए कहा था कि “कभी भी दिल्ली आएं तो हमारे घर जरूर आएं...हमें बहुत अच्छा लगेगा।"
मास्टर जी जैसे ही बाथरूम से बाहर निकले, उन्हें शालू की फुसफुसाती सी आवाज़ सुनाई दी, "क्या जरूरत थी तुम्हें इनको अपना पता देने की.....आज मेरी किटी है...शाम को मेरी सहेलियाँ आयेंगी....अब मैं किटी की तैयारी करूँ या इन बूढ़े-बुढ़िया के लिये ख़ाना बनाऊँ ? और तनु को भी अंदर ले आओ....पता नहीं उस बुढ़िया मास्टरनी को क्या बीमारी है...कहीं मेरी तनु को भी वह बीमारी न लग जाए।“ मुझे क्या पता था कि सच में ये दोनों यहाँ आ टपकेंगे...रुको किसी तरह इन्हें यहाँ से टरकाता हूँ।" सुमित ने ग़ुस्से से बिफ़रती हुई शालू को शांत करने की कोशिश की।
वृद्ध दंपति यात्रा से थके हारे और भूखे प्यासे यह सोच कर आये थे, कि सुमित के घर पहुँच कर थोड़ा आराम करेंगे और सबके साथ नाश्ता कर अस्पताल को निकलेंगे। इसलिये उन्होंने कुछ खाया पिया भी न था। आखिर बचपन में कितनी बार उन्होंने भी तो सुमित को उसके मनपसंद आलू के देसी घी वाले पराँठे खिलाये हैं। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि सुमित भी उनका पूरा ख़्याल रखेगा और उनकी यथासंभव मदद करेगा परन्तु.....
शालू को समझा कर जब सुमित हॉल में आया तो देखा चाय बिस्कुट वैसे ही पड़े हैं और वे असहाय वृद्ध दंपति वहाँ से जा चुके हैं।पहली बार दिल्ली आए दोनों बुजुर्ग किसी तरह टैक्सी से अस्पताल पहुँचे और भारी भीड़ के बीच थोड़ा सुस्ताने के लिये एक जगह जमीन पर बैठ गए। तभी उनके पास एक आदमी आया और उनके पाँव छू लिये। मास्टर जी ने सकपकाते हुए उससे पूछा “ कौन हो भाई ? मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।“ उस आदमी ने गाँव का नाम बताते हुए कहा “आप मास्टर जी और मास्टरनी जी हैं ना। मुझे नहीं पहचाना ? मैं मोहन....आपने मुझे पढ़ाया है।"
मास्टर जी को याद आया और बोल पड़े “ अरे....यह तो नन्दू का बेटा मोहन है।“ नन्दू गाँव में नालियां साफ करने का काम करता था। मोहन को हरिजन होने के कारण स्कूल में आने पर गांववालो को ऐतराज था इसलिए मास्टर साहब शाम में एक घंटे मोहन को अपने घर पर अलग से पढ़ा दिया करते थे।"
" मैं इस अस्पताल में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी हूँ। साफ सफाई से लेकर पोस्टमार्टम रूम तक की सारी जिम्मेवारी मेरी है।"
मोहन से हँस कर अपना पूरा परिचय दिया फिर तुरंत मास्टर जी की अटैची उठाकर वहीं पीछे बने अपने एक रूम वाले छोटे से क्वार्टर में ले गया। रास्ते में अपने साथ काम करने वाले लोगों को खुशी खुशी बता रहा था मेरे रिश्तेदार आये हैं, मैं इन्हें घर पहुँचाकर अभी आता हूँ। घर पहुँचते ही मोहन ने अपनी पत्नी को सारी बात बताई। उसकी पत्नी ने भी खुशी खुशी तुरंत दोनों के पैर छुए फिर वृद्ध दंपति के लिये नाश्ता बनाने में जुट गई। मोहन का छोटा सा बेटा उन बुजुर्गों के साथ जल्दी ही घुल मिल गया।
"आपलोग नाश्ता कर के आराम करें आज मैं जो कुछ भी हूँ आपकी बदौलत ही हूँ....मैं अभी अस्पताल में नम्बर लगा देता हूँ....जब आपका नम्बर आयेगा तब मैं आप दोनों को डॉक्टर के पास ले चलूंगा।
मास्टरनी जी का नंबर आते ही मोहन हाथ जोड़कर डॉक्टर से बोला, "जरा अच्छे से इनका इलाज़ करना डॉक्टर साहब ये मेरी बूढ़ी माई है।"
यह सुनकर बूढ़ी मास्टरनी की आँखों से ख़ुशी के आँसू छलक पड़े। उन्होंने आशीर्वाद की झड़ियां लगाते हुए अपने काँपते हाथ मोहन के सिर पर रख दिए। उन नि:संतान दंपति को आज एक बेटा मिल गया, मास्टर जी सोच रहे थे कि उन्होंने जीवन भर अपने सभी विद्यार्थियों को मानवता का पाठ पढ़ाया परन्तु उनमें से कुछ ही इस पाठ को अपने जीवन में उतार पाये। शिक्षित होने का अर्थ केवल डिग्रियाँ हासिल करना ही नहीं होता, आपसी प्रेम, करुणा, परस्पर स्नेह और मानवता के गुणों से परिपूर्ण इंसान ही सही अर्थों में शिक्षित है।