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असफल इंसान या इश्क़ ?

असफल इंसान या इश्क़ ?

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मर चुका था।

हाँ, हाँ, मर चुका था।

हृदय के पटल पे उसकी हर एक छाप, जो अमिट मालूम पड़ती थी, वो मिट चुकी थी।

हालांकि शरीर में अब भी लहू दौड़ रहा था, साँसे चल रही थीं, नजरें खोज रही थी, आँखें बिलख रही थी, कंठ सूख रहा था पर वो हमारे बीच नहीं था।

"एक कोशिश और की होती उसे रोकने को।"

ये सोच-सोच दिल बैठा जा रहा था। ताउम्र सहेज के अपनी बाँहों के लपेटे में रखने का वादा जो वो कर बैठा था उससे। उसके साथ बिताया हर एक पल, अब एक हसीन पर काल्पनिक एहसास सा था, जिसे फिर पा लेने को ऊपर बैठे मसीहा से उसने ना जाने कितनी गुहार लगाई।

उनको इंसानों कि भाँति लालच देकर भी मोहने की कोशिश विफल रही। शायद, आज उसको खोने पे कुछ उतना ही पागल बन बैठा था जितना कभी पाने पे हुआ करता।

सोचता किसी को पाकर, खोने का हक़ भी नहीं मिलता बहुतों को। पर ऐसा हक़ लेना भी कौन चाहेगा !

खैर, खुद से खुद को दिलासा भी कितना दे पाता। जाने अनजाने में ही सही, पर उसके मौत का कारण भी तो वो खुद ही था।

ढलती शाम को सूरज देख सोचता, कि किस अभागी के घर जन्म हुआ था इसका, जो उसे चार कंधे भी ना दिलवा पाए, पर सत्य भी तो यही था कि वो इसी कमजोर कंधे के सहारे इन सुर्ख दीवारों पे चढ़ा था।

अपने कातिल हाथों से, उसने उस "असफल इश्क़" को अर्थी पर कुछ यूँ रखा, मानो उससे अपना सारा कर्ज उतार लिया हो।

कसाव मे बीता हर पल आज चलचित्र की भाँति समूचा आँखों के सामने था।

खैर, किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में ही वो जनाजा निकल चुका था। जनाजे में पुरानी यादें, अधूरे ख्वाब, वो खट्टे मीठे पल, नफरत की दीवार, झूठा वादा सभी शामिल हुए।

सभी की आँखों में सैलाब था। वो झूठा वादा आज भी मंद मंद मुस्कुरा रहा था। उस नफरत की दीवार में भले ही दरारें आ गयीं हो पर वो आज भी अडिग था।

अर्थी पे लेटे "असफ़ल इश्क़" ने आज भी उस एक चेहरे की ताक में अपने मन की आँखों को बेपर्दा कर लिया था। मानों उस चेहरे को निहार कर खुद को सफल कर लेना चाहता हो।

इसी बीच वो कमजोर कंधा भी अब झुकने लगा। साँसे थमने लगी थी। आँखे धुंधली पड़ गयी थी। शरीर ठंडा पड़ गया था। भले इश्क़ असफल ही क्यूँ ना हो पर उसके जीवन की प्राणवायु भी तो वही था। अब दोनों एक साथ इस संसार को छोड़, एक बहुत बड़ा प्रश्न पीछे छोड़ गए

"असफल इंसान है या उसका इश्क़ ?"


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