टिक-टिक-टिक
टिक-टिक-टिक
आज सूरज कितना निस्तेज हो रहा है।
दिन के एक बजे जब उसे अपने परम तापमान पर होना चाहिए, बिंदी जैसा चमक रहा है आसमान के चेहरे पर, और यह दुष्ट कोहरा, जैसे सूरज को ज़ंग में हराने को अमादा हो। जैसे कह रहा हो, "निकल कर दिखा, देख मैं धुआँ-धुआँ सा, कोहरा तेरा रास्ता रोके खड़ा हूँ।
लाख कोशिश करने के बाद भी कोहरे की जकड़न से मुक्त नहीं हो पा रहा था सूरज।
उसकी इस हालत पर गुस्सा भी आ रहा है और तरस भी। तभी तो कहते हैं न किसी बात का घमंड नहीं करना चाहिए। ये वही सूरज है जो जून के महीने में अपने अहंकार के कारण इतना तेज़ और गरम चमकता है। आज कहाँ गयी इसकी ताक़त। एक अदने से कोहरे से डरकर क्यों मुँह छिपा रहा है ? डरपोक कहीं का ! जो महान होते हैं वो तो हमेशा एक से रहते हैं।
पापा ने तो कहा था, "सुख-दुःख में, हार में, जीत में, सभी परिस्थितियों में जो सदैव एक से रहते हैं, महान होते हैं।"
तो क्या सूरज महान है ? लगता है सूरज को मेरी डाँट से शर्म आ रही है। तभी तो कैसे झाँक रहा है बादलों के बीच से।
सुहानी को अपनी बहादुरी पर हँसी आ गयी वह बोली,
"मामी देखो, सूरज भी डर गया मेरी डाँट से और निकल आया ना।"
"तुझसे तो सारी दुनिया डरती है, अरे, तेरी क्या बात !"
मामी ने हाथ फैंकते हुए मुँह बनाते हुए कहा।
"आओ न मामी मेरे पास बैठो खाट पर, धूप अच्छी निकल रही है।", सुहानी ने बुलाते हुए कहा।
"नहीं मैं तो कुर्सी पर बैठूँगी, बड़ी मुश्किल से मिलती है कुर्सी। सब कुर्सी की माया है।"
मामी ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा और सब खिलखिलाकर हँस पड़े,
"हाँ सब कुर्सी की ही माया है, जब तक कुर्सी पर है तब तक सारी दुनिया अपनी। सभी अपने रिश्तेदार बन जाते हैं और कुर्सी से उतरते ही अपना साया भी पहचानने से इंकार कर देता है।"
बहुत देर से चुपचाप लेटे मामाजी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा,
"कुर्सी का गम क्या होता है, पूछो उससे, जो रिटायर होने वाला हो। सिर पर चार जवान लड़कियों की चिंता हो। शरीर में तो ताक़त है, ज़िंदगी के तूफानों से लड़़ने की पर अगर उससे वो ज़मीन ही छीन ली जाये तो उसे चारों ओर अँधेरा ही दिखाई देता है। एक बार फिर से बेरोज़गार होने का गम स्वाभिमान को छलनी कर देता है। जिसने सारी ज़िंदगी सिर्फ दिया हो, हमेशा दूसरो की मदद की हो, जिससे एक पल भी खाली न बैठा जाये वो सरे दिन घर पर खाली कैसे बैठ सकता है ?"
कुछ ऐसी ही स्थिति उस समय मामाजी की हो रही थी। उनका रिटायरमेंट है और बेरोज़गार होने के गम में सुबह से ही उदास लेटे हैं।
चिंता चिता से भी बढ़कर होती है। हसँते-खेलते चेहरे को चिड़चिड़ा बना देती है। वो इंसान अपनी इस अकुलाहट, इस बेचैनी को दूसरों पर गुस्से के रूप में निकालता है।
सुहानी फिर से यादों में खो जाती है जैसे कल की ही बात हो,
"समय कितनी तेज़ी से बदलता है,पता ही नहीं चलता। गाँव का जीवन कितना सरल होता है न, कोई लाग लपेट नहीं, कोई दिखावा नहीं। कम साधनों में भी परम सुख की अनुभूति। कितना निश्छल और पवित्र मन होता है गाँव की भोली लड़कियों का। सचमुच गाँव की मिटटी से आने वाली खुशबू कितना आनंदित करती है। रोम-रोम पुलकित हो उठता है।"
सुहानी अपने गाँव की यादों में खोई कच्ची मिटटी की खुशबू को महसूस करने लगती है,
"वो आँगन में चूल्हे पर माँ का खाना बनाना, चूल्हे के चारों ओर परिजनों का बैठना, गरम-गरम माँ के हाथ की बाजरे की रोटी के इंतजार में गिनती करना। माँ का रोटी थपथपाते हुए हमें देखना और हँसना। सब याद आ रहा है।
आज न जाने क्यों ? कितने प्यार से माँ बाजरे के आटे को हथेली के सहारे आहिस्ता आहिस्ता मथती थी। बीच में से टूट न जाये, धीरे धीरे रोटी को बढ़ाती। कितना स्वाद था न माँ के बने खाने में।"
टिक-टिक-टिक घड़ी की सुइयों से अचानक धयान भंग होता है सुहानी का।
फिर शहरी दुनिया में लौटते हुए वह सोचती है,
"किसी का दिन यूँ ही कैसे बीत जाता है ? कब कहाँ जाना है क्या करना है ? खुद को भी पता नहीं रहता। कब दिन ढलता है, कब रात होती है, पता ही नहीं चलता ? रोज़ अपने कार्यो की लिस्ट बनाती हूँ पर करती कुछ और ही हूँ।
सारा टाइम टेबल रखा रह जाता है। पहले किसी और काम की प्राथमिकता आ जाती है और उस काम के चक्कर में अपना काम भूल जाती हूँ। क्या हो गया है मुझे ? इतनी भुलक्कड़ तो कभी न थी। जाती हूँ किसी काम से, बीच में कोई दूसरा काम बता देता है। जाना होता है लाइब्रेरी, पहुँच जाती हूँ प्राचार्य के ऑफिस में।
कभी बाबूजी के ऑफिस, कभी लाइब्रेरी, कभी मास्कों की क्लास, कभी हिंदी की क्लास, कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी इस संपादक फोन तो कभी किसी दोस्त को मदद चाहिए। सबकी सुनते सुनते खुद की खबर नहीं रहती। दिन और रात के बारे में सोचने की फुरसत किसे है ?"
सुहानी को उसकी मम्मी ने टोका,
"अब बस भी कर, सुबह शाम चटर-पटर, चटर पटर। कभी चुप नहीं होती ये लड़की। चल चाय बना ले सब के लिए।"
सुहानी हँसते हुए, कुछ गुनगुनाते हुए, चाय बनाने चली जाती है। चाय बनाते उए उसे कई काम याद आते हैं। चाय की पत्ती डाली तो कपडे उतारने आयी, जल्दी से दौड़कर कपडे उतारकर लाई, चाय में चीनी डाली तो पीछे से पापा की आवाज़, "पानी लाना एक गिलास"
भागकर पानी देकर आती है, चाय में दूध डालती हुए मुस्कराती रहती है। चाय के खोलने तक आता छाँटती है, फिर सबको चाय देकर आती है। खुद पीती है, चलते-चलते, भागते-भागते।
एक घूँट चाय, गेट पर खटखट।
गेट खोलने गई, आकर कप उठाया तो, "बेटा पानी लाओ, टंकी बंद करो, ये करो, वो करो।"
किसी का कुछ तो किसी का कुछ। चाय ठंडी हो जाती है। अब ठंडी चाय किस काम की।
सुहानी उसे सींक में डाल देती है। रसोई में कुछ ढूँढ़ते हुए ख़ुशी से उछाल पड़ती है,
"अरे वाह बर्फी ! वाह क्या बात है !"
कहते हुए सबको बताती है, "आज मैं ज़रूर समय से पढ़ाई करूँगी।"
मिनी उसका मज़ाक बनाते हुए कहती है, "रहने दे बस, तू और......"
इस पर सब हँसने लगते हैं।
घडी टिक-टिक-टिक चलती रहती है। चलती रहती है। सुहानी की ज़िंदगी भी। किसी काम का समय निश्चित हो न हो पर सुहानी के जागने का समय, ठीक चार बजे, बिना किसी अलार्म के निश्चित रहता है।
ग्वालों को उसके उठने के साथ ही समय भी ज्ञात हो जाता है। वे कहते हैं, "अजीब लड़की है ये सुहानी भी सारे दिन न जाने क्या क्या करती है। बस इधर कूद, उधर भाग, कभी चैन से नहीं बैठती।"
मम्मी का स्वर सुनाई देता है।
सुहानी घड़ी की ओर देखती है। टिक-टिक-टिक "ओह्ह नो ! छह बज गए, अभी तो वार्ता लिखनी है, संपादक के लिए रिपोर्ट लिखनी है, क्या करूँ ? क्या करूँ ? यह समय ?"