लालाजी के छोले भटूरे
लालाजी के छोले भटूरे
मेरी पहली पोस्टिंग अलीगढ़ में थी, सारा स्टाफ साथ में ही रहता था। अब क्योंकि में एक शेयर मार्किट की निजी कंपनी में काम करता था और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज 9 बजे खुलता था, मैं 8 बजे ही ऑफिस के लिए निकल पड़ता था। रास्ते में नाश्ते के लिए मैं दुकानें खोजता था, उनमे से एक दुकान में मैं रेगुलर हो गया था, वो थी लालाजी के छोले भटूरे । लालाजी अपने नाम के मुताबिक वास्तव में लालाजी ही थे, छोटा कद काठी, दो ऊँगली की थाथी, रोज़ की पूजा पाठ, सरवस्ती और लक्ष्मी दोनों की तस्वीरें उन्होंने अपनी कुर्सी के ऊपर लगा रखी थीं, गर्दन घुमाते तो यूँ लगता मानो भगवान ने जबरजस्ती उनके गले में मिट्टी घुसाई हो। मैं रोज़ाना उनका पहला ग्राहक होता था, या शायद दूसरा, पहली तो वो एक बूढ़ी अम्मा थी जिसके लिए वो अपने हाथ से थाली सजाते थे। वो बूढ़ी अम्मा उनको पैसे तो नहीं पर ढेर सारी दुआएं ज़रूर दे कर जाती थी। धीरे-धीरे लालाजी से मेरी दोस्ती हो गयी हालांकि मैं उम्र में उनसे बहुत छोटा था, फिर भी सारे जहाँ की बातें दो भटूरों में ही समा जातीं थीं। उन्होंने मुझसे मेरे नाश्ते के पैसे लेने भी बंद कर दिए। मैंने उनका खाता अपनी कंपनी में खुलवा दिया और अब रोज़ की चर्चाएं शेयर मार्केट, अर्थव्यवस्था और राजनीति पर आ गयीं थीं। मैं लालाजी के घर में दाखिल हो चुका था और लालाजी के दुकान के फलने फूलने का रहस्य मुझे मालूम पड़ गया था, इंसानियत। एक दिन उन्होंने मुझे अपने बेटे से मिलवाया, कान में हेडफोन लगाया हुआ वो बालक अपने पिता के विपरीत बिलकुल आधुनिक था, उसने मुझे हेल्लो किया, लाला जी मुझसे बोले "देखना इसे एक दिन मैं बिजनेसमैन बनाऊँगा, बिजनेसमैन"। लालाजी के चेहरे पर एक उम्मीद थी, एक अजीब सी कसमसाहट, जैसे कि हर बाप के दिल में होती है कि मेरी औलाद मुझसे भी कहीं आगे बढ़े। एक दिन बूढ़ी अम्मा की कहानी मैंने पूछ ही ली कौतूहलवश, वो बोले कि "भगवान ने इस धरती पर किसी को कम किसी को ज्यादा इसलिए दे रखा है कि हम सब आपस में इसे बाँट लें, मेरे पास अगर कुछ है बांटने के लिए तो मैं ज़रूर बांटता हूँ, मेरे पास अगर कुछ है तो भगवान ने दिया है, इस पर घमंड कैसा"। सिंपल सी बात थी मगर हिला कर रख गयी मुझे। ये लालाजी वाली बात पर तो रॉयल्टी कमाई जा सकती थी।
यूँ ही चलता रहा और दिसंबर 2007 में मैं कलकत्ता गया अपने चचेरे भाई की शादी में दस पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर। मैं जब वापस आया तो मूड एक दम फ्रेश था। आदत अनुसार पहले दिन मैं लालाजी की दुकान पर पहुँचा तो देखा कि उनका बेटा बैठा था दुकान पर, मैंने सोचा लालाजी भी कहीं गए होंगे, आखिर तीर्थ का महीना था। मैंने उनके बेटे से लालाजी के बारे में पूछा तो पता चला कि लालाजी का दिल के दौरे से स्वर्ग वास हो गया करीब दस दिन पहले। मानो एक झटका सा लगा, मैं शादी के खुमार से एक दम ही हक़ीक़त की दुनिया में आ गया। मैंने अपनी संवेदनाएं प्रकट कीं। इतने में मैंने देखा कि वो बूढ़ी अम्मा दुकान पर खड़ी थी, लालाजी के लड़के ने झिड़क के पूछा " क्या है"? बूढ़ी अम्मा ने अपने एक हाथ से अपने पेट को सहलाते हुए दूसरे हाथ से एक कौर बना कर अपने होंठ तक लायी, जवाब सिर्फ इतना आया "पैसे हैं"? अम्मा के पास पैसे तो न थे मगर दुआएं अब भीं थीं, वो भूली नहीं थी कि इस दुकान के मालिक ने बरसों तक उसके भूखे पेट को पाला था। वो वहां से भूखी ही चली गयी। मैंने भी शायद आधा भटूरा थाली में छोड़ ही दिया और इससे पहले कि दुकान का मालिक मुझसे पैसे मांगता मैंने पहले ही उसके बिल का भुगतान कर दिया था। बाहर निकल कर मैंने ऊपर देखा और हंसकर लालाजी को बोल ही दिया "मुबारक हो लालाजी, आपका बेटा बिजनेसमैन बन गया"।