अंत-सा प्रारम्भ
अंत-सा प्रारम्भ
स्नातक अंतिम वर्ष की अंतिम परीक्षा का दिन। परीक्षा केंद्र से बाहर आया। नज़रें उसे ही तलाश रही थी। सामने के पेड़ के नीचे उसे देखते ही महसूस हुआ कि तलाश एक तरफा नहीं थी। मुझे देखते ही उसका चेहरा खिल उठा उसके पास पहुँचा। अति उत्साह में उसे कुछ बोल नहीं पा रहा था। उसी ने शुरुआत की।
"पेपर कैसे गये?"
थूक गटकते हुए बोला, "ब् बहुत बढ़िया और तुम्हारे?"
"मेरे भी।"
"डर !..." लड़खड़ाती आवाज़ में इतना ही बोल पाय, "मतलब?"
"फिल्म है, अच्छी फिल्म।"
"हाँ... तो?"
"मैं एकतरफ़ा प्यार में पागल उसके खलनायक की तरह नहीं जीना चाहता।" उसकी झुकती नजरें और विस्मृत मुस्कान अब मुझे सामान्य होने के लिए हौंसला दे रहीं थीं।
"तुम ऐसा क्यों सोचते हो?", उसने मुँह बिचकाया।
"इन तीन सालों में तुम्हारे बारे में बहुत कुछ सोच बैठा हूँ।"
मेरी उम्मीद के विरुद्ध अब उसकी आँखों में दर्द छलकने लगा और होंठ मानो एक-दूसरे से चिपक गये थे।
"तुम चुप क्यों हो?"
"मेरा मकसद कुछ और है। मुझे उसी की तरफ बढ़ना है।"
"क्या मकसद है?''
"करियर...."
"अरे! तो मैंने कब कहा कि पढ़ना छोड़ दो? हम दोनों आगे बढ़ेंगे। अपनी रूचि के अनुरूप..."
"पर...।"
अब तक मैं समझ चुका था कि वह मुझे टालने की कोशिश कर रही थी।
"तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो?" उसका कंधा हिलाते हुए मैंने पूछा।
"मेरे सोचने से कुछ नहीं होगा।" उसकी नज़रें मेरी आँखों में जम गयी। मेरी आँखों के सवाल उनमें तैर रहे थे।
"कुदरत किसी को बस खूबसूरत शक्ल, स्वस्थ शरीर और अच्छी अक्ल दे दे, इतना ही काफ़ी नहीं होता।" मेरे दिमाग़ पे हथौड़े चल रहे थे। इंसान को ये तीनों चीजें कुदरती तौर पर पूर्ण बनाती हैं। ये तीनों नीलू के पास थी। फिर भी उसे कुदरत से शिकायत थी।
"जैसी मैं दिखती हूँ, कुदरती तौर पर मैं वैसी हूँ नहीं।" काँपती आवाज़ में उसने बोलना ज़ारी रखा, "हमारे बीच प्राकृतिक प्रेम सम्बन्ध बन ही नहीं सकते। और... हाँ... चाहने लगी हूँ तुम्हें।"
उसने मेरा हाथ पकड़ा उस पर अपना नया पता व नम्बर लिखा और चल पड़ी मैं आवाक् कभी उसे कभी अपने हाथ को देख रहा था।