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गुड़ियों वाला घर

गुड़ियों वाला घर

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स्कूल से बस थोड़ा ही पहले, जाते हुए बाए हाथ, आते हुए दाहिने हाथ पड़ता, उस घर के दरवाजे पर कपड़े से बनी कुछ गुड़िया लटकी होती उनकी आंखें और मुँह लाल धागे से बने होते। मुग्ध हम दोनों बहनें ठहर जातीं। ,,उन्हें ललचाई आँखों से देखतीं, एक रोज बहन ने हिम्मत कर पूछ ही लिया दाम।

कितने की है ?

एक रुपये ,,,एक हम उम्र लड़की ने जबाब दिया।

लेकिन हमारे पास में कुछ भी नहीं था।

हम दोनों बहने गुड़िया को याद करते कसक लिये घर आ गये। अम्मा के साथ आगे -पीछे भूमिका बनाते रहे।

अम्मा एक रुपये दे दो, गुड़िया देखी है, बहुत अच्छी है।

कहाँ है गुड़िया ?

वो स्कूल के पास एक जगह..।

अम्मा ने एक रुपया क्या दिया, रात भर उसी को सोचते कब सो गये। जाते हुये उस घर को निहारते स्कूल पहुंचे, मन कहाँ लगा, कब जल्दी छुट्टी हो, बस ऐसी जल्दी मची रही दिनभर। स्कूल से छुट्टी होते ही पहुँच गये गुड़िया लेने जहां गुड़िया लटकी रहती, जैसे वंदनवार हो। कमरे में वही लड़की, उस कमरे के एक कोने में उसके अब्बा रहे होंगे, मशीन पर कपड़े सी रहे थे...वो दर्जी थे शायद ..अम्मी एक थैले में भरे कतरनों से वैसी ही गुड़िया बना रही थी।

मुझे गुड़िया चाहिए,,,

कौन सी ?

कौन सी बताते ...मन तो था ,सारी ले लेते लेकिन अम्मा ने बस एक रुपया दिया था। मन मार कर किसी तरह उन में से एक लेकर उड़ते हुये से घर आ गये ...बहुत खुश...

देखें क्या लाई ? अम्मा ने पूछा

यही बड़ी सुन्दर है, इससे कितनी अच्छी तुम्हारी गुड़िया है, जो हमने बनाई है।

सच,अम्मा की बनाई गुड़िया वाकई सुन्दर थी, अम्मा ने उसकी सच्चे बालों से लम्बी चुटिया भी बनाई थी। सारी उंगलिया भी। उसकी कपड़े भी दो सेट थे, लेकिन उससे शायद ऊब गये थे हम।

ऐसी कितनी ही गुड़िया वहां से खरीदते रहे। वो खपरेल का घर, गुड़िया वाला कभी न् भूला। आज भी वो घर जेहन में बराबर तैरता है गुड़ियों के साथ।

कई बरस बाद उस शहर जाना हुआ, कदम बढ़ चले उस गुड़िया वाले घर को ढूढ़ने।

कहाँ, कहीं तो नहीं है वो घर, वहां ऊंची ऊंची बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो गई, मैं वही रोड़ पर खड़ी, लगा भूलभुलैया में आ गई। किसी से पूछ लिया- यहां एक दर्जी चच्चा होते थे ?

लगता है बहुत साल बाद आई हो इस शहर।

हाँ

वो तो कब का बेच बाच यहां से चले गए।

अच्छा

पता नहीं अब भी गुड़िया बनाते होंगे कि नही..

मन तो आज भी वही बारह बरस का हुआ पड़ा है।


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