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हैलो फ़्रेण्डशिप----।

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                                                                    हैलो फ़्रेण्डशिप

                                                                                                                                  डा0हेमन्त कुमार

     

                                   राघव बेंच पर एकदम खामोश बैठा था। अपने कालेज के पीछे वाले पार्क की बेंच पर।उसके चेहरे पर चस्पा तनाव साफ़ देखा जा था।पूरे पार्क में उसके अलावा बहुत से परिवार के लोग थे।बहुत सारे बच्चे। उनके माता पिता।सब किसी न किसी खेल या दूसरे मनोरंजन के साधनों में मशगूल थे।कोई बच्चा बाल से खेल रहा था।कोई  गुब्बारे उड़ा रहा था। किसी को झूले पर झूलना था तो कोई अपनी मम्मी से आइसक्रीम की जिद कर रहा था।बस राघव ही था जो एक किनारे भीड़ से अलग थलग मौलश्री की छाया वाली बेंच पर अकेला बैठा था।एकदम अशान्त सा।

                                                        वैसे तो इस पार्क का यह कोना और मौलश्री की घनी छांव के नीचे बनी बेंच इन दोनों से ही उसका बहुत पुराना रिश्ता हो गया था। सेण्ट जोसेफ़ इण्टर कालेज में जब उसने प्रेप में एडमिशन लिया था तो पहली बार वह यहां आया था।एडमिशन के बाद कालेज के बगल में पार्क देखकर उसने मम्मी पापा से पार्क में चलने की जिद की थी। उस समय वह कुल चार साल का था। एक छोटा बच्चा।मम्मी पापा भी उसके इतने अच्छे कालेज में एडमिशन हो जाने की खुशी में उसे लेकर याहां आ गये थे। और संयोग से पार्क के कोने  वाली यही बेंच मम्मी पापा को भी पसन्द आयी।दोनों उसी पर बैठ गये और नन्हां राघव वहीं आस पास अपनी गेंद से काफ़ी देर तक खेलता रहा था।एकाध घण्टे वहां बिताने के बाद राघव मम्मी पापा के साथ वापस घर लौट गया था। लेकिन उसी समय से वह मौलश्री का पेड़ और उसके नीचे की बेंच उसे बहुत अच्छे लगने लगे थे। उस बेंच और मौलश्री से उसे एक लगाव सा हो गया था। छुटपन में तो नहीं हां क्लास बढ़ने के साथ ही इस बेंच और मौलश्री से उअस्का लगाव बढ़ता ही गया।वह अक्सर छुट्टी वाले दिन शालू,गीता और अमर के साथ यहां खेलने भी आता।एक्जाम्स के समय अक्सर अकेले यहां आकर वह पढ़ता भी था। कालेज में न मिलने पर उसके दोस्त भी उसे खोजने यहीं आते थे।

                                                       पर आज वह इस बेंच पर बैठ कर पढ़ने या खेलने नहीं आया था।वह यहां बैठ कर उस मुसीबत के बारे में सोच रहा था जिसने पिछले तीन चार दिनों से उसकी नींद चैन सब कुछ छीन लिया था। अचानक  पंद्रह हजार रूपयों का इंतजाम करना उसके लिये एक भारी मुसीबत ही तो थी।किससे मांगेगा वह पंद्रह हजार रूपये?कौन देगा उसे इतने ढेर सारे रूपये?

                                                राघव चार दिनों से इसी तनाव में जी रहा था।उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह इस मुसीबत से कैसे छुटकारा पाये।किसको बताए अपनी प्राब्लम? मम्मी पापा को--- कोई सवाल ही नहीं उठता।शालू—गीता---अमर?क्या कहेंगे सब—सिवाय उसका मजाक उड़ाने के?इसी उधेड़बुन में बैठे बैठे राघव की आंखों में आंसू आ गये।वह जेब से  रूमाल निकालने ही जा रहा था कि किसी ने पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रखा।राघव एकदम से हड़बड़ा कर पीछे मुड़ा।उसके पीछे गीता,शालू और अमर खड़े मुस्कुरा रहे थे।

                                        राघव ने उन्हें देख कर जबर्दस्ती मुस्कुराने की कोशिश तो की पर अन्दर का दर्द उसके चेहरे पर उभर ही आया। वह कुछ बोल नहीं सका। कन्धे पर रखा गीता का हाथ पकड़ कर फ़ूट फ़ूट कर रोने लगा।गीता के इशारे पर अमर उसकी बगल में जा बैठा और उसके बालों को हल्के हल्के सहलाने लगा। जब राघव का रोना कुछ कम हुआतो वह उन तीनों से कुछ कहने चला।पर गीता ने ही उसे रोक दिया।“नहीं राघव---चलो पहले अपने अड्डे पर चल कर एक काफ़ी पीते हैं फ़िर तुमसे बातें करेंगे।”और अपने तीनों दोस्तों के साथ राघव कालेज के सामने वाले सस्ते रेस्टोरेण्ट  की तरफ़ बढ़ गया।

                                           जब सबने आधी आधी काफ़ी खतम कर ली और राघव कुछ नार्मल हो गया तब गीता ने उससे पूछा--,“ हां राघव अब बताओ क्या कह रहे थे तुम?”पर राघव खामोश सर नीचा किये बैठा  रहा। गीता ने पूछ ही लिया-“ क्या कोई ऐसी बात है जो हमे बताने लायक नहीं?”

                                          अमर ने भी उसके मन की थाह लेने की कोशिश की—“राघव आज तो तुम्हें सर भी पूछ रहे थे।पर राघव के मन में अभी भी गहरी उथल पुथल मची थी। वह उसी तरह गुम सुम बैठा रहा।शालू भी राघव के थोड़ा और पास आ गयी।

“ आखिर बात क्या है राघव? कुछ हमें भी तो बताओ?”शालू ने मचल कर अपनी पुरानी टोन में पूछा।

एक लम्बी सांस खींच कर राघव ने कुछ बताना चाहा--- “क्या बताऊॅ शालू...कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या करूं --- पर आधी बात राघव के गले में ही रह गयी।

गीता, “तुम्हें किस बात की परेशानी है इस समय।”

शालू ने फ़िर अपने पुराने अन्दाज में ही बात को आगे बढ़ाने की कोशिश की। “पिछले आठ दस दिनों से तुम्हारा व्यवहार बदल गया हैं। हर समय कुछ सोचते रहते हो? चार दिनों से कालेज में गोला मारते रहे।आज आकर भी क्लास में नहीं आए।“ उसे लगा कि शायद उसकी बात से माहौल कुछ हल्का हो जाएगा।

        लेकिन राघव उसी तरह गुमसुम बैठा था।हालांकि उसे ये बात महसूस हो रही थी कि उसे दोस्तों के सवालों का जवाब देना भी तो जरूरी है। सो उसी तरह उदासी भरी आवाज में उसने जवाब दिया—“आज भी क्लास में आने का मन नहीं हुआ।”

  अब तो मानो शालू का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया।वह अपनी अब तक की पुरानी मचलने वाली अदा छोड़ कर लगभग चीख ही पड़ती अगर अमर ने उसे शान्त रहने का इशारा न किया होता।

“ केवल इतना कह देना काफी नहीं राघव। आखिर कौन सी मुसीबत टूट पड़ी है तुम पर ? जो हमसे भी तुम्हारा व्यवहार इस तरह बदल  गया।”शालू की आवाज में छुपी खीझ और गुस्सा साफ़ झलक रहा था।

         गीता ने भी राघव को अपनी तरफ़ से समझाने की ही कोशिश की थी,“राघव हम तुम्हारे दोस्त हैं।हमें ही बताओ शायद हम तुम्हारी कुछ मदद कर सकें।”

पर गीता की बात सुनते ही राघव एकदम से फ़ूट पड़ा था,“क्या मदद करोगे तुम लोग मेरी ऐं ? मुझे आज—अभी—इसी वक्त पन्द्रह हजार रूपयों की जरूरत है........... लाकर दोगे तुम लोग ?

      राघव की बात सुनते ही सबको सांप सूंघ गया।किसी तरह गीता ने जानने की कोशिश की—“पन्द्रह हजार....लेकिन किसलिए ? क्या मां की बीमारी ----?”

           राघव को तो जैसे होश ही नहीं था। वह बहुत थकी हुयी आवाज में बोला—“अगर आज पन्द्रह हजार रूपयों का इन्तजाम मैंने नहीं किया तो वो लोग सब कुछ बाबूजी को और प्रिन्सिपल साहब को बता देंगे।”इतना कहते कहते राघव फ़िर सिसकने लगा।

शालू—“कौन लोग राघव? किसकी बात कर रहा है तू?”

गीता—“ देखो राघव पहले हमें सारी बातें साफ-साफ बताओ ? शायद हम कोई रास्ता ढूंढ़ सकें।”

      राघव ने एक लम्बी सांस खींची। ऐसा लग रहा था उसके अंदर का सारा खून किसी ने निकाल लिया हो। वह बेहद निराश और थकी हुयी आवाज में बोल पड़ा—“क्या... बताऊं तुम्हें शालू ---गीता---। मैं इस समय भारी मुसीबत में फंस गया हूं। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो चुकी है।”

शालू—“ कैसी गलती राघव?”

    और फ़िर राघव उसी थकी हुयी आवाज में अपने दोस्तों को सब कुछ बताता चला गया—“शालू बताते हुए मुझे शर्म आ रही है। पिछले हफ़्ते की ही तो बात है। एक दिन मुझे रमेश ने  अखबार में छपने वाले “दोस्ती करो—नये फ़्रेण्ड्स बनाओ” वाले नम्बरों के विवरण दिखाकर पी.सी.ओ. से एक नम्बर पर फोन मिलवा दिया। वो नंबर किसी एजेंसी का था। उस नंबर पर पहले मुझसे नाम पता सब पूछ कर मेरा रजिस्ट्रेशन किया गया। फिर लड़कियों से दोस्ती कराने के लिए मुझसे पैसे मांगे गए -----और मैं भी बिना कुछ सोचे समझे उन्हें अपनी पाकेट मनी से पैसे देने लगा।”

     राघव ने फ़िर एक गहरी सांस ली—थोड़ी देर रुका –जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो। “----जब मैंने रमेश से कहा तो वह अपनी बात से मुकर गया। मैंने अपनी पूरी फीस का पैसा वहां जमा कर दिया सोचा जान बच गयी। पर यह तो मेरी मुसीबतों की शुरुआत थी। उन लोगों ने मेरी और लड़कियों के बीच होने वाली सारी बातें रिकार्ड कर ली।और अब उस एजेंसी के लोग मुझसे पन्द्रह हजार रूपये मांग रहे है। अगर मैंने कल तक उन्हें पैसे न दिए तो वे मेरी और लड़कियों की गन्दी बातों की सी डी बाबू जी के पास और कालेज में भेज देंगें-----। अब तुम लोग ही बताओं गीता मैं कहां से लाऊं रूपये कैसे बचूं इस मुसीबत सें!”----बताते बताते राघव फ़िर से अपने दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर सिसकने लगा।

       राघव की पूरी बात सुन कर तीनों स्तब्ध थे। कुछ पलों के लिये वो एकदम संज्ञाशून्य हो गये। उन्हें समझ नहीं आ रहा था की उनका प्यारा दोस्त किस मुसीबत में फ़ंस गया है और वो उसे कैसे इस भयानक गड्ढे से बाहर निकालें। लेकिन कुछ न कुछ तो करना ही होगा। कालेज के सबसे अच्छे पढ़ाकू छात्रों में गिने जाने वाले राघव को वो लोग कैसे इस गड्ढे में अकेला छोड़ सकते हैं। सब के चेहरों पर गहरी सोच के भाव थे।

    अन्त में शालू ने ही फ़िर मोर्चा सम्हाला। वह अपने उसी पुराने अन्दाज में चहक कर बोली,--“खोदा पहाड़ निकली चुहिया।अरे राघव तू इतनी छोटी सी बात के लिये इतना परेशान हो गया। ये तो सीधे सीधे एक साधारण सा ब्लैकमेलिंग का केस है। यार यहां कितने बड़े बड़े ब्लैकमेलरों को ये तुम्हारी नाचीज दोस्त शालू  किनारे लगा चुकी है।”

  पर गीता अभी भी गंभीर थी। उसे मामले की गंभीरता एकदम साफ़ नजर आ रही थी। फ़िर भी उसने राघव का मनोबल थोड़ा बढ़ाने के लिये कहा,“ओहो---तो इसीलिए तुमने पढ़ाई दोस्ती सब को छोड़ रखा है।”

        अमर ने भी माहौल बदलने के लिये ही थोड़ी चुहल की और एकदम संजयदत्त वाली स्टाइल में बोला,“ए छोकरी लोग तुम लोगों का बात तो समझ में आता है। छोकरी लोगों को अपनी किसी गर्ल फ़्रेण्ड की बात नई बताने का---उनके दिल में कुछ होता है—पर ये अमर—यार तूने अपुन को बी ये बात नईच बताया। क्या समझा था तू अपुन को कि अपुन साला तेरे केस में भांजी मार देगा।”

                 अमर का ये संजय दत्त वाली स्टाइल में बात करना राघव को बहुत पसंद था। और वह बरबस मुस्कुरा ही पड़ा। और उसके दोस्त लोग तो चाहते भी यही थे।

  “एएएए—ये हंसा अपना हीरो।”तीनों एक साथ चीख पड़े।

                 राघव भी पहले हौले से फ़िर ठहाके लगा कर हंस पड़ा। काफ़ी देर सब हंसते रहे।

फ़िर शालू ने सबको रोक कर कहा,“अच्छा भाई –अब हंसी मजाक तो बहुत हो चुका। अब आ जाओ मूल मुद्दे पर। हम सबको आगे क्या करना है।”

      “क्यों न हम सब पुलिस स्टेशन चल कर एक एफ़ आई आर दर्ज करा दें?”अमर कुछ सोचते हुये बोला।

“क्या यार अमर---तुम भी—भला इस शालू  उर्फ़ डिटेक्टिव इन चीफ़ के रहते पुलिस की बात करके हम सब की तौहीन कर रहे हो।”शालू अपने पुराने अंदाज में ही बोली।

 “देखो राघव मेरे विचार थोड़ा अलग हैं। मुझे लगता है कि तुम्हारे लिए अभी ज्यादा देर नहीं हुई है। अभी तुमसे थोड़ी ही गलती हुई है। तुम ऐसा करो..........घर चल कर सारी बात सच सच अपने बाबू जी को बता दो –।”गीता थोड़ा गंभीर हो कर बोली।

राघव—“ क्या कहा? बाबू जी को बता दू? इसके बाद क्या होगा तुन्हें मालूम है?”

गीता—“कुछ नही होगा राघव। तुम झूठ बोलने के कारण ही गलत रास्ते पर चले गये और इतनी बड़ी मुसीबत में फ़ंस गये। शुरू में ही अगर तुमने ये सब बातें हमें या बाबू जी को बता दिय होता तो शायद आज ये नौबत न आती। और अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं।अगर तुम अपनी गलती को मां-बाबू जी के सामने स्वीकार कर लोगे तो हो सकता है तुम्हे सिर्फ  डांट पडे़। और आगे की सारी समस्या बाबूजी  सुलझा सकते हैं। तुम शायद यह भूल रहे हो कि हमारे माता-पिता हमारें सच्चे मार्गदर्शक होते है। और तुम्हारे बाबूजी तो एक्स-आर्मी मैन हैं। उन्होंने फ़ौज में न जाने कितनी बार इससे भी विकट हालातों का सामना किया होगा। सिर्फ तुम्हें एक बार अपनी गलती बाबूजी  के सामने स्वीकार करनी होगी।”

राघव अभी भी थोड़ा हिचकिचाया---“लेकिन गीता.................तुम बाबू जी का गुस्सा...।”

          गीता ने उसे फ़िर समझाने की कोशिश की—“वो गुस्सा तो होंगे ही और उनका गुस्सा होना जायज भी है। देखो राघव जिंदगी में अपनी गलती स्वीकार कर लेने से हम आगे आने वाली भारी मुसीबतों से बच सकते है। तुम सोचो अगर आज तुमने कहीं से लाकर पैसे उन्हें दे दिए तो वे आगे और पैसे मागते रहेंगे। तुन्हें बराबर ब्लैकमेल करते रहेंगे। और तुम मुसीबतों के दलदल में फ़ंसते ही जाओगे। और एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तुन्हारे सामने अपनी गलती को स्वीकार करने के सभी रास्ते बंद हो चुके रहेंगे----- सोचो तब तुम क्या करोगे?”

   गीता की बातें सुन कर राघव फ़िर थोड़ा गंभीर हो गया।वह उठ कर चहलकदमी करने लगा। फ़िर जाकर मौलश्री के तने परअपना माथा रख कर कुछ सोचने लगा। जैसे उससे सारी परिस्थितियों पर विचार विमर्श कर रहा हो।उसके दोस्तों में किसी ने उसे रोका नहीं । सब उसकी इस आदत से परिचित थे।राघव को जब भी कुछ सोचना होता था वो ऐसे ही मौलश्री के तने से लगकर खड़ा हो जाता था और सेकेण्ड्स में ही अपना फ़ैसला बता देता था। मौलश्री के तने पर अपना मथा दो तीन बार हल्के हल्के रखने के बाद राघव दोस्तों की तरफ़ घूमा।

                 शालू,गीता और अमर सभी राघव को ही देख रहे थे। सबकी निगाहों में सवालिया निशान थे।राघव उनके नजदीक आया और बिना झिझक गीता के दोनों हाथ पकड़ कर सिर्फ़ इतना बोला—“गीता—यू आर करेक्ट।”चारों दोस्तों के चेहरे खुशी से खिल गये।सबने एक दूसरे के हाथों पर ताली दी और घर की तरफ़ चल पड़े।चलते चलते राघव ने एक बार मौलश्री की ओर देखा –मौलश्री का हर पत्ता उसे मुस्कुराता नजर आया।

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डा0हेमन्त कुमार

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आवासीय परिसर,सेक्टर-21,इन्दिरा नगर

लखनऊ—226016

मोबाइल-09451250698

 


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