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Jawahar Choudhary

Others

3.7  

Jawahar Choudhary

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सुरंग

सुरंग

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सुगुप्त सब्ज़ी का झोला ले कर घर में आए ही थे कि पत्नी से सूचना दी कि ग्लोबल कालेज में एमसीए के प्रास्पेक्टस मिल रहे हैं। दीदी का फोन आया था कि एक प्रास्पेक्टस ले कर उन्हें फौरन भेज दें। फार्म भरने के बाद इंटरव्यू एक माह बाद होंगे वरना वे खुद आ जाती सोनू को लेकर लेकिन इन्दौर से इलाहाबाद पास तो है नहीं कि बार बार आना जाना किया जा सकता हो। न ही यह संभव है कि एक माह किसी के यहाँ घरबार छोड़ कर रह लिया जाए।

दूसरे दिन सुबह सुगुप्त सिटी बस पकड़ कर ग्लोबल के लिए निकल गए। यों उनके पास स्कूटर है किन्तु इन्दौर में आजकल नए कालेज शहर से काफी दूर बनाए जाने लगे हैं। हाईवे पर ट्रैफिक का हाल यह है कि कब कोई आपको मार कर निकल लेगा, कहा नहीं जा सकता। आए दिन एक्सीडेन्ड की खबरों से अखबार भरे रहते हैं। वैसे भी वे स्कूटर बहुत कम गति से चलाने के आदी हैं लेकिन इन दिनों सड़क पर भीड़ और बाइक पर उड़ते नौजवानों से डर लगता है। सेवानिवृत्ति के बाद वैसे भी ठंडापन, या यों कहें लें कि धैर्यपन आ जाता है उसपर बच्चों के बिना, अकेले रहना अतिरिक्त सावधानी के लिए बाध्य करता है। इधर अक्सर सुनने में आता है कि वृद्ध दंपत्ती को मार कर घर लूट ले गए। पता नहीं महानगरों में जीवन कैसा होता जा रहा है । आदमी न घर में सुरक्षित है न बाहर। पैसा न हो तो रोते रोते मरो और हो तो बेमौत मरो। कई बार उन्हें लगता है कि अच्छा ही हुआ जिन्दगी शांति और साफ तरीके से गुज़ारी वरना जोड़ कर रखते और आज खतरे में ही पड़ते। वेतन से जो मिला उसी से एक घर हो गया और बच्चों की शिक्षा भी।

पचास मिनट की यात्रा के बाद वे कालेज के गेट पर उतरे तो भीड़ देख कर निराशा बढ़ गई। इतनी लंबी लाइन की उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। अगर ये हाल इस मंहगे कालेज में है तो हो चुका सोनू का एडमीशन। सुना था कि दिल्ली-मुंबई के कालेजों में ही मारा मारी रहती है लेकिन लगता है इंदौर भी अब उन्हीं के पीछे चल पड़ा है। कोई उपाय न देख वे भी लाइन में लग गए।

‘‘ओर क्या अंकल! आप भी एडमीशन लोगे क्या?’’ कोई बोला और उसी के साथ खिलखिलाने की अनेक आवाजें आईं।

सुगुप्त को अपना ज़माना याद आ गया जब वे होल्कर कालेज में थे। उन दिनों होल्कर कालेज भी शहर से बाहर था, अब तो बीच शहर में ही माना जाता है। भीड़ इतनी नहीं होती थी लेकिन मज़े लेने में कोई पीछे नहीं रहता था। इस ठिठोली से उन्हें क्रोध नहीं आया बल्कि वे अंदर तक स्मृतियों में भीग गए। क्या तो शरारतें होती थीं, और मारपीट भी कितनी! लड़कियां कम होती थी, लेकिन जो होती थीं वो एक तरह से राज करती थीं। मन में आया कि उस लड़के को थैंक्यू कह दें, फिर सोचा रहने दो , हाथ धो कर पीछे पड़ गए तो दिक्कत होगी। कुछ देर में ही वे सामान्य हो गए और छात्र भी। उन्हें देखते समझते कब दो घंटे निकल गए पता ही नहीं चला। पंद्रह सौ रुपए चुका कर उन्होंने प्रास्पेक्टस लिया और गेट की ओर रुख किया।

बहुत सारे छात्र बस के इंतजार में थे। बस पीछे से भरी हुई आती हैं सो जगह मिलने की गुंजाइश नहीं थी। पिछले सफर और दो घंटे की लाइन से वे थकान महसूस कर रहे थे। सोचने लगे कि अच्छा हो कि किसी से लिफ्ट मिल जाए। एक बस आई तो छात्रों का समूह फुर्ती से उसमें लद गया, वे ताकते रह गए। कहीं उन्हें छोटी सी उम्मीद थी कि नौजवानों द्वारा उन्हें ससम्मान प्रवेश और स्थान दिलवा दिया जाएगा लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। आदमी का बूढ़ा होना एक बात है और बूढ़ा दिखना दूसरी। सोचने लगे कि बाल काले करने का अब कोई फायदा तो है नहीं, उल्टे नुकसान ही हो जाता है अक्सर। दूसरी बस आने में अभी वक्त था, लेकिन पहले वाली बस जितने ले गई थी उससे कहीं ज्यादा इकट्ठे हो गए थे। एक बार फिर उनके मन में आया कि काश कोई लिफ्ट देने वाला मिल जाए, भले ही अगले स्टाप पर उतार दे, ताकि वे बस में चढ़ तो सकें। कई बार इच्छाएं चमत्कारिक ढंग से पूरी हो जाती हैं। एक परिचित काणे अचानक उन्हें देख रुक गया। प्रापर्टी का काम करता है, दलाली वगैरह। बाइक पर बैठना उन्हें रुचता तो नहीं है किन्तु काणे के आग्रह और बस की हालत देख उन्होंने अपने को तैयार कर लिया, सोचा आगे कहीं उतर जाएंगे।

काणे बात करता चल रहा था कि वह एक ज़मीन देखने महू की तरफ गया था। ज़मीन जायज़ाद के धंधे में आजकल मेहनत बहुत है। आसानी से कुछ भी नहीं मिलता है। इस धंधे में पैसा तो लगता नहीं है, सौ गुण्डे-दादा और नेता अपनी ताकत से काम करते है। एक बार अगर ये लोग कहीं पहुंच जाएं तो पार्टी बाहर नहीं निकल पाती है इनके चंगुल से। नेताओं की पार्टनरशिप के कारण पुलिस का मामला वे ही संभाल लेते हैं इसलिए किसी का डर भी नहीं। इस मामले में इन्दौर मुंबई का बाप है। एक एक प्लाट में कई कई ब्रोकर होते हैं और ब्रोकर के साथ कई कई एजेन्ट। ग्राहक के फंसते ही शिकारी जैसे झपटते हैं सारे। कुल मिला कर काणे अपने धंधे से संतुष्ट नहीं लग रहा था।

सुगुप्त भी एक प्लाट खरीदना चाहते हैं, इंवेस्टमेंट के हिसाब से। रिटायरमेंट का मिला पैसा बैंक में पड़ा है, लेकिन बैंक में मिलता क्या है। इधर लाख का प्लाट दस साल में पच्चीस लाख का हो जाता है। इन्दौर में किसी ज़माने में ज़मीनों को कोई पूछता नहीं था। उनके अनेक मित्र हैं जिन्होंने प्लाटों में पैसा फंसाया और आज बैठे-बिठाए करोड़पति हो गए। यही सब सोच कर बोले- ‘‘हमें भी कोई अच्छा सा प्लाट बताओ काणे भाई।’’

वह कोई उत्तर देता इससे पहले पांच-छः नौजवान मोटर साइकिल पर दोनों ओर से आ गए। लगा कि वे घेर रहे हैं। काणे के लिए ये शायद अनपेक्षित था, वह घबरा गया। दोनों ओर से दबाते हुए उन्होंने काणे को किनारे पर आने के लिए विवश कर लिया। उनके तेवर देख कर सुगुप्त को लग गया कि अब वे शायद काणे को पीटेंगे। एक डर अंदर तक उतर ही रहा था कि देखा उन लड़कों ने बड़े बड़े चाकू निकाल लिये और सब काणे पर टूट पड़े। काणे अपनी बाइक छोड़ भगा, सुगुप्त गिर पड़े। सारे लोग काणे पर लपके, अफरा तफरी मच गई। सुगुप्त के होश उड़ गए, उनका चश्मा गिर गया, प्रास्पेक्टस छूट गया, वे जान बचा कर भागे और भीड़ में घुस गए। काणे घिर गया था और उस पर हुए हमले से वह बेदम हो कर लथपथ ज़मीन पर पड़ा था। उसमें जान होने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही थी। यह सब इतनी तेज़ी से हुआ कि किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

तभी सुगुप्त के कानों में आवाज़ पड़ी कि काणे के साथ बाइक पर कौन था, उसे ढ़ूंढ़ो। वे मान रहे थे कि वह काणे का साथी होगा। सुगुप्त को भीड़ से मौका मिला और वह किनारे होते हुए धीरे से उसी बस में चढ़ गए जिसे छोड़ कर आए थे। बस में भीड़ तो थी लेकिन सब बाहर ताक रहे थे। उन्हें जगह मिल गई और वे पीछे की सीट पर दुबक लिए। घबराए और पसीने से तर हो रहे सुगुप्त पर लोगों की निगाहें नहीं टिकीं। और भी अनेक घबराए हुए थे। वातावरण में डर पसरा हुआ था, बस अभी चली नहीं थी। सामने आ गए हमलावरों ने ड्रायवर को घमका कर रोके रखा था। एक युवक बस के अंदर आ कर काणे के साथी को ढूंढ़ने की कोशिश करता है और उतर जाता है। बस चल देती है। सुगुप्त की जान में जान आई। सोचा बच गए, वरना जिन्होंने एक मारा वे दूसरे के लिए ज़रा भी सोचते! उन्होंने ईश्वर का आभार माना। लेकिन घबराहट और पसीना अभी भी बने हुए थे।

काफी आगे निकल आने के बाद कुछ लोगों के मुंह से जरूरी बोल फूटते हैं। लेकिन अधिकांश अभी सकते में ही हैं। बस कंडक्टर टिकिट के लिए अनमना सा उठता है। लग रहा है वो अभी भी असामान्य और विचलित है। कंडक्टर बिना उन्हें कुछ कहे आगे बढ़ जाता है। वह कुछेक लोगों को टिकिट देता है कुछ को नहीं भी। अब तक बस घटना स्थल से काफी दूर राजेन्द्रनगर आ चुकी थी, किन्तु अधिकांश की घिग्घी बंधी हुई थी। बीच के स्टाप से कुछ नए लोग चढ़ गए थे जिन्हें पीछे क्या घटा इसका कुछ पता नहीं था। इन नए यात्रियों के कारण बस का वातावरण काफी कुछ सामान्य हो चला था, लेकिन कोई भी घटना की चर्चा नहीं कर रहा था।

नौलखा बस स्टैण्ड से पैदल घर पहुंच कर सुगुप्त ने ग्लूकोज़ पिया और पत्नी को सारी घटना बताई। यह भी कि अब प्रास्पेक्टस के लिए दोबारा जाना पड़ेगा। शहर में क्या हुआ, अब तक बाहर किसी को पता नहीं चला। आसपास वालों को यह नहीं मालूम है कि सुगुप्त कहां गए थे। उन्होंने पत्नी से पूछा कि किसी को बातचीत में बताया तो नहीं कि मैं कहां गया था। उसके मना करने पर वे आश्वस्त हुए। फिर भी किसी अनजान डर के मारे दोनों घर में दुबक लिए और शाम तक बाहर नहीं निकले। आए दिन सुनने में आता है कि अकेले रह रहे वृद्ध दंपत्ती को पता नहीं कौन मार कर चले गए। गुण्डों को बूढ़े लोग आसान लक्ष्य की तरह मिल गए हैं। जब मन हुआ एटीएम की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। रात को बेटे-बहू से फोन पर बात हुई लेकिन घटना का ज़िक्र नहीं किया, क्यों करते, डर तो रोज़ ही लगा रहता है।

दूसरे दिन अखबार में काणे की हत्या सुर्खियों में थी। साथ ही यह भी कि पुलिस को हत्यारों का सुराग नहीं मिला है लेकिन शंका है कि काणे के साथ बाइक पर कोई था, वह भी हत्यारों से मिला हो सकता है। उसकी तलाश जारी है। सुगुप्त की घबराहट बढ़ गई, लगा कुछ गड़बड़ होने वाली है। कुछ सूझ नहीं रहा कि इस वक्त क्या करना चाहिए, यहाँ तक कि किसी से राय करना भी सुरक्षित नहीं है। ज़रा देर के लिए मन हुआ कि खुद जा कर पुलिस को बता दें। लेकिन ऐसा किया तो पुलिस गवाह बना देगी और सब जानते हैं कि गवाह कितने दिन ज़िन्दा रह पाते हैं। इस मामले में लोगों का पुलिस पर विश्वास कम, अपराधियों का डर ज़्यादा होता है। दोहरा खतरा है, पहचान में आते ही एक बचा नहीं पाएंगे और दूसरे छोड़ेंगे नहीं। वहाँ कालेज में कोई परिचित मिला नहीं, ना ही रास्ते में कोई। बड़े शहरों में यह बहुत अच्छा है कि कोई किसी को पहचानता नहीं है वरना छोटी जगह में तो अब तक वे स्वर्गवासी कर दिए गए होते। सोचा बेहतर यही है कि चुप्पी लगा रखी जाए। उनका खौफ खाया चेहरा देख पत्नी ने कहा कि प्रास्पेक्टस अब किसी और से मंगवा लेंगी या फिर उन्हें कह देंगी कि आन-लाइन कुछ कर लो, लेकिन अब तुम रहने दो। पानी का गिलास देते हुए बोलीं- शुक्र है भगवान का कि कुछ हुआ नहीं, वरना इतनी भयानक घटना में उलझा आदमी हार्ट अटैक से बचता है क्या। ऐसे में डाक्टर को दिखाना चाहिए लेकिन सुगुप्त कतई तैयार नहीं हुए। आजकल बात कहाँ से लीक हो जाए कहा नहीं जा सकता है। तबीयत के चक्कर में जान जोखिम में नहीं डाली जा सकती है। ब्लडप्रेशर की चल रही दवा ही वे श्रद्धा से लेते रहे और अनुलोम-विलोम भी करते रहे। हर थोड़ी देर में उन्हें लगता कि ‘पहले से आराम पड़ा’। बाबा रामदेव को वे प्रायः टीवी पर देखते-सुनते हैं। लेकिन तनाव कम करने के लिए प्राणायाम कैसे किया जाता है यह उन्हें इस समय ठीक से याद नहीं आ रहा है, फिर भी साँस खींच-फैंक रहे हैं। रात को याद नहीं रहा वरना एक कप दूध-हल्दी पी कर सो जाते तो काफी आराम पड़ जाता। पत्नी का सुझाव था कि पूरे विश्वास से हनुमान चालीसा का पाठ करने से लाभ होगा सो कई बार यह भी कर चुके हैं और हर बार हिम्मत बढ़ती सी लग रही है।

पत्नी का विचार है कि शाम तक तो सारे पकड़े जा चुके होंगे और जेल में बंद होंगे। वैसे भी डरने की कोई बात नहीं है, उन्होंने बाइक पर लिफ्ट ही तो ली थी और यह कोई अपराध नहीं है। और मान लो कि किसी तरह पुलिस को पता पड़ भी जाए तो कह सकते हैं कि हड़बड़ी और घबराहट में हत्यारों को देखा नहीं। याद दिलाएंगे कि पुलिस नागरिकों की मदद के लिए होती है। फिर सुगुप्त तो शिक्षित, सभ्य और सीनियर सिटिज़न है। मन में अनेक सवाल और आशंकाएं उठ रहीं थीं और मन ही उत्तर दे कर उनका समाधान भी कर रहा था। वे अनजान भय की खाई से बाहर आने की कोशिश में बार बार आधी ऊँचाई से वापस गिऱ रहे थे। सुबह से शाम तक गिरते उठते वे थक गए। अचानक वे पत्नी से बोले- ‘‘देखो अगर मुझे कुछ हो जाए तो बैंक एफडी में तुम्हारा नामिनेशन है। पेंशन की फाइल ऊपर के खण्ड में रखी है और ढ़ाई लाख जैन को उधार दिए हैं उसके कागज़ात भी वहीं रखे हैं।’’

‘‘जैन को क्यों दिए इतने रुपए!! और मुझको बताया भी नहीं !!’’

‘‘दे दिए। लेकिन समय रहते बता तो रहा हूं ना।’’

‘‘ब्याज-व्याज कुछ तय किया है या .....’’

‘‘किया है, सब लिखा है उसमें।..... मेरी जान जा रही है और तुम्हें ब्याज की पड़ी है !!’’

पत्नी ने संवाद स्थगित कर दिया। तभी घंटी बजती है, दरवाज़े पर कोई है! सुगुप्त घबरा कर बाथरूम की ओर दौड़े, पत्नी से कहा- कोई मेरा पूछे तो कह देना....... ?????

क्या कह देना ये उन्हें खुद नहीं सूझ रहा। बिना कुछ आगे का सोचे वे बाथरूम में घुस जाते हैं। दरवाज़े पर चार मकान छोड़ कर रहने वाले कानपुरे और हड़केभाऊ हैं।

‘‘क्या बात है भाभीजी आज सुगुप्त आए नहीं वाक पर। सारे लोग इंतज़ार करते रहे। तबियत तो ठीक है?’’

‘‘हां हां, तबियत ठीक है। बस यूं ही, जरा आंख लग गई, सोते रह गए दोपहर की नींद में।’’

‘‘और हां, फोन क्यों बंद आ रहा है? वो भी सोता रह गया क्या?’’

‘‘फोन का क्या भरोसा भाई साब। सरकारी है, कब डेड हो जाए कोई ठिकाना नहीं। अभी देखती हूं, आप बैठिये ना, ये आते हैं, बाथरूम गए हैं। सुनते हो..... कानपुरे और हड़केभाऊ आए हैं।’’

सुगुप्त मुँह पर पानी के छींटे मार कर तरोताज़ा दिखने की असफल चेष्टा करते सामने आते हैं। आमतौर पर कानपुरे ही आते हैं, कुछ देर बैठते हैं, चाय पीते हैं। लेकिन आज सुगुप्त ने उन्हें बैठने को नहीं कहा, बल्कि तबियत ठीक न होने का बहाना बना कर जल्द ही टरकाने में कामयाब हो गए। उनके बाहर होते ही जल्दी से दरवाज़ा बंद कर लिया। खिड़कियाँ पहले से ही बंद हैं। कानपुरे और हड़केभाऊ को संदेह होता है, कुछ देर बाहर खड़े वे अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं।

दरवाज़े पर फिर घंटी बजती है। इस बार सुगुप्त को हाजत का दबाव सा महसूस होता है, वे बाथरूम की ओर लगभग दौड़ते हैं। पत्नी दरवाज़ा खोलती है, देखा हड़केभाऊ और कानपुरे हैं, वे अंदर आ जाते हैं।

‘‘कोई परेशानी तो नहीं है भाभीजी? सुगुप्त कुछ उखड़े उखड़े से....’’

‘‘नहीं नहीं,.... कोई दिक्कत नहीं है। वो तो रात ज़रा ठीक से नींद नहीं आई इसलिए...’’

‘‘आप ने तो अभी बताया था कि दोपहर में सोते रह गए थे।’’

‘‘लेटे थे पर नींद नहीं आ रही ना।’’

‘‘डाक्टर को दिखाया?’’

‘‘हां...बात की थी उनसे.... दवा ले रहे हैं।’’

‘‘हम रूकें क्या?’’

‘‘अरे ऐसी कोई बात नहीं है भाई साब। और हुई तो आप लोग कौन सा बहुत दूर हैं। आप निश्चिन्त रहें।’’

दोनों संतुष्ट तो नहीं हुए, पर क्या करते, चले गए।

‘‘तुम तो एक काम करो, दरवाज़े पर बाहर से ताला लगा कर पीछे से अंदर आ जाओ। वरना फिर कोई आएगा। देखना ये दोनों बात फैला देंगे और कहते-सुनते कुछ निकल गया तो मुसीबत होगी।’’ सुगुप्त बोले।

‘‘शाम हो रही है, दो-तीन घंटों में सोता पड़ने लगेगा। और फिर ताला डालने से जिन्हें नहीं होता हो उन्हें भी शक होगा। दिन निकल गया है, अब ज़रा सा और टीवी पर फिल्म अवार्ड दिखाने वाले हैं, चलो वही देखो।’’

टीवी खोला तो संयोग से शाहरुख का डांस चल रहा था। सुगुप्त को शाहरुख सबसे ज्यादा पसंद है, स्क्रीन पर उसे देखते हुए वे दीवाने से होने लगते हैं। उसकी शायद ही कोई फिल्म उन्होंने छोड़ी हो, ज़्यादातर फिल्में पाँच-छः से अधिक बार देखी है। वे अक्सर नाराज़ी व्यक्त करते हैं कि शाहरुख ने सलमान जैसी बॉडी बनाने के चक्कर में अपने चेहरे की कोमलता नष्ट कर ली है। उसके चेहरे से शरारतीपन तो जैसे खो ही गया है। कई बार मिंया-बीवी में शाहरुख को लेकर तूतू-मैंमैं तक हो जाती है।

‘‘ये तो पक्का है कि शाहरुख में अब वो बात नहीं रही।’’ पत्नी ने संभवतः सुगुप्त का ध्यान बंटाने के लिए कहा।

‘‘फालतू बात तो करो मत तुम।’’ कहते हुए सुगुप्त ने टीवी की आवाज़ बढ़ा दी। इस समय शाहरुख ‘चल छैया छैया ....’ पर वर्जिश कर रहे हैं। आसपास बहुत सी सुन्दरियाँ तितली सी रंग बिखेर रही हैं। उनके परिधान को ले कर भ्रम होता है या नहीं। जब दर्शकों को लगता हैं कि ‘नहीं हैं’ तब वे अचानक ‘हैं’ हो जाती हैं, लेकिन अगले ही क्षण वे पुनः एक संभावना का सृजन करती हैं। ऐसे मौकों पर अक्सर सुगुप्त को याद आता कि वे भी कभी फिल्मों में जाने की सोचा करते थे। अगर गए होते तो आज बुढ़ा कर ‘माँ’ बन रहीं कइयों के साथ वे भी अवश्य नाच लिए होते।

डोरबैल बजने से उनका ध्यान भंग होता है। पत्नी उठ कर दरवाज़ा खोलती है। अचानक दो नौजवान उन्हें धकेलते हुए अंदर तक आ जाते हैं और आवाज़ नहीं करने की हिदायत देते है। उनके हाथ में सुगुप्त का पर्स है और वे उसमें लगी फोटो से पहचान कर रहे हैं। एक बोला- ‘‘ये पर्स आपका है ना अंकल? आप थे काणे की बाइक पर?’’

सुगुप्त का शरीर जड़ हो जाता है, आवाज जैसे गायब हो जाती है। उन्हें महसूस होता है कि वे एक लंबी सुरंग में खींच लिए गए हैं और तेज़ गति से किसी अंतहीन यात्रा पर हैं।


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