मेरी माँ और मैं
मेरी माँ और मैं
मेरी अखंड सौ. स्व. माता सुनंदा पढ़ने की बहुत शौकीन थीं। मेरे बचपन में वह मुझे ऐतिहासिक और पौराणिक कहानियाँ सुनाया करती थी। वह मुझे शिवाजी, संभाजी के साथ साथ रामायण और महाभारत की कहानियाँ बहुत ही दिलचस्प तरीके से सुनाती थी।
कभी-कभी वह मुझे सुप्रसिद्ध रहस्यमय मराठी कहानियाँ जैसे की ‘झुंझार कथा’ और ‘काला पहाड़’ सुनाती थी। मुझे उनसे कहानियाँ सुननी बहुत अच्छी लगती थी। उनकी कहानी कहने की शैली बहुत अद्भुत और सुंदर थी।
धीरे-धीरे, मैं भी अपने सहपाठियों को मेरी माता की शैली में कहानियाँ सुनाने लगा, लेकिन मुझे किसी और की कहानियाँ सुनाने की बजाय अपनी स्वयं रचित रचना प्रस्तुत करने में ज्यादा अच्छा लगता था। एक बार जब मैं मेरी माँ को कहानी सुना रहा था तब बिच में अटक गया। मैंने आगे की कहानी बुनने की बहुत कोशिश की किंतु में असफल रहा। यह देखकर, मेरी माँ ने मुझसे कहा, "बेटा, कहानी को पहले एक कागज पर अच्छे तरीके से लिख, तब किसी को कहानी सुनाने में तुझे परेशानी नहीं होगी। इस तरह अपनी माँ की प्रेरणा से मैंने कहानियाँ लिखना शुरू किया।
मेरे सहपाठी मेरी कहानियों को बड़े चाव से सुनते थे। मुझे भी सबको अलग अलग कहानियाँ सुनाने की बजाय उसे नोटबुक में लिखकर पढने देने का तरीका आसान लगा। धीरे-धीरे, मेरी कहानियों के साथ साथ मेरे पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई।
जब मैं छठी कक्षा में था तब मेरी गुजराती कहाँनी "राजू की समय सुचकता" बच्चों की साप्ताहिक चंपक में छपी। यह मेरी पहली मुद्रित रचना थी। जब मैंने इसे अपनी माँ को दिखाया तब वह बेहद खुश हुई। चंपक में छपी मेरी कहानी को पढ़ते हुए, मेरी माँ की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। मैं उस पल को कभी भूल नहीं सकता। वह पल मेरे जीवन का सब से श्रेष्ठ है और मेरी माँ के देहांत के बाद आज भी वह पल मुझे लिखने की प्रेरणा देता रहता है।