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Sunil Kumar

Others

4.8  

Sunil Kumar

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मेरा गाँव बुला रहा है !

मेरा गाँव बुला रहा है !

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माँ के हाथ पर चोट लगी मै तुरंत मरहम के लिए भागा। माँ ने रोका औऱ बोला रुक जा कुछ नी हुआ है

औऱ मुस्कुरा कर बोली इससे ज्यादा चोट तोह बचपन में घास काटते वक्त लगती थी। मेने पूछा ऐसा

क्या होता था तब फिर माँ ने अपने बचपन की कुछ बातें बताना शुरु किया-हमारा गाँव जो पूरे इलाके का

सबसे बड़ा गाँव था। मैं जब छोटी थी तब अपनी माँ मतलब तेरी नानी को काम करते देखती थी वो दूर

जंगल से गाय भैंसों के लिए चारा लाती थी। जब मैं बड़ी हुई तो सहेलियों के साथ मैं भी खेत जाती,

जंगल जाती चारा लाती थी। मेरा गाँव अपनी एकता के लिए जाना जाता था। गाँव में उस समय कोई

अमीर नही था लेकिन जहां जाओ वहां पूछा जाता था Iबेटी त्वेल खानु खाची? (बेटी तूने खाना खाया)

सबके खेत हुआ करते थे गाँव के ऊपर, गांव के नीचे दोनो जगह हरियाली छाई रहती थी। सरसो के खेत

बुरांस के फूल होते थे।

आजकल जो तुम टीवी में खेत देखते हो जिसमे ग्राफिक से हरियाली बनाई जाती है ये सब मेने बचपन

में अपनी ऑखो से देखा है ।

दाल, चावल, सब्जी आदि उपयोगी चीजे खेत में हो जाती थी।उस जमाने में हमारा मिर्च का व्यापार होता

था जिससे हम पैसे कमाते थे।महिने के अंत में पूरा गांव मिलकर एक महफिल जमाता था । सुबह की

नींद क्बुतर की आवाज से खुलती थी जब शाम को चारा लेकर घर आते तोह पेड़ मानो हमें रोक रहा हो

रुको थोडा औऱ बातें करते हैं ।

बहुत यादगार दिन थे वो बेटा बहुत यादगार ।।

मैं भी गाँव रहा था लेकिन ये सब बाते मेरे लिए भी नई थी ।

जब मेने अपने कुछ साल गाँव मे बिताए तब गाँव मे थोडी बहुत खेती होती थी । सारे नौजवान शहर

में चले गए क्योंकि अनाज के दाम कम करने से नौजवानो को कुछ मुनाफा नही मिलता औऱ उस समय

पहले से महंगाई बढ चुकी थी। सरकार के दूत चुनाव के समय आकर बढिया सा भाषण देते औऱ करने

के लिए कुछ भी नहीं।

न गाँव में स्कूल नजदीक न पानी न बाजार हर जगह जाने के लिए संघर्ष ही था। मेने भी अपने गांव के

लम्हे बहुत मजे से उठाए मेरा भी एक गुट था कई दोस्त जो सारे दीदी भुला हैं । हमेशा याद आता है ।

गाँव के मजे बचपन मे बहुत उठाये है, पेड़ों पर रस्सी तो बाद मे बंधती थी, पहले हम डाले पकड़ कर

ही झूलते थे!

गेहूँ के ऊपर बैलो के साथ-साथ खुद भी चककर काटे है, फिर बाद मे प्यासे बैलो को पानी पिलाने के

लिए कुएं से ना जाने कितनी ब्ऱतन पानी खीच कर होज मे फैका है, और चारे के लिए घास भी हमने

काटी है!

अमरूद की कमजोर डाल पर माई की चेतावनी के बाद भी हम भाई -बहन नमक की पुडिया जेबों मे

रख कर डाल पर बैठ जाते थे, और मजे से फल खाते थे,, ये होश नही रहता था की फल को धोना भी

चाहिये, पेड़ के फल तो फिर भी ठिक थे, हम तो सड़क के किनारे लगे ककडी (खीरा) को भी तोड़ कर

खा जाते थे I

कुछ ऐसे थे वो दिन।

हमारा स्कूल 5km दूर था जो जंगल के होकर आता था । पानी लेने के लिए 2km दूर पंदेरे(पानी की

जगह) जाना पड़ता था वो भी खेतो को लांघ कर ।गाँव में पढाई बिलकुल नही थी बस दिन का भोजन

देकर टीचर मान लेते है विद्यार्थी को पढ़ा लिया।

न कोई रोजगार न पढाई का स्तर, न स्कूल सही, न बाजार ।

पर ये क्या उन पहाड़ों की गलती है या उन गाँव की गलती है या फिर वहाँ के लोगों की जो बचपन से

ही अपना डेरा वहां जमाए हुए हैं । गलती बस उन लोगो की है जो यहां रोजगार नही ला पाते सरकारी

दूतों की जो हर साल मे आकर दावे करते हैं लेकिन दावे पूरे कभी नही करते ।

कोई माँ बाप ये नही चाहता की उनकी संतान ऐसी दिन देखे जो उन्होने देखे हों हर कोई अपनी संतान

का बढिया चाहता है ।

गाँव में पढाई का कोई भविष्य नही इसीलिये मुझे भी पढाई के लिए पहाड़ छोडना पड़ा ।

लेकिन हमेशा ख्याल आता था गाँव का उन पहाड़ का उन खेतो का जहां में खेला करता औऱ यूं ही

सोचता -

क्या अब भी मेरा गांव सुहाना होगा क्या अब भी वहां पहाडो (डांडी) मे सोने जैसी धूप आती होगी, क्या

अब भी वहां कबूतर गुनगुनाते होंगे, क्या अब भी वहां चिडिया प्रेम गीत गाती होगी।

खेत -खेत मे कूदने के दिन, स्रावन -भद्रापद के वो मन मोहक दिन, क्या अब भी वहां पहाड (डांडी) मे

कोई बांसुरी बजाता होगा, क्या अब भी नल मे ठन्डा पानी आता होगा, क्या अब भी लोग पंदेरे (पानी

लाने की जगह) पानी लेने आते होंगे, क्या अब भी गांव मे महफिलें लगती

इसी याद में मेने एक बार पापा से कहा में एक दिन के लिए मुझे अपने गांव जाना है याद आ रही है ।

पापा ने कहा जा-जा छुट्टी है मजे करो ।

लगभग 5 साल बाद गांव जाना बहुत ही रोमांचक था लेकिन वहाँ जाते ही सब टूट सा गया ।

जब देखा सारे खेत बंजर, गाँव के आधे घर टूट चुके थे ।

चारो ओर खेत बंजर, घरो के चाक (गोठियार) मे घास जमी है, दूर दूर तक रहने वाला कोई नही I

ना रही वो सरसो के खेत की हरियाली, और न रही वो हरी -हरी ककडी, हवा, पानी,अनाज सब पर

रसायन की छाप है खाली पेट के खातिर सारे नौजवान शहर जा चुके थे ।

मेने हर उस जगह भ्रमण किया जहां मेरी यादें जुडी थी । कुछ ही पल में जाने का समय हो गया। जब

में बस स्टेशन के लिए तोह जंगलो से मानो आवाजें आ रही हों

वो पहाड़ कुछ कहना चाहते हों उन सरसो के खेतो से आवाज आ रही थी -ओ शहरी बापू क्यो जा रहे

हो? जाने से पहले एक शिकायत सुनते जाओ -जो उन्न्ति शहर में होती है, जितना विकास शहर में

होता है उसका 50% भी यहां करवा दो, बड़े स्कूल, अस्प्ताल बनवा दो, एक रोजगार खोल दो औऱ

उसके बाद यहां तुम्हे जिंदगी बरबाद लगे तो मुझे, मेरी ये बंजर खेती, इन जंगलो को इन पहाड़ों को

जला देना ।।

कुछ ऐसा आभास था वो।

15 मिनट का रास्ता एक घण्टे में भी पूरा नही हुआ जैसे मुझे वो पहाड़ रोक रहा हो मत जा राही मेने

तेरा क्या बिगाड़ा जो मुझे अकेले छोड रहे हो ।कभी उन पहाड़ों को ताकता तो कभी उन सड़को जहां में

भागता

लेकिन मेरी भी मजबूरी थी उस स्वर्ग को छोडने ने की । ऑखो में नमी लेकर मै भी लौट चला ।

लेकिन आज भी मेरा मन कहता है -

कभी-न- कभी फिर सुनहरा होगा मेरा गाँव ।

टूटे घर, बंजर खेत, देवता के मंदिर सब पहले जैसे होंगे ।

बैलो की घण्टियां बजेगी फिर हरी होंगी हमारी खेती नीचे उपर की सार (खेती) म्नडुवे धान से भरेंगे

तब बाहर के लोग भी पहाड़ को देखेगें ।

मेरा मन कहता है कभी-न- कभी फिर सुनहरा होगा मेरा गाँव ।

गाँव में बिजली होगी, पढने के लिए स्कूल होंगे वहां जाने के लिए सड़कें होंगे ।

पढे लिखे नौजवान यही रहेंगे, बहार जाके सब यहीं आयेगें । तब मेरे गाँव मेरी जन्मभूमि मेरे उत्तराखण्ड

को कोई नाम नही रखेगा कोई हमें पिछडा मुलुक(राज्य) नही कहेंगा ।

मेरमेरी जन्म भूमि मेरो पहाड़ III


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