फ़ैसला ज़िंदगी का
फ़ैसला ज़िंदगी का
दूर क्षितिज पर सूर्य पहाड़ियों के आँचल में छिपने की तैयारी कर रह था. न जाने क्यों आज की शाम अजय को बोझिल - सी लग रही थी. वैसे तो उसे ख़ुश होना चाहिऐ था क्योंकि छ्ह महीनों के बाद वह बंगलूरू से मुंबई अपने घर लौट रहा था. शीशे के भारी दरवाज़े, आधुनिक एयर कंडिशन ऑफिस कंम्प्यूटर और टारगेट की तिलिस्मी दुनिया से दूर वह उस दुनिया में जा रहा था जो घर की पाठशाला कहलाती है, जहाँ वास्तविकता के कॅनवास पर कलात्मकाता के रंगों को भरते हुऐ ज़िंदगी की ख़ूबसूरत तस्वीर को उकेरना होता है.
अभी फ्लाईट का वक़्त नहीं हुआ था. अपनी बिजनेस क्लास सीट पर बैठे – बैठे वह ज़ीवन के गणित का हिसाब लगा रहा था. अचानक उसके मन के मुंडेर पर अमित नामक पखेरू आकर बैठ गया.
अमित और अमिता दोनों एक ही एम.एल.सी.( मल्टीनॅशनल कंपनी) में काम करते थे. वे दोनों एक दूसरे के अच्छे मित्र थे और अपनी – अपनी दास्तानें शेयर किया करते थे. गुज़रते वक़्त के साथ वे एक दूसरे के इतने करीब आ गऐ कि दोनों ने जीवन साथी बनने का निर्णय कर लिया. कुछ दिनों तक लिव इन ज़िंदगी बिताने के बाद वे शादी के बंधन में बंध गऐ. बड़े मजे से साथ - साथ रहने भी लगे. मगर कुछ ही दिनों बाद नौकरी के तनाव और सेल्स के टारगेट ने दोनों के रिश्तों में खटास पैदा कर दी. तेज़ रफ़्तार की जीवन शैली और अधिक से अधिक पाने की मंशा ने दोनों के जीवन में ज़हर घोल दिया. इस अति और गति के कारण दोनों के बीच अविश्वास की धारा पनपने लगी. अमिता का प्रमोशन हो गया और अब वह धरती पर चलने की बजाय आसमान में उड़ने लगी थी. आज दिल्ली तो कल कोलकाता. लंच मुंबई में तो डिनर सिंगापुर में. आधुनिकता और पैसे के पीछे वह अंधी होती जा रही थी.
दो साल पहले अमित जब पहली बार अमिता से मिला था, तब वह उसकी सादगी और भोलेपन पर मर मिटा था. शायद ऐसा ही कुछ अमिता के साथ भी हुआ हो. मगर शादी के बाद दो वर्षों में ही अमिता का रंग - रूप बदल गया. उसने अपने आपको पूरी तरह से आधुनिकता के साँचे में ढाल लिया था. अब उसके पास अपनी शादीशुदा ज़िंदगी के लिऐ समय नहीं था. करियर का भूत सिर चढ़कर बोलने लगा था. शारीरिक मिलन तो दूर पर मन और संस्कृतियों का मिलन भी ठीक से नहीं हो पा रहा था. फिर क्या था! रोज़ किसी ना किसी बात को लेकर उनमें विवाद होने लगा. आखिर अपेक्षाऐं, खुलापन और करियर की उड़ान के कारण शादी तलाक में बदल गई. प्यार का रिश्ता टूट गया और अजय ने अपने दो प्यारे मित्रों को खो दिया. इस घटना के बाद अमित ने तो मानो सन्नाटे को ही ओढ़ - बिछा लिया था. जीवन उसका शून्य से घिर चुका था. कई दिनों तक वह डिप्रेशन का शिकार रहा. अजय को याद आ रहा था वह शेर- “ज़िंदगी को बदलने में वक़्त नहीं लगता, पर वक़्त बदलने में ज़िंदगी लग जाती है.”
अचानक किसी के आने की आहट हुई और अमित अपनी दुनिया में लौट आया. उसने देखा बगल में एक मॉडलनुमा लड़की खड़ी है जो अपनी सीट तलाश रही थी. शकल- सूरत से मेच्योर्ड लग रही थी पर थी बेहद ख़ूबसूरत. किसी एअर हॉस्टेस से वह कम नहीं थी. आधुनिक लिबास और तंग कपड़ों में उसका आकर्षण और बढ़ गया था. दूध - सा गोरा बदन, लंबा कद, गठीली काया, गहरी काली नशीली आँखें, मदहोशी की अदा और डियोंड्रंड की ख़ुशबू ने आते ही कई लोगों को एक नज़र उसकी ओर देखने के लिऐ मज़बूर कर दिया. एअर हॉस्टेस भी एक पल के लिऐ चकरा गई .......अरे मेरी साड़ी से भला इसकी साड़ी उजली कैसे.....सफेदी की ये चमकार .......!
टीवी एड की ये तस्वीर अजय को गुदगुदा ही रही थी कि तब तक बगल की रो से एक महोदय उठे, “मैम आय थिंक योर सीट इज हियर....” कहते हुऐ आनन - फानन में सहायता के लिऐ हाथ बढ़ा दिया.
“सो नाईस ऑफ यू, थैंक्स फॉर योर कन्सर्न” एक लटके के साथ उस बाला ने जुमला फेंका और बिन माँगे मेहरबानी का कर्ज़ उतार दिया. अब वह अजय की ओर मुड़ी.
“ओ, हाय! आय एम नेक्स्ट टू यू, डू यू माईंड, इफ आय सिट एट विंडो साइड .....”
“ओ श्योर, व्हाय नॉट! इट्स माय प्लेज़र......” और अजय ने अपनी विंडोंवाली सीट उसे दे दी. अजय का अगला वाक्य पूरा होने से पहले ही उस बाला ने ख़ुद को सीट के हवाले कर दिया और बोली, “नाईस गाय, हाऊ आर यू?”
“आय एम फाईन, थैंक्यू , व्हाट अबाउट यू?”
“फाईन थैंक्स ” इसके बाद दोनों ने चुप्पी साध ली.
अजय ने राहत की साँस ली, ऊपरवाले के प्रति शुक्रिया अदा करते हुऐ मन ही मन.... ‘चलो सफर तो सुहाना रहेगा.’ उसने इयरफोन कान से लगाया और जगजीत सिंह द्वारा गाई गज़ल सुनने लगा- ‘तुम आऐ तो आया मुझे याद, गली में आज चाँद निकला...’ उसकी निगाहें दोस्ताना चेहरे की तलाश में थी. मगर अगले ही पल अजय को यह समझते देर नहीं लगी कि वह लड़की सिर्फ़ आधुनिक ही नहीं अति आधुनिक भी है और शराब के नशे में धुत्त है. उसकी भीनी – भीनी मादक गंद और छुअन उसके भीतर तक उतरती चली जा रही थी. व्हिस्की की महक उसे मदहोश करने लगी.
कुछ ही देर बाद हवाओं से अठखेलियाँ करता फ्लाईट आसमान से बातें करने लगा. अजय ने कनखियों से एक नज़र उस लड़की की ओर देखा. “अरे ये क्या! ये तो लुढ़क गई...एसी की ठंडी हवा और खिड़की का सहारा......! यह बाला तो नींद के आग़ोश में चली गई..... सोचा था अच्छा टाईमपास होगा, कुछ बातें होगी, मगर ये क्या! सीधे टाँय – टाँय फिस्स्स.....! शटर क्लोज्ड .....!
सुर बिखर चुके थे, मध्दिम – सी धुन में ज़ंजीर फिल्म का वह गीत कानों में गूँजने लगा, ‘बना के क्यों बिगाड़ा रे, बिगाड़ा रे नसीबा.....ऊपरवाले ...हो ऊपरवाले .....!’
उसने कान से इयरफोन निकाला और ‘जय हो बाबा महर्षि धोंडू केशव कर्वे की, धन्य हो महात्मा फुले और सावित्री बाई फुले!’ ऐसा बुदबुदाते हुऐ वह अपनी आँखें मूँदने की कोशिश करने लगा.
नारी स्वतंत्रता का प्रबल पक्षधर होते हुऐ भी वह मन ही मन उस लड़की की लाईफ स्टाइल से खिन्न हो रहा था. सोच रहा था कि नारी के विकास से ही समाज का विकास संभव है, मगर स्वतंत्रता का मतलब स्वच्छंदता और स्वैराचार तो नहीं होता! नारी मुक्ति, नारी सबलीकरण, नारियों को आर्थिक एवं सामाजिक समानता, सत्ता में भागीदारी, विशेष आरक्षण, जैसे तमाम मुद्दों को ठेंगा दिखाते हुऐ वह बाला बेख़ौफ - सी सो रही थी. जैसे उसने सब कुछ पा लिया हो.
अजय सोच रहा था ..... नहीं – नहीं ये जो बगल में है वह सिर्फ़ छलावा मात्र है .....पानी का बुलबुला भर है ..... वास्तव में संस्कृति की गंगा तो आज भी सुशील नारियों के कारण ही समाज में प्रवाहमान है. तभी तो ये दुनिया इतनी सुंदर है. अपवाद तो हर जगह होते हैं. दुनिया तो उसी को जगह देती है, जो यह जानता है कि उसे जाना कहाँ है. अजय अपना गंतव्य जानता था. उसने अपनी सोच को लगाम दिया और अब अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचने लगा.
नारी की दुनिया से बाहर निकलकर उसने अपने मन को नया मोड़ दिया. अपने घर की यादों में वह खो गया. घर जो अपना होता है. जहाँ धूप –छाँव का सुक़ून होता है. फोन पर बाबूजी ने उसे बताया था कि उसकी शादी की बात चल रही है और लड़की देखने का कार्यक्रम तय हुआ है. पर अजय था कि नर्वस हो रहा था. वह चाहता था कि पहले छोटी बहन की शादी हो जाती तो मम्मी – पापा की एक बड़ी चिंता दूर हो जाती. मगर ऐसा हुआ नहीं, आखिर हर सोची हुई बात कहाँ पूरी होती है! ख़ैर अब रस्म तो निभाना ही था. उसकी आज़ाद ज़िंदगी में मौज मस्ती का कोटा शायद पूरा होने जा रहा था.
अचानक एक झटका- सा लगा और उस बाला का सिर अब अजय के कंधे पर टिक गया . उसकी लटें अजय के कंधे को चूमने लगी. वह कुछ अज़ीब – सा महसूस करने लगा. ज़ेहन में सपनों की बरसात होने लगी. उस लड़की का सिर उसे भार नहीं बल्कि सुक़ून दे रहा था. आखिर वह भी तो एक इंसान ही था, उसमें भी संवेदनाऐं थी. पर हाय रे किस्मत! उफ़नती नदी के पास होते हुऐ भी हताश होकर वह खिड़की से बाहर आसमान ताकने के लिऐ मजबूर था. उत्तेजना और गर्माहट में थकी पलकें शीघ्र ही नींद की झील में तैरने लगी. नींद खुली तो मुंबई एरोड्रॅम उनका स्वागत कर रहा था.
फ्लाइट लैंन्ड हुई और वह बगलवाली बाला अनगूँज – सी हवा में काफ़ूर हो गई. सब कुछ इतना अचानक किसी जादू की तरह हुआ कि अजय को यक़ीन नहीं हो रहा था. कुछ देर तक कहीं वह सपने में तो नहीं जी रहा था! ऐसा उसे आभास होने लगा. हक़ीकत की वादियों में, इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़ा वह उस बाला को बस जाते हुऐ काफ़ी देर तक निहारता रहा. सूखे पत्तों की तरह झर – झर झरते सुख को महसूस करते हुऐ वह रेत की तरह हाथों से सुक़ून भरे पलों को फिसलता देखता रहा. इसके अलावा आखिर कर भी क्या सकता था वह! मरुस्थल में अलमस्त पानी, पर मदहोशी का ये आलम!
ख़ैर उसे ऐसे किसी सुख की उम्मीद नहीं थी मगर वह कोई साधू – संत भी तो नहीं था. शीतल हवा का एक प्यारा – सा झोंका आया, दिल को सुक़ून मिला और फिर उसे यह सोचने पर मज़बूर कर दिया कि ऐसे बेमौसम हवा का क्या भरोसा! अपनी मर्जी से बहती है, कभी पुरवा तो कभी पछुआ. अब उदासी अनचाही घटा – सी घिर आई और उसके पूरे बदन में समा गई. जेहन में किसी चिंतक की आवाज धीरे से दस्तक दे गई - यह सदी महिलाओं की सदी है. ज़िंदगी अपने तरीके से जीने का उन्हें भी पूरा हक़ है.
अजय के आने की ख़बर से घरवाले काफ़ी प्रसन्न थे. यह इस बात का प्रतीक भी था कि वह घरवालों के फैसले से सहमत है. सारे ज़रूरी कामकाज निपटाकर अजय शाम को अपने माता-पिता और बहन डिंपल के साथ बोरीवली जाने के लिऐ तैयार हो गया. तैयार भी क्यों ना होता, आखिर लड़की देखने का कार्यक्रम जो बना था! देखा जाए तो आज का दिन उसके लिऐ बड़ा ख़ास था, इसीलिऐ तो उसे बंगलूरू से बुलाया भी गया था. ऑफिस से छुट्टी लेना उसके लिऐ नाकों चने चबाने जैसा था! पर क्या करे पापा का बुलावा ही इतना आग्रह भरा था कि चाहते हुऐ भी वह टाल न सका. वह जानता था कि बॉस से छुट्टी माँगने का मतलब है उसकी खरी – खोटी सुनना. उसका यह अंदाज सही निकला. बडे़ ना - नुकुर के बाद आखिर पाँच दिन की छुट्टी मंज़ूर हुई थी, जिसमें उसे ज़िंदगी का फैसला करना था. तन- मन, और आत्मा के मिलन का टारगेट तय करना था.
ख़ैर लड़की देखने का कार्यक्रम निश्चित समय पर संपन्न हो गया. रिश्ता जाति- बिरादरी से था, जो आजकल बड़ा मुश्किल होता जा रहा है! इस रिश्ते से घर के लोग बेहद ख़ुश थे. अजय के मम्मी – पापा को लड़की बहुत पसंद थी. उसकी बहन डिंपल भी इस रिश्ते से बेहद ख़ुश थी. अजय के पिता राजेश्वर मेहरा सरकारी बैंक से असिस्टंट जनरल मॅनेजर के पद से पिछले साल ही रिटायर्ड हुऐ थे और वे लड़की वालों को अच्छी तरह से जानते थे. वे सोच रहे थे कि अजय की शादी हो जाए तो लगे हाथों बेटी के भी हाथ इसी साल पीले कर देंगे. लड़की के पिता हरदयाल नारंग जी रेल के वरिष्ठ रिटायर्ड अधिकारी थे तो माँ रिटायर्ड शिक्षिका दोनों को अच्छी ख़ासी पेंशन मिल रही थी. ज़ायदाद भी अच्छी बनाई थी उन लोगों ने. अपनी इकलौती बेटी ‘जोया’को बड़े लाड़ - प्यार से उन लोगों ने पाला था. कॉनवेंट में पढ़ी, लंबी, गोरी, छरहरी, स्मार्ट नौकरी पेशा इंजीनियर जोया की तनख्वाह भी अच्छी थी. बिजनेस टूर के सिलसिले में देश – विदेश में आना जाना उसके लिऐ आम बात थी.
जोया कुछ मॉडर्न ज़रूर है पर शादी के साँचे में पड़ने के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों में ढ़ल जाऐगी, ऐसा मेहरा जी का मानना था. अजय भी तो आखिर उड़ता पंछी है. अत: मेहरा जी चाहते थे कि जल्दी से दोनों की शादी हो जाऐ और वे घर - गृहस्थी में लीन हो जाऐं. हाय प्रोफाइल बहू के आ जाने से समाज में उनका रुतबा और बढ़ जाऐगा. दोनों परिवारों के बीच स्नेह संबंध भी बढ़ जाऐगा. बच्चों के जीवन में नया रंग भरने का सपना दोनों परिवार के लोग देखने लगे.
“उमा रिश्ता तो बहुत अच्छा है, बेटा इंजीनियर, बहू भी इंजीनियर. लो अब साक्षात लक्ष्मी घर आ रही है. अपने सारे अधूरे सपने पूरे कर लेना, जिसके लिऐ तुम जीवन भर मुझे और मेरी नौकरी को कोसती रही. अब तुम्हारी तंगी ख़त्म हो जाऐगी. मगर उमा, सच कहूँ ! बच्चों की परवरिश के लिऐ जीवन में तुमने जो त्याग किया है ना, यह सब उसी का फल है. अंतरंगताऐं हमसे छिटककर अँधेरे की सुनसान सुरंगों में भले दुबकी रहीं, पर तुमने अपनी आस्था और विश्वास की फुहार से जीवन की बगिया को सदा हरा – भरा बनाऐ रखा. पैंतीस साल बैंक की नौकरी में पंद्रहों बार मेरा ट्रांसफर कई गाँव और शहर में हुआ, मगर तुमने नौकरी करते हुऐ बच्चों की सारी ज़िम्मेदारियों को न सिर्फ़ संभाला बल्कि उन्हें क़ाबिल भी बनाया. जीवनभर करोड़ों के आँकड़ों से मैं खेलता रहा पर सरकारी नौकरी में इतनी मोटी तनख्वाह के बारे में कभी मैं सोच भी नहीं पाया. प्रगत टेक्नोलॉजी के ज़माने की यह पीढ़ी कितनी आगे है ना! ख़ूब कमाते हैं और ख़ूब मज़े भी करते हैं. कितना परिवर्तन आ गया है ज़माने में, है ना! जो भी हो, हमें तो यह स्वीकार करना ही होगा कि आजकल के बच्चे स्मार्ट हैं. वे अवसरों का लाभ उठाना ख़ूब जानते हैं. अपना भला - बुरा समझते हैं.” मेहरा जी ने अपने मन की बात पत्नी उमा से कहा.
“अजी आप भी ना! क्यों पुरानी बीमारी को कुरेदे जा रहे हो! अब मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है. वह वक़्त कुछ और था. जीवन की गुनगुनी धूप – छाँव से ही मन के सारे विषाद हम दूर कर लिया करते थे. तब मनोरंजन और ऐशो-आराम के इतने साधन नहीं थे. बच्चों की ज़िम्मेदारियों को सँभालते – सँभालते आत्मा पर लगी फफुँदियाँ कब दूर हो गई पता ही नहीं चला. मगर हाँ, तब रिश्तों की नींव पक्की हुआ करती थी. प्रकृति की मनोहारी वादियों में हम अपना तनाव दूर कर लिया करते थे. आस - पास की हरियाली को देखते - देखते हम ख़ुद हरे - भरे हो जाते थे. आज परिवार और संबंधों के बजाय लोग धन को अधिक तूल देने लगे हैं. महिलाऐं अब पहले से अधिक चालाक होने लगी हैं. भगवान से मेरी प्रार्थना है कि अपनी होनेवाली बहू हमारी उम्मीदों पर खरी उतरे.” अजय की माँ कुछ गंभीर होते हुऐ बोली और अपने कमरे में चली गई.
बहरहाल मिलने - जुलने और सपनों की उधेड़बुन में दो दिन बीत गऐ. नारंग जी का फोन भी आ गया कि उन्हें और जोया को अजय पसंद है, ‘आप लोगों का क्या फैसला है?’ पर मेहरा जी की इस विषय पर अभी अजय से खुलकर बात नहीं हुई थी, अत: उन्होंने एक दिन का समय माँगा और फोन रख दिया. आखिर मौक़ा देखकर उस दिन मेहरा परिवार ने अजय से इस बात का जिक्र छेड़ ही दिया.
अजय के लिऐ यह इम्तिहान की घड़ी थी. उसने सबसे पहले अपने घरवालों की राय जाननी चाही. सबने एक सुर में हामी भर दी- “जोया हम सबको पसंद है.” अजय की माँ तो लड्डू का बॉक्स लेकर ही बैठी थी, उसे सिर्फ बेटे के हाँ का इंतेज़ार था. आज तक वह घरवालों की हर उम्मीद पर खरा उतरा था. उसने देखा उसकी बहन आँखों में सतरंगी सपने संजोऐ बैठी है. पिताजी नाक पर का चश्मा ऊपर नीचे करते, अपनी छड़ी को सहलाते हुऐ “हाँ” सुनने के लिऐ आतुर हुऐ जा रहे हैं. सबको उस प्यारी - सी ख़बर का इंतेज़ार था, जो उनके लिऐ एक औपचारिकता मात्र थी.
“आप सभी की भावनाओं का मैं सम्मान करता हूँ. जोया वास्तव में सुंदर, करियर ओरियंटेड स्मार्ट इंजीनियर है. आधुनिक और मॉडर्न ख्यालों की भी है.” अजय के मुख से इतना सुनते ही उसकी माँ ने लड्डू बाँटना शुरू कर दिया.
अजय ने बात को आगे बढ़ाते हुऐ कहा, “एकांत में जोया से मेरी जो बातें हुई उससे मैं संतुष्ट हूँ, उसकी बातें मेरे लिऐ सुखद रही. उसकी सोच की मैं कद्र करता हूँ. मैं ख़ुद एक मल्टीनेशनल कंपनी में बतौर ‘आई.टी.’ इंजीनियर 12 से 16 घंटे की ड्यूटी करता हूँ, प्रोफेशनल हूँ. मेरे साथ जोया जैसी कई लड़कियाँ सहकर्मी के रूप में काम करती हैं, अत: मैं उनकी मानसिक सोच और भावनाओं से पूरी तरह वाक़िफ हूँ. मोटी तनख्वाह, टारगेट, प्रमोशन, सेल्स और काम के घंटों के तनाव में हम लोगों का जीवन सिर्फ़ एक यंत्र बनकर रह जाता है. घर - परिवार और देश - दुनिया से हम पूरी तरह कट जाते हैं. देश दुनिया में क्या हो रहा है इससे हम लोगों को कोई वास्ता नहीं रह जाता. हमेशा काम का तनाव और सामने बॉस का चेहरा! पापा, आप जानते हैं! हम कमाते हैं राजा की तरह पर खटते हैं गधों की तरह और खाते हैं भिखारियों की तरह. ये भी कोई ज़िंदगी है पापा! क्या करेंगे इतने पैसों का, जब सुक़ून का खाना और सुक़ून की नींद ही नसीब ना हो!”
एक पल के लिऐ अजय शांत हो गया. मोटी तनख्वाह वाली नौकरी किस तरह व्यक्तिगत जीवन से लोगों को अलहदा कर देती है, इस बात पर वह खेद व्यक्त कर रहा था. सबके चेहरों पर एक सन्नाटा पसर गया था. ना जाने वह आगे क्या कहने जा रहा है. एक लंबी साँस भरते हुऐ अजय ने फिर बोलना शुरू किया,
“पापा, मैं ख़ूब पैसे कमाने वाली, करियर ओरियंटेड, प्रोफेशनल इंजीनियर नहीं, बल्कि आप लोगों के लिऐ एक गृहलक्ष्मी जैसी बहू चाहता हूँ, जिसके पास इतना समय और संस्कार हों कि वो हम सबके बारे में सोच सके, हमें अपना समझकर हममें रच - बस सके. उसका दुख हमारा और हमारा सुख उसका हो सके. आपके पोता - पोती, आयाओं या नाना - नानी के रहमोंकरम पर नहीं, बल्कि माता - पिता और दादा - दादी की छ्त्र - छाया में पले बढ़े. घर की रसोई गमके, बगिया फले-फूले. नऐ साज़ का झँकार हो.”
अजय की आँखों में अमित और अमिता का वह मासूम - सा चेहरा तैर गया, जब उन्हें नई - नई नौकरी मिली थी और परिंदो ने उड़ान भरना शुरू किया था. पंखों मे बल आते ही वे अपनी ज़मीन को भूल गऐ. आसमान को बाँहों में समेटने की कोशिश में ज़िंदगी के अहम फैसले को दरकिनार कर दिया परिंदों ने! आज के ज़माने में शायद यह बात हो पर.......!
“भैया कहाँ खो गऐ आप! ये हमारे प्रश्न का जवाब नहीं है, जरा खुलकर बोलो.” डिंपल की इस आवाज ने अजय की तंद्रा भंग की. वह आगे बोला, “जोया के पास इतना वक़्त ही कहाँ है पापा? हमें होने में विश्वास करना चाहिऐ दिखने में नहीं. हम दोनों की सोच दो ध्रुवों के समान है, अलग - अलग मौसमों के स्वभाव से संचालित. उसे विदेश का आकर्षण अधिक है. देश - विदेश में मैं भी घूमता हूँ, पर मैं अपनी मिट्टी का तिलक करता हूँ, अपने वतन से प्यार करता हूँ. मुझे अपनी संस्कृति पर गर्व है. भारतीय होने का अभिमान है. पापा, मैं उसके योग्य नहीं हूँ! नहीं हूँ मैं उसके योग्य! जोया अपनी जगह पर सही है. वह अपने विचारों से समझौता करने को भी तैयार है पर मैं उसके सपनों को मरने नहीं देना चाहता. आय एम सॉरी पापा, मैं अपनी ज़मीन से कटना नहीं चाहता! साथ ही जोया को सपनों को लगाम भी नहीं लगाना चाहता. फ्लाइट का वक़्त हो रहा है, कुछ देर में मुझे निकलना होगा.” यह कहते हुऐ अजय ने अपनी मम्मी - पापा के चरण छुऐ और बहन को प्यार दिया. सबकी आँखें नम हो गई.
फ्लाइट का ज़िक्र होते ही अजय की आँखों के सामने उस मॉडलनुमा बाला का चेहरा तैर गया...... वह तो महज एक टाईमपास थी ....... मगर यहाँ तो ज़िंदगी का फ़ैसला करना था.