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Vimal Shukla

Tragedy

2.0  

Vimal Shukla

Tragedy

मुक्ति

मुक्ति

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सामने दुकान है, दुकान के पास खड़ा है नीम का पेड़, इस पेड़ के चारों ओर बाँधा गया है चबूतरा। कल तक पेड़ और चबूतरा दोनों प्रफुल्लचित्त रहते थे कल शायद फिर प्रसन्न हों किन्तु आज उदास हैं, शायद सिर्फ यही उदास हैं अगर कोई अन्य उदास है तो वह है लेखक। क्योंकि थोड़ी देर पहले इस चबूतरे से एक लाश उठाकर ले जाई गयी है अंतिम संस्कार के लिए। आज सुबह वह मर गयी थी या आसपास वालों को लगता है कि वह आज सुबह मरी थी। जहाँ तक लेखक का प्रश्न है लेखक को लगता है वह अपने जीवन में बहुत बार मरी होगी या यूँ कहें उसके अपनों ने उसे मारा होगा, आज तो उसे मुक्ति मिल गयी।

कुल तीन प्राणी वह स्वयं उसका पति और उसका आठ वर्ष का लड़का कोई पैंतीस वर्ष पूर्व इस मुहल्ले में रहने के लिए आये थे। किसी चीज की कोई कमी नहीं, हँसी ख़ुशी से भरा पूरा परिवार। अगर कोई कमी थी तो सिर्फ इतनी कि परिवार में इकलौती सन्तान थी। किन्तु पति पत्नी को कोई मलाल नहीं, कभी इस बारे में उन दोनों की ज़ुबान पर कोई चर्चा नहीं दिखाई दी।

पति ने अपना कपड़े का व्यवसाय शुरू किया। दुकानदारी चल निकली। किन्तु कुसंगति रुपी व्याधि जिसे हो जाए उसे कौन सा अन्य व्यसन नहीं लग जाएगा। युवावस्था का जोश कुछ आगा पीछा सोचने तो देता नहीं। दुकान प्रायः बन्द रहने लगी और पति का ठिकाना मुहल्ले के किसी कोने में हो रहे जुए का फड़। कभी कभी पीना पिलाना भी हो जाता था। परिणाम घर में चिक चिक और कलह। बेचारी पत्नी जीते जी समझो मर गयी। कई बार दिमाग में आया पति को उसके हाल पर छोड़कर मायके चली जाये, किन्तु वहाँ भी कितने दिन निपटती। माँ-बाप तो रहे न थे और भाइयों भौजाइयों का क्या आसरा? अतः क्या करती विवशता में पति की मार-पीट सहती और रूखी सूखी खाकर किसी तरह जीवन यापन करती। हाँ, एक उम्मीद की किरण थी कि एक दिन उसका लाड़ला बड़ा हो जायेगा तब उसे शायद इस नारकीय यातना से मुक्ति मिल जाये एक सम्भावना यह भी थी कि शायद पतिदेव ही सुधर जायें।

इस संसार में किसी चीज का बिगाड़ तो बड़ा सरल है। कोई भी चीज शीघ्रता से बिगड़ जाती है फिर वह चीज मनुष्य ही क्यों न हो। किन्तु जब बनने या सुधरने का प्रश्न खड़ा होता है तो बड़ी बाधाएँ आती हैं। सो पतिदेव तो सुधरने की जगह बिगड़ते ही चले गये। प्रायः घर से ग़ायब भी रहने लगे। हाँ लड़का धीरे धीरे बड़ा हो रहा था। पढ़ाई लिखाई में बहुत तेज़ तो न था हाँ व्यसन कोई न था उसमें। माँ से प्रेम भी करता था हाँ पिता जी के अवगुणों के कारण उसका अपने पिता जी से प्रायः विवाद हो जाता था। यह स्वाभाविक ही था कि माँ अपने पुत्र का ही पक्ष लेती। उसने स्पष्ट कहा कि वह आजतक पुत्र के लिए ही जीती आई है अन्यथा कब की मर गयी होती। पति ने माँ-पुत्र की इस एकता से आजिज आकर प्रायः कस्बे से भी ग़ायब रहना शुरू कर दिया। कभी कानपुर कभी आगरा कभी हरिद्वार तो कभी इलाहाबाद। कुछ पता नहीं चलता कब कहाँ आ रहे हैं और कब कहाँ जा रहे हैं। हाँ इस बीच लड़के का विवाह हो गया। चाँद सी बहू घर में आई। अब पत्नी का स्नेह पुत्र के साथ साथ बहू पर भी वितरित होने लगा। पति इस घर में पूरी तरह अनावश्यक हो गया। इसका कारण वह स्वयं था किसी का क्या दोष? काफी समय हो गया पति को इस कस्बे में किसी ने नहीं देखा, इस बीच घर में कन्या रत्न जन्मा, पति एक दिन देखने आया अपनी पोती को जब पोती दो माह की थी। घर में उसने किसी से कोई बात नहीं की। उसकी बहन आई हुई थी बस उसी ने उसे पोती का दर्शन करा दिया। घर में उससे कोई जलपान इत्यादि के लिए कोई कुछ पूछता इससे पूर्व ही वह पोती के हाथों में 50 का नोट थमाकर जैसे आया था वैसे ही चला गया। आज वह पहली बार फूट फूट कर रोई, विधाता ही जाने क्यों? अपने पति के लिए शायद या फिर उसके लिए जो बदलाव उसके बेटे में उसकी बहू के घर आ जाने के बाद हुए थे। जो भी हो कोई बारुद अवश्य उसके हृदय में था जो उसके पति के इस प्रकार आनन-फानन आने-जाने से फट पड़ी। किन्तु उसने किसी से कुछ नहीं कहा। जो कहना था लोगों ने कहा और बातें हवा में तैरी कि अब बेटा माँ को पहले सा महत्त्व नहीं देता। इसमें ग़लती माँ-बेटा दोनों की रही होगी? बेटे के सामने चयन की समस्या रही होगी वह माँ और पत्नी में सामंजस्य नहीं बिठा पाया, अथवा माँ भूल गयी कि उसका अपने बेटे पर जितना भी हक हो कुछ न कुछ हक उसकी पत्नी का भी होगा। सुनने में आता था कि सास बहू अपना अपना खाना अलग बनाती हैं। कभी सुनने में आता था कि बहू आज नाराज़ होकर मायके चली गयी है। यह आना-जाना रूठना मनाना लगा रहा, घर में एक पोते की किलकारियाँ भी गूँजने लगीं। अब तो इस घर में माँ कहें या सास जैसी चीज और भी अनावश्यक हो गयी। बहू का पूरा ध्यान अपने दोनों बच्चों पर और वृद्धा उपेक्षित हो गयी। तीज त्यौहार तक पर वृद्धा पर इतना ध्यान भी बहू-बेटे न दे पाये, जितना लोग घरों-दीवारों पर देते हैं। अब शायद पहली बार पत्नी को पति की याद सचमुच में आई। शायद इसीलिए वृद्धा ने खबर पाई कि उसका पति पड़ोस के गाँव में अपने किसी मित्र के यहाँ ठहरा हुआ है। वृद्धा ने अपने बहू बेटे से तमाम मिन्नतें कीं कि वे या तो उसके पति को लिवा लायें या फिर उसे ही उसके पति के पास पहुँचा दें, किन्तु उन्हें न सुनना था न उन्होंने सुना। पता नहीं किस भले आदमी ने उसकी मदद की पत्नी को पति से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पत्नी को अपने पति को पहचानने में बड़ा यत्न करना पड़ा। वह बहुत ही दुर्बल व कृशकाय हो गया था बीमार भी बहुत था। अपनी पत्नी की ओर उसकी आँखें उठाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वह ज़मीन में नज़रें गड़ाये रहा और पत्नी उसे निःशब्द घूरती रही। कितना समय ऐसे ही बीत गया बताना अनावश्यक है। जब दोनों की दृष्टि मिली तो बरसों के बिछड़े ऐसे आलिंगनबद्ध हुए जैसे प्रथम रात्रि में भी न हुए होंगे। दोनों की आँखों से पश्चाताप ,ग्लानी व संताप की अविरल गंगा-यमुना बह चली। दोनों ने अपने अपने दुःख दर्द व गिले शिकवे किये। पत्नी ने किसी तरह पति को अपने साथ रहने को राज़ी किया, पति को भी अब आश्रय की आवश्यकता थी अतः उसे राज़ी होना पड़ा। एक बार फिर पत्नी का समर्पण देखने को मिला। दोनों घर आ गये। किसी तरह लड़का पिता जी को घर में रखने के लिए राज़ी हुआ। पत्नी को कुछ सान्त्वना प्राप्त हुई, किन्तु विधाता को कुछ और ही मंज़ूर था। जिस दिन पत्नी पति को घर पर लिवाकर आई उसके छ: सात दिन बाद ही एक रात पति ने पत्नी से पानी माँगा, पत्नी ने बहू को आवाज़ लगाई, जब बहू नहीं आई तो विवश होकर पत्नी रसोईघर में स्वयं ही पानी लेने चली। खटरपटर सुनकर बहू की नींद क्या खुल गई बहू ने पूरा मोहल्ला सिर पर उठा लिया। बेचारी पानी के बिना ही लौट आई। पति के सिरहाने खड़ी होकर सुबकने लगी, पति ने कुछ कहने का प्रयास किया किन्तु कुछ कह न सका उसका मुहँ खुला का खुला रह गया। वह अनन्त यात्रा पर निकल चुका था।

जैसे किसी को आसमान से लाकर ज़मीन पर पटक दिया गया हो। सारे संसार में अंधकार का साम्राज्य छा गया।

विधवा का कठिन जीवन फिर परिवार की ओर से उपेक्षा किसी मृत्यु से कम है तो यह स्त्री वास्तव में जीवित थी। हाँ वृद्धा के लिए एक अच्छी बात यह हुई कि पोती स्कूल जाने लायक हो गई थी। बेटे बहू को एक नौकरानी की आवश्यकता थी सो वृद्धा से अच्छी नौकरानी कहाँ मिलती? ड्यूटी लगा दी गई। वृद्धा का इतना लाभ हुआ कि अब तक उसका घर से बाहर निकलना जो पहले कम होता था अब अधिक हो गया तो इससे उसका दिल बहल जाता था दूसरे उसके अन्तर्मन की पीड़ा अब पोती के प्रति ममता में परिवर्तित होती जा रही थी। अब पोती थी जिसके साथ उसका समय ही गुज़र जाता हो सिर्फ ऐसा न था बल्कि वह उसके साथ अपने दुख भी भूल जाती थी। दूसरे बच्चे इतने दुनियादार नहीं होते कि बिना किसी कारण किसी से घृणा कर लें। किसी तरह वृद्धा अपना दर्द भूलने का यत्न कर ही रही थी कि उसकी ड्यूटी बढ़ गई। अब पोता भी उसके दोस्तों में शामिल हो गया था। वह भी स्कूल जाने लगा था। किन्तु एक नई समस्या खड़ी हो गई। पोती जैसे जैसे बड़ी होती जा रही थी धीरे धीरे अपने अपने माँ-बाप का मन्तव्य समझकर उनका अनुसरण करती जा रही थी। या यों कहें कि माँ कहीं न कहीं अपनी बेटी को यह समझाने में कामयाब हो रही थी कि बुढ़िया इस घर में फ़ालतू की चीज है। अब बुढ़िया और पोती के बीच दूरी बढ़ रही थी। वह इतनी बढ़ी कि बुढ़िया को जब तब अपने साथियों के मध्य अपमानित कर देती। इस विस्तृत संसार में बुढ़िया बस भगवान से कहती कि उसे उठा ले।

भगवान उसकी क्यों सुनने लगे? बुढ़िया की जरूरत भगवान को भी न थी। किसी तरह दिन गुजरते रहे।

एक सप्ताह पूर्व पोती का विवाह था। बुढ़िया के हृदय में पोती के ब्याह को लेकर बड़ी उमंगें थीं। लेखक जानता था कि किस उत्साह से क्या-क्या यत्न करके उसने पोती के विवाह के लिए लिए उपहार खरीदे। किन्तु द्वार पर बारात आने के ठीक एक दिन पहले पोती व माँ ने बुढ़िया को अपशकुनी व मनहूस करार देकर उसे सख़्त हिदायत दी कि विवाह कार्य सम्पन्न होने तक बुढ़िया कमरे से बाहर नहीं निकलेगी। बुढ़िया ने बुझे मन से स्वीकारा भी कि वह कमरे से बाहर न निकलेगी। लेकिन उसका कलेजा तब फट गया जब पोती ने बुढ़िया के दिए उपहारों को हाथ लगाने से भी मना कर दिया। बुढ़िया उस दिन के बाद से कमरे से बाहर न निकली, उसका पोता उसे कमरे में खाना दे आता था। कल सुबह भी वह खाना लेकर गया था द्वार नहीं खुले। पति पत्नी ने पड़ोसियों को इकट्ठा किया। द्वार तोड़ा गया। चारपाई के ऊपर बुढ़िया का मृत शरीर था और चारपाई के नीचे एक हफ्ते से उसे भेजा हुआ भोजन जिसे उसने हाथ भी न लगाया था।


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