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Mohanjeet Kukreja

4.6  

Mohanjeet Kukreja

बगीचा

बगीचा

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लेखक: हरपाल सिंह  

पंजाबी से अनुवाद: मोहनजीत कुकरेजा


दूर कहीं किसी पहाड़ पर एक बुज़ुर्ग रहता था, जिसका नाम कोई नहीं जानता था। उसका कोई ठिकाना नहीं था, जहाँ नींद आती सो जाता, किसी को भी पता नहीं था वह क्या खाता है, कैसे जीता है, लेकिन सबको इतना पता था कि वह बहुत बुद्धिमान है, उसके पास सभी सवालों के जवाब होते हैं...

उसी पहाड़ की दूसरी ओर एक गाँव था जिसमें दो नौजवान रहते थे।

कविराज नामक युवक किताबें पढ़ने का शौकीन था, उसके बारे में कहा जाता था कि कोई किताब छपती बाद में है, वह पढ़ पहले लेता है!

"मैं दुनिया को जानना चाहता हूँ, ज़िन्दगी का भेद खोजने के लिए किताबें छानता फिरता हूँ," वह अक्सर कहा करता था।

"खुला फिर भेद?" लोग उससे सवाल करते।

उसके पास इस बात का कोई जवाब न होता, चुपचाप चल पड़ता। फिर कोई नई किताब पकड़ लेता, मगर उसे ज़िन्दगी का भेद किसी भी, किसी भी किताब में नहीं मिला।    

उसी गाँव में रहते दूसरे नौजवान का नाम आशिक़ था, उसको आज तक बहुत सी लड़कियों से प्यार हुआ, लेकिन वह किसी एक के साथ भी जुड़ कर न रह सका। आज-कल वह फिर से एक नई हसीना के प्यार में पागल था, उसके लिए गीत गाता था, कविता गुनगुनाता था -

'तेरी हंसी पे मरते हैं सनम, तेरे छूने से ज़िंदा हैं हम...'

उसकी प्रेमिका आँखों में ढेर सा प्यार भर कर उसकी तरफ़ देखती थी, हँसती थी

'यह कितना कम बोलती है, मेरी तरह कभी अपने दिल की बात ज़ुबान पर नहीं लाती! क्या पता इसके दिल में क्या है!' वह अक्सर यही सोचता रहता था। 

"तुम्हारे दिल में क्या है, तुम कभी बताती ही नहीं?" एक दिन उसने प्रेमिका से पूछ ही लिया।

"बताने की ज़रुरत है क्या?" लड़की ने उसकी आँखों में आँखें डाल कर पूछा।

आशिक़ से फिर कोई और सवाल न हुआ, परन्तु उसके दिल ने कहा कि उस लड़की के मन की बात पता लगनी ही चाहिए।

अपने सवालों के जवाब तलाशते कविराज और आशिक़ को किसी ने पहाड़ पर रहते उस बाबा के बारे में सुझाया, "उस बूढ़े आदमी के पास हर प्रश्न का उत्तर होता है, तुम दोनों के सवालों के जवाब भी वह दे सकता है…”

गाँव वालों की बातें सुन कर उन दोनों ने भी पहाड़ पर जा कर उस बुज़ुर्ग से मिलने का फ़ैसला कर लिया और आख़िर एक सुबह दोनों पहाड़ की तरफ़ रवाना हो गए। 

दोनों चलते रहे, चलते रहे और शाम होने तक पहाड़ के ऊपर जा पहुँचे।

घने जंगल के बीच वे बेसब्री से उस बूढ़े को ढूंढने लगे, आखिर उन्हें वह एक पेड़ के नीचे बैठा दिख गया।

साफ़-सुथरे कपड़े पहने, लम्बे सफ़ेद बालों वाला वह बूढ़ा आदमी आँखें बंद किए बैठा था।

"बाबा! बाबा जी!" कविराज ने आवाज़ दी।

बाबा ने आँखें खोली।

"बाबा जी, हम बहुत दूर से आए हैं, अपने कुछ सवालों के जवाब की तलाश में" आशिक़ उतावलेपन से बोला।

"बच्चों, आराम कर लो, अंधेरा होने को है, उजाला ढूँढने आए हो, सुबह का इंतज़ार करो - सब कुछ उजला हो जाएगा," बूढ़े ने फिर से आँखें बंद कर लीं।

दोनों एक-दूसरे की तरफ़ देखने लगे, कोई और चारा भी नहीं था, दोनों उस बूढ़े आदमी के आस-पास ही बैठ गए।

रात घिरने लगी थी, दोनों वहीं सोने की तैयारी में जुट गए।


अगली सुबह दोनों नौजवानों ने बुज़ुर्ग से फिर अपने सवालों के बारे में बात की।

"यहाँ पास में एक बगीचा है… आओ, वहीं चल कर बात करते हैं।"

दोनों बात मान कर बुज़ुर्ग के पीछे चल दिए।

बगीचे में पहुँचते ही दोनों सब-कुछ भूल गए, इतना सुन्दर बाग़ उन्होंने पहली बार देखा था, तरह-तरह के फूल, छाँवदार वृक्ष।

सघन हरी घास जिसे देख कर जैसे आँखों की थकान दूर हो जाए

बगीचे में घूमते-घूमते ही उनको शाम हो गई।

"बाबा जी, हमारे सवालों पर भी ज़रा गौर कीजिए," आशिक़ को जैसे अचानक याद आया कि वे वहाँ जवाब की खोज में आए थे।

"मैं तो बहुत थक चुका हूँ, तुम लोग भी थक गए होंगे, हम कल इस बारे में बात करेंगे, तुम भी अब आराम करो।"

बुज़ुर्ग इतना बोल कर, बिना उनकी तरफ नज़र डाले, चल पड़ा। वे दोनों भी और क्या करते, उसके पीछे चल दिए।

 

अगले दिन फिर उसी बाग़ में...

कविराज और आशिक़ एक बार फिर उस बगीचे में आ कर ख़ुश थे, मगर आज उन्हें कल जितना मज़ा नहीं आ रहा था।      

उधर बुज़ुर्गवार पूरे बगीचे में इतने उत्साह से घूम रहे थे जैसे वहाँ पहली बार आए हों!

"बाबा जी, लगता है आप हमारे सवाल भूल गए हैं," कविराज ने हिम्मत जुटा कर कहा।

"नहीं बच्चों, मुझे याद हैं तुम्हारे सवालों के बारे में, पर तुम लोग इतनी दूर से आए हो, मैं चाहता हूँ क़ुदरत के अनमोल नज़ारे दिखा दूँ, दोबारा पता नहीं यहाँ कब आ पाओगे, इसलिए जी भरके देख लो यह सब। कल हम लोग यहाँ फिर से आएँगे, तब मैं तुम्हारे सवालों के जवाब दूँगा।" 

बुज़ुर्ग ने इस बार भी उनकी तरफ़ देखने की कोई कोशिश नहीं की और बगीचे से बाहर की ओर चल दिया।

आशिक़ और कविराज का दिल तो हुआ कि वापिस गाँव लौट जाएँ, लेकिन एक बार फिर सब्र का घूँट पीकर रह गए।


तीसरे दिन बगीचे में पहुँचते ही आशिक़ और कविराज बेचैन नज़र आने लगे।

"इस सुन्दर बाग़ में घूम लो, बाद में हमने बातें ही तो करनी हैं," बुज़ुर्ग ने उनकी तरफ़ देखा

"नहीं, बाबा जी! घूम तो चुके बगीचे में, अब बार-बार इसमें क्या देखना है? सब कुछ वही है जो कल था, परसों था," कविराज ने खीझ कर कहा।

"और क्या! मैं तो कल ही उक्ता गया था, अब और हिम्मत नहीं बची, बस कहीं बैठते हैं। आप हमारे सवालों के जवाब दे दीजिए बस, अगर आपके पास हैं तो। न भी हों तो हमें बता दीजिए ताकि हम वापिस जाने वाले बनें," आशिक़ भी बोल पड़ा।

बुज़ुर्ग उन दोनों की तरफ़ देखता रहा, उसके चेहरे पर पहले जैसी शांति थी!

"पूछो अपने सवाल," घास पर बैठते हुए उसने कहा।

"मैंने बहुत सारी किताबें पढ़ी हैं लेकिन मैं अब तक ज़िन्दगी का भेद नहीं समझ पाया, मुझे लगता है मैं बस ज़िन्दगी को जी रहा हूँ, इसका आनंद नहीं उठा पा रहा," कविराज बाबा के पास ही बैठ गया।

बुज़ुर्ग ने आशिक़ की ओर देखा,

"बाबा जी, मेरी ज़िन्दगी में बहुत सारी लड़कियाँ आईं, मैं किसी के साथ भी ज़्यादा देर निबाह नहीं पाता। मैं चाहता हूँ उनके दिल की मुझे पूरी ख़बर हो, मुझे पता हो कि उनके दिल में क्या चल रहा है, मैं पूछता भी हूँ तो वे मुझे बताती नहीं हैं, बता भी दें तो मुझे तसल्ली नहीं होती। मुझे बताइए मैं कैसे सबके दिल का हाल जान सकूँ," आशिक़ ने भी अपनी समस्या सामने रखी।    

बुज़ुर्ग ने गर्दन झुका ली, जैसे कुछ सोच रहे हों

"तुम दोनों के सवाल का जवाब एक ही है," फिर बुज़ुर्ग ने कहा।

"एक ही जवाब है! कैसे? क्या है वह जवाब? हमें बताइए।" दोनों बेसब्री से बोले।

"तुम लोग परसों इस बाग़ में आए, ख़ुश हुए, अगले दिन फिर आए, मगर पहली बार जितने ख़ुश नहीं हुए, आज तीसरे दिन तो बिलकुल भी ख़ुश नहीं हो यहाँ आकर, है न?" बाबा ने उनकी आँखों में झांकते हुए कहा।

"जी!" कविराज बोला।  

"पहले दिन तुम इस बगीचे की ख़ूबसूरती से अनजान थे, तुमने ऐसी ख़ूबसूरती पहली बार देखी, जिसे देख कर तुम बहुत ख़ुश हुए। अगले दिन तुम लोगों को पता था कि इस बगीचे में क्या है, तुम उसे देखने के लिए उत्सुक नहीं थे। तीसरे दिन उन्हीं सब चीज़ों के प्रति तुम्हारे भीतर कोई भी आकर्षण नहीं बचा था।" बुज़ुर्ग बोलते-बोलते रुका...

"लेकिन इस सबका हमारे सवालों से क्या सम्बन्ध है?" आशिक़ ने पूछा।

"तुम ज़िन्दगी को जानने के लिए किताबें पढ़ते हो," बाबा कविराज से सम्बोधित हुए, "जब कुछ जान लेते हो तो कुछ और नया ढूँढने के लिए और किताबें पढ़ते हो। जब वो भी जान लेते हो तो किसी और भेद की तलाश में चल पड़ते हो। फिर एक समय ऐसा आया जब तुम्हें लगा तुम सब-कुछ जान चुके हो, तुम्हारे पास अब करने को कुछ नहीं बचा, जीवन के प्रति कोई उत्सुकता नहीं रही क्यूँकि कुछ और जानने के लिए बचा ही नहीं तुम्हारे पास, जो किताबें आनंद देती थीं, उन सबको तुम पढ़ चुके!"

"इसमें बुराई क्या है? सब जानने के लिए ही तो मैं किताबें पढता हूँ!" कविराज ने कहा।

"अनजान रहने में एक आनंद है, सब जान लेना वो आनंद नहीं दे सकता, जैसे इस बगीचे में तभी तक आनंद था जब तक तुमने इसके सब हिस्से नहीं देखे थे, मगर जैसे ही तुमने इसके सब कोने देख लिए, वो स्वाद ख़त्म हो गया। ज़िन्दगी भी ऐसा एक बगीचा है, तुम क्यूँ इसके भेद जानना चाहते हो? क्यूँ नहीं इस का सिर्फ़ लुत्फ़ उठाते हो?"

कविराज को कोई उत्तर न सूझा।     

"और मेरे सवाल का क्या हुआ?" आशिक़ ने पूछा।

"तुम भी इस किताबों वाले की तरह ही हो! अपनी ज़िन्दगी में आई लड़कियों को प्यार करने, उनसे प्यार लेने की जगह, उनके दिलों के भेद समझने के लिए छटपटाते रहते हो। आनंद तुम भी कहाँ ले पा रहे हो? तुम्हारी ज़िन्दगी में आई औरत अगर एक पल में तुम्हारे सामने नुमायाँ हो जाएगी तो तुम्हें बाद में उसके साथ क्या आनंद आने वाला है? जो मज़ा एक-दूसरे को धीरे-धीरे, अपने-आप जानने में है, वो किसी को भी ज़बरदस्ती पढ़ने में नहीं है," बुज़ुर्ग ने कहा।

आशिक़ और कविराज बिना कुछ बोले चुपचाप सुनते रहे...

"तुम दोनों एक दूसरे से उलट हो, लेकिन फिर भी एक जैसे हो। एक ने सब कुछ पढ़ लिया, फिर भी आगे और भेद जानने के लिए परेशान है, उसने किताबों को उनका आनंद लेने की बजाये कोई भेद समझने को पढ़ा, और जब भेद जान लिया एक का तो दूसरी किसी किताब की तरफ़ अग्रसर हो गया। और दूसरे तुम हो, जो लड़कियों को किताबों की तरह पढ़ना चाहते हो, सब कुछ जान लेने को इच्छुक हो, जबकि अनजान होने में एक मज़ा है, सब कुछ जान लेना ख़त्म हो जाना है!  

बाबा इतना बोल कर खड़े हो गए, वे दोनों भी उनके साथ-साथ उठ खड़े हुए।

"कोई और सवाल?" बाबा ने दोनों की तरफ़ देखा

"आप यहाँ अकेले ऊब नहीं जाते?" आशिक़ ने पूछा।

"नहीं! क्यूँकि मैं किसी तलाश में नहीं हूँ, मैं बस जीवित होने की ख़ुशी मनाता हूँ!"

और हमेशा की तरह इस बार भी बुज़ुर्ग उनकी तरफ़ दृष्टि डाले बिना ही वहाँ से बाहर की ओर चल पड़ा।

दोनों चुपचाप बस उसे जाते हुए देखते रहे...


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