भूख की राजनीति
भूख की राजनीति
बीमार और भूखा मंगलू, आज बहुत खुश था, बीमार और भूखा होने के बावज़ूद, उसके काम से खुश होकर उसके मालिक ने आज उसे तनख़्वाह के अलावा ५० रुपये बतौर बख़्शीश दिए थे। वो सड़क किनारे ख़ुशी से चले जा रहा था और सड़क के बीचों बीच चुनावों के मौसम के कारण रैलियाँ चले जा रहीं थीं। मंगलू ख़ुशी-ख़ुशी दुकान पर पहुँचा और हलवाई से ब-ज़ोर बोला,"भैया। आज हम समोसा खाएंगे!" हलवाई ने भी ख़ुशी के साथ उसे दो समोसे पकड़ा दिए। मंगलू भी ख़ुशी-ख़ुशी समोसे खाने बैठा ही था कि अचानक एक पार्टी का कार्यकर्ता दौड़ा-दौड़ा आया और उसके हाथ से समोसा छीन लिया और कहने लगा,"आपको पता नहीं इस समोसे के अंदर अवस्थित आलू पे हमारे 'शहज़ादे' का 'कॉपीराइट' है इसलिए आप ये समोसे नहीं खा सकते हैं!" ये कहकर उसने समोसा छीनकर फेंक दिया। दिनों से भूखा मंगलू राजनैतिक ताक़त के आगे मन-मसोस के रह गया।
बख़्शीश के ५० रुपये गँवाने के बाद, दिहाड़ी के ६० रुपये लेकर वो एक ठेले पे पहुँचा और उससे पोहे की मांग की और बगल ही लगे मुड्ढ़े पे बैठकर खाने लगा। अचानक एक हाथ ने उस पोहे की थाली को नीचे गिरा दिया और वो व्यक्ति चिल्लाने लगा, "क्या भाई। तू क्या पड़ोसी मुल्क़ से है क्या? बहुत पोहे खा रहा है तू, रुक जा अभी तुझे बताते हैं!" इतना कहकर उस व्यक्ति ने आस-पास मौजूद अपने साथियों को आवाज़ लगानी शुरू कर दी। मौक़े की नज़ाकत समझते हुए, मंगलू ने वहां से दौड़कर अपनी जान बचाने में ही भलाई समझी।
भागता हुए मंगलू ने जब भाँप लिया कि अब उसके पीछे कोई भीड़ नहीं भाग रही है, तो उसने वहीँ बैठकर अपनी चढ़ती हुई साँस को सामान्य करना उचित समझा। मंगलू का ताप और भूख दोनों बढ़ चुके थे चुनांचे कमज़ोरी विगत कई दिनों की थी तो वो अब मंगलू के शरीर पे अपना कब्ज़ा धीरे-धीरे जमाती जा रही थी। जेब में ४० रुपये बचे थे और रात भी बढ़ गयी थी। स्याह सर्द रात अब थके हुए मंगलू के तन को अपनी ताक़त का एहसास करवा रही थी। मंगलू ४० रुपये लेकर एक अवैध ठेके पे पहुँचा और बचे हुए पैसे देकर एक सोम-रस की थैली ख़रीद ली ये सोचकर कि इस भूखे पेट में खाना न जा पाए तो क्या हुआ ये पेय जब पहुँचेगा तो न केवल पेट को भर देगा बल्कि इसका नशा रात आराम से कटवा देगा। अगले दिन अख़बार के एक किनारे पे एक छोटी सी खबर छपी थी,"ज़हरीली सुरापान से एक मज़दूर की मौत: संवाददाता के अनुसार मंगलू (४५) की मृत्यु एक अवैध ठेके पे ज़हरीली शराब पीने से हो गयी!..."खाने के राजनीतिकरण ने एक व्यक्ति को भूख के अनावर्त वृत्त से मुक्त कर दिया था परन्तु गेंहू जो आज भी लहलहा रहा है और गन्ने जो अब भी बढ़ रहे हैं, सुना बताये उनको उगानेवाले किसान चिंतित हैं कि अब इन फ़सलों का वर्गीकरण किस संप्रदाय में होगा?