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Sajida Akram

Drama

5.0  

Sajida Akram

Drama

पन्ने

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4 mins
351


आशु हमारी नन्ही बेटी ने हम दोनों को एक मुश्किल वक़्त में बहुत ही मज़बूती से संभाला, बिलकुल पहाड़ की तरह सख़्त हो गई।

उसकी उम्र उस वक़्त करीब 20साल की थी, जब वो हमें ऐसे बच्चों की तरह संभाल रही थी, जैसे वो हमारी माँ हो। हम दोनों तो बिखर ही गए थे, आशु की मज़बूती ने हम दोनों को एक बार फिर ज़िन्दगी को जीने के क़ाबिल बनाया।

आशु की ख़िदमत और लगातार मेरे को एक पल भी अकेला न छोड़ना, रातोंं को भी मेरे साथ जागने पर उठ कर बैठ जाना, वो करीब एक साल तक कॉलेज भी नहीं गई। उस मुश्किल वक़्त में हालांकि उसने भी अपना प्यारा भाई खोया था मगर हमें संभालने में वो फौलादी हो गई।

कुछ सालों बाद हम भी संभलने लगे हमें दिखने लगा अपनी बेटी आशु का भविष्य और उसको एक अच्छी ज़िन्दगी देने की जद्दोजहद। हम समझ गए अगर हम फौलाद नहीं हुए तो ये नन्हीं सी कली और तकलीफ नहीं सह पाएगी।

क्योंकि हम देख रहे थे कि अपनो ने दूरी बना ली थी और उसके दादा-चाचा, चाचाजी, बुआएं सब मतलब के साथी थे। बुरे वक़्त में सब दूर चलें जाते हैं, बस साथ थे एक मामू जिन्होंने हर पल हमारा साथ दिया। उन्होंने ही समझाया तुम दोनों को अपनी बच्ची के लिए जीना है। वो अकेली इस मतलबी दुनिया में सरवाइव नहीं कर पाएगी जब तक तुम दोनों उसके लिए नहीं होगें, ऐसे तो आशु टूट जाएगी। उसने भी अपना दोस्त जैसा भाई खोया है। वो अपनी तकलीफ को तो अंदर-ही-अंदर पी रही है तुम दोनों के लिए पत्थर हुई जा रही है।

जब हम बिल्कुल जड़ हो गए तो उसने अपनी इंजीनियरिंग बहुत अच्छे मार्क्स से कम्पिलट की और कॉलेज के कैम्पस में ही उसका टी.सी.एस.(टाटा कंस्लटेंसी कम्पनी) में सेलेक्शन हो गया।

केरल में ट्रेनिंग को जाना था उसको हम दोनों ने फिर तो हमने आगे ही आगे बढ़ते जाना है केरल लेकर गए ट्रेनिंग के लिए। हमने कभी अकेला नहीं छोड़ा था बच्चों को तो होस्टल में वह रही और हम दोनों शहर में होटल में एक महीने दस दिन तक रहे। उसके बाद "मुंबई पोस्टिंग हुई। फिर हम ने मुंबई में फ्लैट किराए पर लेकर।

मुंबई में फ्लैट किराए पर लेना भी बड़ा मुश्किल था। हम थे छोटे शहर से हमें वहां के तौर -तरीक़े नहीं मालूम थे पर हमें मुंबई वासियों ने पसीना ला दिया। "छोटे शहरों में तो मकान मालिक से मिले बताया हम इस डिपार्टमेंट में जॉब करते हैं। उन्होंने फौरन किराए पर मकान देने की हाँ कर दी।

मगर मुंबई में हम एक महीने होटल में टिके रहे। बेटी को ऑटो से ऑफिस छोड़ कर फिर ब्रोकर के ऑफिस के चक्कर लगाते जगह-जगह घर देखते। वहीं बेटी के फ्रेंड का भाई समीर मिल गया। उसने हमारी बहुत हेल्प की किराए से घर ढ़ूंढने में। असल बात ये थी हम मुस्लिम थे और लोग वहां किराए पर देने को तैयार नहीं थे। उसका भी मसला था वजह थी कुछ सालों पहले हादसा हुआ था। वो कहते हैं न एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है।

बहरहाल हमने बेटी को फ्लैट में शिफ्ट किया और भोपाल लोटकर आ गए। अब आशु की नई ज़िन्दगी की बेहतरीन शुरुआत करके अब हम उसके केरियर के बाद अगला क़दम ये उठाना चाहते थे उसकी कहीं अच्छी जगह लड़का देखकर शादी कर दें।

हमने बहुत लड़के देखे कहीं घर बार अच्छा तो लड़का नहीं जमा। कई "टी.सी.एस .के लड़को के ऑफर आए पर हमें ठीक नहीं लगें। आशु ने सारे फैसले हमारे उपर छोड़ दिए थे जो आप दोनों को ठीक लगें वो करना। मगर हमें तो मुंबई वाला लड़का समीर हमारे दिमाग़ में पहले दिन से जम गया था तो कोई और क्यों कर पसंद आता।

आख़िर में समीर के घर से भी रिश्ता उसके पापा जब आशु कॉलेज में थी जब ही एक -दो बार ज़िक्र कर चुके थे। हमसे आशु को तो हम अपने घर ले जाएंगें क्योंकि नाहिद उनकी बेटी की बेस्ट फ्रैंड थी दोनों।

कुछ सालो बाद हमने समीर से शादी कर दी आशु की उनके घरवाले, हम दोनों भी ख़ुश थे।

आज आशु और समीर नींदरलैंड जा रहे हैं। शादी की पहली ऐनिवर्सरी पर और कम्पनी की तरफ से समीर को भेजा जा रहा है।

हम दोनों भी अपने सबसे अच्छे सफ़र पर जा रहे हैं हज पर जहां जाने की ख़्वाहिश हर मुस्लमान की ज़िन्दगी में एक बार जाने की होती।

इस तरह से आशु की लाईफ अल्लाह के करम से कामयाब हुई, शुक्र अल्लाह।

आज उसकी दो प्यारी बेटियां है और आशु -समीर ख़ुशहाल ज़िन्दगी को ग्यारह साल हो गए हैं। बस अल्लाह पाक उन दोनों को और बच्चियों की उम्रदराज करें।


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