अविस्मरणीय बंधन
अविस्मरणीय बंधन
अर्धचेतना से अपनी अंतिम साँसों तक पापा के उसके हाथों को थामें रखने का अहसास अब पापा की चिता में अग्नि देने के बाद एक दर्द बनकर वसुधा को जलाने लगा था। इसी दर्द में जलती वसुधा अतीत की गहराई में खोती चली गयी। माँ का अंतिम संस्कार करके लौटी वसुधा को घर पहुँच कर अभी बहुत कुछ सम्हालना था। अपने प्यारे पापा को, जो जीवन के अंतिम सोपान पर अपने आप से संघर्ष करते हुए, माँ के चले जाने से हिम्मत हार बैठे थे। उनका अन्न-जल लगभग बहुत कम हो गया था । एकदम शांत निर्विकार से, सूनी आँखों से देखते थे । यह देख कर वसुधा की ममता उमड़ पड़ी। उसने पापा से कहा कि "माँ के जाने की कमी तो मैं पूरा नहीं कर सकती। पर आज से मैं आपकी माँ हूँ । मैं आपको जरा-सी भी खरोंच नहीं आने दूँगी।“
सुनकर उन्होंने अपनी पलकें झपका दीं । मानों वह स्वीकृति दे रहे थे कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है । और फिर उन्होंने कसकर वसुधा का हाथ थाम लिया था। जैसे बचपन में वह बारिश में बिजली कड़कने पर डर के मारे पापा का हाथ जकड़ लेती थी। आज भी वह पापा के हाथों में वही सुकून महसूस कर रही थी।
मगर उन्होंने तो माँ के पास जाने की तैयारी कर ली थी। वे अर्धचेतन अवस्था में भी वसुधा का हाथ अपने हाथ में थामे सुकून से सो रहे थे । उनकी सांसे भी घड़ी की टिक-टिक का साथ नहीं दे रही थीं। अब वे कभी भी न जागने वाली गहरी निद्रा में सदैव के लिए लीन हो गये थे । वसुधा ने बहते आँसुओं के साथ उनका हाथ अपने हाथ से अलग करना चाहा तो वह छूट ही नहीं रहा था । मानो पापा कह रहे थे कि
"इस बिछुड़ने की घड़ी में तुम अपने को कभी अकेला मत समझना, मैं तुम्हारे साथ ही हूँ।"