डर के आगे जीत है
डर के आगे जीत है
आरती ट्रेन उतरी ही थी कि भीड़ देखकर रूक गयी। "क्या हो रहा है भैय्या यहाँ" आरती ने कुली से पूछा ? "दुखियारी लगती है पोलियो है बेटे को। इसे लेकर घर छोड़ कर भाग आई शायद, अब ठिकाना ढूँढ रही है। पता नहीं क्यों रो रही है।" कुली ने जवाब दिया। आरती ने सोचा, एक बार देखूँ शायद कुछ मदद कर पाऊँ। उसने महिला से पूछा "क्यों कहाँ से आई हो ?" कोई जवाब ना मिलन पर आरती ने कहा "देखो मेरे पति पुलिस में हैं, मुझे बताओ...हो सकता है मैं तुम्हारी मदद कर पाऊं।"
आरती की बात करें तो इन्हें रेलवे स्टेशन पर सब जानते थे। दस साल से रेलवे में थीं। अपनी नौकरी के साथ वो महिलाओं के उद्धार का काम भी करती थीं। ना जाने कितनी महिलाओं की मदद कर चुकी थीं वो।
आरती की बात सुनकर महिला ने सिर ऊपर ऊठा कर हाथ जोड़ते हुए कहा- "नहीं मेमसाहब... हम पर रहम करो हमें कहीं नहीं जाना। हम नर्क से भाग आए कोई पछतावा नहीं। हम अपने कान्हा के लिए जिएँगे।" बच्चे की तरफ इशारा करते हुई बोली। रो-रो के आँखे सूजी हुईं थीं उसकी।
आरती ने सवाल पूछा "क्या नाम है ?" जवाब मिला "रानी"। "रानी सुनो कुछ गलत नहीं होगा, मैं तुम्हारे साथ हूँ।" रानी ने गुलाबी धोती पहनी थी, नैन-नक्श भी सुंदर थे अच्छे घर से लग रही थी।
आरती का घर रेलवे स्टेशन के पास ही घर था। वो उसे अपने घर ले आई। घर पहुँच कर आरती ने चाय-नाश्ता कराया। थोड़ा आराम करने के लिए पीछे का कमरा भी दिया, उसने रानी से कहा "थक गयी होंगी आराम करो। खाना खा कर सो जाना। मेरे पति आते होगें देखो क्या कर सकती हूँ।" आरती ने उसके बेटे को देखा...बेटे की उम्र लगभग तीन साल होगी। उसे दूध दे दिया। खाने को बिस्किट दे दिये।
आरती जी के पति के आने पर रानी ने बताया। "मैं बम्बई से हूँ। साहब मेरा पति मैकेनिक है। बहुत शराब पीता है जो कमाता है, वो सब पी कर उड़ा देता है। घर नहीं आता कई-कई दिन। आता है तो मारता है। फिर पोलियो है बेटे को तो बोझ बताता है इसे। एक आँख नहीं सुहाता कान्हा उसे। कहता है सारी जिंदगी बैठा कर खिलाना होगा। एक दिन सोचा आत्महत्या कर लूँ...चली भी गयी थी रेल की पटरी पर, पर कान्हा आँखो के सामने आ गया। लौट आई पति ने बहुत मारा, गरम लकड़ी से। एक बार भागी कान्हा को लेकर पकड़ी गयी। भूखा रखा मेरे बच्चे को, मुझे बहुत मारा। मैं अब फिर कान्हा के लिए भाग आई मेम साहब। मैं कैसे पेट भरूँगी कान्हा का...नहीं पता मुझे। बस भाग आई।"
मैं वहाँ गजरे बनाती थी। पापड़ और चिप्स भी, ये सब करके गुजारे लायक हो जाता था। यहाँ भी कर लूँगी कुछ, वहाँ भी मेरा पति तो एक रूपया भी नहीं देता था। माँ -बाबा है नहीं। ससुराल वाले पसंद नहीं करते। जाती भी कहाँ ? ये कहकर वो रो पड़ी। कहने लगी हमें नर्क में नहीं जाना।
"तुम हिम्म्त से काम लो। अच्छा किया तुमने आत्महत्या नहीं की। तुम गेट पर मेज-कुर्सी लेकर बैठ जाना। हम तुम्हें वो दे देंगे। यहाँ गजरे, माला...फूलों को बेचो। सामने मन्दिर है। गुजारा हो जाएगा। बाकी यहाँ सब घरों में कुछ ना कुछ काम होता है, मदद करा देना।" आरती ने कहा। रानी को और क्या चाहिए था, आँखो में पानी लिए हाथ जोड़ रही थी।
धीरे-धीरे रानी का काम चलने लगा। उसके व्यवहार ने सबका मन जीत लिया। किसी के पापड़ बना देती। तो किसी के मेहमान आने पर घरेलू काम करा देती थी। सब महिलाएं खुश थीं।
बेटे को भी रेलवे के स्कूल में दाखिला करा दिया था। साल भर बाद आरती ने सबको बुला कर रानी की शादी की बात की.... वहाँँ के माली से। माली की शादी नहीं हुई थी। उसका परिवार रानी कि आदत से परिचित था। कान्हा को अपनाने में कोई गुरेज नहीं था। सब रेलवे वालों ने उसका इलाज का खर्चा मिलकर उठाने का वादा किया।
रानी के पति को तलाक का नोटिस भेजा गया ,वो और उसका परिवार ना जाने क्या-क्या खराब बातें रानी के लिये कहते रहे ,पर अब रानी को कोई डर नहीं था। सब उसके साथ उसके हमदर्द बन कर खड़े थे, कोई दोस्त लग रहा था कोई पीहर (मायके) का और कोई ससुराल का।
रानी का तलाक करा कर कोर्ट मैरिज करायी। आज रानी के एक और बेटा भी है। किसी औरत कि जिन्दगी संवर गयी।कभी- कभी अपने साथ नहीं देते पर गैर अपने हो जाते हैं। रानी ने हिम्मत का काम किया। वो घर छोड़ आई जहां उसके पति ने उसकी जिंदगी नर्क से भी बदतर बना दी थी थोड़ी सी हिम्म्त हो तो रास्ते अपने आप निकल आते हैं। डर के आगे जीत है.... बस जरूरत है एक हिम्म्त भरा कदम बढ़ाने की...जिंदगी तुम्हारी है।