दग्ध हृदय
दग्ध हृदय
मृगांका के मन की चीत्कार भी इस तपते हुए रेगिस्तान में किसी को नहीं सुनाई दे रही थी। उसकी आत्मा को कुचल कर एक ऐसे पिंजड़े में बंद कर दिया गया, जिसमें वह केवल हाथ-पाँव चला सकती थी लेकिन दीवारों से टकराकर आ रही प्रतिक्रिया उसे ही चोट पहुंचा रही थी। उसे इस पिंजड़े से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी।
कहने को वह बहुत स्वतंत्र थी लेकिन, बंदिशों की तप्त धरती पर हमेशा झुलसती हुई उसकी आत्मा को नौकरी करने की इजाज़त केवल दो बूंद पानी की राहत देने जैसा था।
कॉलेज में उसके जिस गुण का मुरीद था कौस्तुभ, अब उसी गुण के कारण उसे ज़लालत झेलनी पड़ती है। ऑफिस से घर में घुसते ही जो तीखे व्यंग्य बाणों का प्रहार कर चरित्र को तौल-माप के लिए तराजू पर रखा जाता उस समय ऐसा लगता है, जैसे यह धरती फट पड़े और वह समाहित हो जाए इस जलजले में।
अभी पिछले महीने जब उसे पदोन्नति मिली और दो दिन के ट्रेनिंग शिविर में उसे जाना था तब कौस्तुभ ने कहा था, " आजकल तुम्हारे ज्यादा ही पर लग गए है। लगता है घर से ज्यादा बाहर वालों की यारी रास आने लगी है"
"इतनी सारी सुविधाएं कौन देता है औरतों को? जो हमारा परिवार तुम्हें दे रहा है"
बहुत कुछ कहना चाहती थी वह लेकिन चुप रह गई क्योंकि उसे पता था कि यहाँ संवेदनाएं भी सूखी जमीं की तरह दरारों से पटी हुई है।
वह अपमान का ज़हर भरा घूंट पीकर रह गई थी।
समाज व स्त्रियों के कल्याण के लिए मृगांका ने जो कुछ करना चाहा था वह एक आकांक्षा ही थी जिसे इन भूखे गिध्दों ने महत्वाकांक्षा का नाम देकर उसे इस चिलचिलाती धूप में छोड़ दिया। जहां अब उसकी परहित-कल्याण की लड़ाई ने स्व- अस्तित्व की लड़ाई का रूप ले लिया था।
विकराल स्थिति उस समय बनती है जब उसकी आत्मा व शरीर को रौंदते हुए कौस्तुभ वह वादे कर जाते है जो सुबह होते ही जेष्ठ मास के बादलों की तरह विलुप्त हो जाते है और रह जाता है बाकी बचा हुआ सूख कर बंजर बना रेगिस्तान।
अब मृगांका अपनी ही छोटी सी अंतहीन कोशिश में लगी हुई है, "कोई ऐसा बादल आएगा जो इस तपती धरती को तृप्त करते हुए उसके वज़ूद का अहसास करवाएगा"
"शायद, अनंत काल तक औरत तेरी यही नियति है"