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लघुकथा

लघुकथा

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आज सुरभि अपने घर से निकल कर शिथिल डग भरती हुई एक अनिश्चित गन्तव्य की ओर चली जा रही थी ।उसे स्वयं नहीं पता था कि वह क्यों और कहाँ जा रही थी ?लेकिन मन इतना व्यथित और अशान्त था कि वह कहीं रुकने का भी नाम नहीं ले रहा था ।जैसे जैसे सूर्य अपने नियमित गति से चलते हुए ताप बढ़ा रहे थे, उसी गति से उसके दिमाग की विचार श्रृंखला भी कुछ स्थिर निर्णय लेने हेतू तीव्र गति से सोचने में लगी हुई थी।


जब शरीर, थकान व निराशा से क्लांत हो गया तो वह एक पेड़ के नीचे बैठ गई व पानी की बोतल निकाल कर पानी पीने लगी ।चेहरे पर थोड़ी सी शांति व मन में सुकून अनुभव हुआ परन्तु अब आगे उसे जाना कहाँ है ,यह वह निश्चित नहीं कर पा रही थी ।


रह रह कर उसे अपनी ज़िंदगी के वे २७ वर्ष याद आ रहे थे जो उसने अपनी समस्त महत्वाकांक्षाओं का गला घोंटते हुए ,विशाल के लिए समर्पित कर दिए थे ।

शादी के दो चार दिन में ही उसे समझ आ गया था कि वे दोनों ही अलग अलग मिट्टी के बने हुए हैं ,परन्तु उसे अपनी क्षमताओं पर पूर्ण विश्वास था ,जिसके बल पर वह विशाल के साथ जीवन की गहराइयों को नापते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचना चाहती थी ।

बच्चों के पालन पोषण व घर सम्भालने का समस्त दायित्व सुरभि ने अपने कंधों पर ले लिया था जिससे पति घर की तरफ से स्वतंत्र होकर व्यवसाय पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकें । 

लेकिन इसका परिणाम ,पहले से ही लापरवाह विशाल ,घर पत्नी व बच्चों की तरफ से ज्यादा लापरवाह होते गए ।

उनकी आदत कहें या सुरभि का दुर्भाग्य , विशाल को अपने पत्नी, बच्चों से ज्यादा परिवार के अन्य सदस्यों की परवाह रहती थी । किसी को आर्थिक ,सामाजिक या मानसिक ज़रूरत हो तो विशाल सबसे पहले पहुंचते परन्तु सुरभि व बच्चों के कुछ होने पर कहते ," तुम तो चार जनों का काम अकेली कर लेती हो ,क्या जरूरत है तुम्हें किसी की , " । क्षण भर के लिए भावुक सुरभि भी उनकी बातों में आ जाती लेकिन दिल का हर कोना पति के साथ व सहयोग के लिए तरसता रहता ।बच्चों की स्कूल ,हारी -बीमारी , हर जगह वह अकेली ही भागती रहती थी ।

जब कभी वह स्वयं बीमार पड़ती तो उसे पूछने वाला भी कोई नहीं था ।बच्चे उसके लिए संवेदनशील थे लेकिन वे भी आखिर बच्चे ही थे । 

जीवनसाथी की जगह वैसे भी कोई नहीं ले सकता । पति जब भी दौरे या अपने घर से वापिस लौटते ,सुरभि सारे गिले-शिकवे भूल कर नई जिंदगी जीने लगती व हर छोटी -छोटी  चीजों में खुशियां तलाशती । परन्तु विशाल की बेपरवाही में कभी सुधार नहीं होना था और न ही हुआ ।

बच्चों के सुंदर भविष्य को गढ़ने में सुरभि ने दिन रात एक कर दिए व दोनों ही बच्चे अपने अपने क्षेत्र में सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए अपना कैरियर बना चुके थे । 

घर की हर खुशी या उदासी सौरभ का इंतज़ार करती रहती लेकिन उनकी जब मर्ज़ी होती तभी वे घर आते अन्यथा अपने राजनीतिक व सामाजिक सरोकारों में समय बिताते ।

सुरभि की विशाल के प्रति ज्यादा अपेक्षाएं कहें या प्यार ,वह उसके बिना खुद को बहुत ही अधूरा पाती थी । धीरे-धीरे उसका तनाव व अकेलापन, अवसाद का रूप लेने लगा ।

पिछले साल बेटी की भी शादी हो गई व बेटा भी अपने कार्यस्थल पर व्यवस्थित हो चुका था ।

कई बार तो यह अवसाद उन्माद की स्थिति तक पहुंच जाता था, जिसमें वह घण्टों रोती रहती थी और आज भी उसी अवसाद में घर से ४ जोड़ी कपड़े लेकर अनजाने सफ़र के लिए निकल पड़ी थी ।

धीरे-धीरे शाम घीर आई व चहचहाती हुई चिड़ियाएं भी अपने घोंसलों में जाने को बेचैन होने लगी ।

सुरभि भी अपनी जगह से उठी व सामने स्थित मन्दिर की घण्टी का नाद सुनकर उसकी ओर चल पड़ी । 

आरती के बाद वहां १५ मिनट का प्रवचन हुआ,जिसमें एक संत ने बताया कि इस भौतिक नश्वर शरीर व मनुष्यों को, जिन्हें आप अपना समझ कर उनमें आसक्त होकर स्वयं को जलाते रहते हो,यदि यही आसक्ति , तुम प्रभु के चरणों में लगाओ तो वह तुम्हें मोक्ष प्रदान करने वाला होगा और भौतिक चीजों में लगाओगे तो कई योनियों में यूँही भटकते रहोगे ।सन्त की वाणी कानों में अमृत घोल रही थी और उसके डग अनयास ही मंदिर की सीढ़ी से घर की तरफ मुड़ चले थे ।


घर पहुंच कर,शांत मन से मंदिर में रखी कर्मयोग व भक्तियोग का महान ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता को हाथों में उठा लिया ।






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