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दो बाँहें, एक गंध और ख़ालिस रोमांस

दो बाँहें, एक गंध और ख़ालिस रोमांस

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शुरुआती कुछ सीढ़ियाँ ईला धड़ाधड़ चढ़ गई थी, अपने सीने के उतार-चढ़ाव को बेकाबू होता

देख वह स्वयं पर मुग्ध थी इतना उभरा हुआ शेप तो सामान्यतः दिखता नहीं उसका फिर

आज कैसे ? उसे ख़ुद ही अपनी इस बदमाशी पर हँसी आ गई | पलट कर इधर-उधर देखा

किन्तु वहाँ दूर-दूर तक कोई ना था जो उसे इस तरह अकेले हँसते हुऐ  नोटिस करता सिवाय

उन पहाड़ी लंगूरों के जो किसी का सामान झपट कर वहाँ आ बैठे थे और अपने गुट के साथ

छीना-झपटी करने में व्यस्त थे | ये लंगूर उसे अपने शहर के आम लंगूरों जैसे ही लगे पर

शायद पहाड़ी क्षेत्र में रहते-रहते इनकी कद-काठी कुछ गठीली व अपेक्षाकृत छोटी हो गई थी |

ईला उन्हें देखकर कुछ ठिठकी फिर अपनी ही मौज में आगे बढ़ गई उसके पास ऐसा कुछ

नहीं था जो इन लंगूरों को आकर्षित करता सिवाय एक पर्स के |

ईला ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया, इत्मिनान पाकर उसका छोटा-सा पेट फुदककर बेल्ट पर

आ बैठा, लो वेस्ट जींस में यही एक फ़ायदा  है, बत्तीस की जींस भी उसे फिट आ जाती है |

सेहत के मामले में लापरवाही रखो तो सब-कुछ फैलने लगता है मगर ज़रा-सा फिक्रमंद रहा

जाऐ  तो लोअर एब्डोमन के आस-पास का घेरा तो वैसे भी ज्यादा फैलता नहीं है औरतों में,

हर साइज़ के पेट इन बेल्टों की मेहरबानी पर आराम से पसरे पड़े रहते हैं | पेट बिचारे का

क्या कसूर ? इलास्टिक की तरह कई-कई बार स्ट्रेच जो होना पड़ता है उसे किन्तु ईला तो

इस प्रक्रिया से गुजर नहीं पाई थी अब तक |

अपनी थकान को संयत करने की गरज से वह एक चौड़ी घुमावदार सीढ़ी  पर जाकर बैठ गई

| ईला के भीतर की शांति मंदिर के वातावरण से मेल खा रही थी | आस्तिकता किसी स्थान

विशेष की देन नहीं होती किन्तु पवित्रता के संपर्क में आते ही वह सुगंधित अवश्य हो उठती

है | चारों और घंटियों की मधुर ध्वनि गूँज  आ रही थी, पूरा मंदिर बड़ी-छोटी कई हज़ार

घंटियों से अटा पड़ा था, घंटियों वाले 'गोलू देवता' अथवा 'गेल्य देवता' का यह मंदिर कुमाऊँ

का प्रसिद्ध मंदिर है | लगभग नास्तिकता की कगार पर पहुँच चुकी ईला का मन भी इस

प्रांगण की पोजिटीविटी से लिप्त होने लगा था, इतना कि मन डूबने लगा था उसका, फेंग-

सूई के अनुसार घण्टियों से निकलने वाली तरंगें नकारात्मकता को दूर भगाती है ... उस

वक़्त यही आभास होने लगा था ईला को | चारों और सिर्फ़  और सिर्फ़  घंटियाँ ही दिखाई दे

रही थी, एक हल्की-सी तरंग ईला के भीतर भी प्रवेश करने लगी थी, कहीं कुछ जमाव-रुकाव

था उसके भीतर जो अचानक द्रवित होकर बहने को आतुर था |

 

जहाँ  ईला बैठी थी वहाँ से मंदिर का गुंबदनुमा शीर्ष ही नज़र आ रहा था, उसके साथ आई

लड़कियाँ  तो कब की मंदिर के द्वार तक पहुँच चुकी होंगी और एक वह थी जो अधबीच में

डेरा जमाऐ बैठी थी, आते-जाते सैलानी हैरत और उत्सुकतावश उसे देख रहे थे, उसने अपने-

आप को सँभाला | लड़कियों की जिद पर ही आज वह गोलू देवता के दर पर थी, ना जाने

इनमे से किस-किसको मन्नतों की चिट्ठियाँ बाँधनी थी, कुमाऊँ की लोक प्रथा के आधार पर

गोलू देवता एक न्यायप्रिय राजा थे, प्रजा उनकी न्यायप्रियता की कायल थी इसीलिऐ कुमाऊँ

के हर-घर में उनकी पूजा की जाती है | देश-विदेश से सैलानी इनके दर पर आते हैं जो

घंटियों के साथ-साथ अपनी मन्नतें भी यहाँ बाँध  जाते हैं, यहाँ आने के एक मक़सद में से

इन मन्नतों की हक़ीकत जानना भी ईला के कार्यक्रम में शामिल था |

मंदिर तक पहुँचने के लिऐ न जाने कितनी सीढ़ियाँ और बाकी थी | ईला ने किनारे पर बैठे

भिखारी से पूछा "मंदिर तक कुल कितनी सीढ़ियाँ होगी बाबा?" भिखारी ने तुनक कर प्रश्न

पर प्रश्न जड़ डाला था "नीचे नोटिस बोर्ड पर सब कुछ तो लिखा है आपने पढ़ा नहीं?" वह

अपनी लापरवाही पर खिसिया गई थी कि एक अंधा भिखारी उसकी अज्ञानता भरी पुतलियाँ

हिला गया था | इस प्रतिकूल स्थिति से निजात पाने के लिऐ  ईला ने जल्दी से दस रुपऐ का

सिक्का उसके कटोरे में घनघना दिया था फिर ज्यों ही आगे बढ़ने को हुई थी कि उस

भिखारी ने एक तंज़ और पकड़ा दिया था "वापसी में उतरते हुऐ  गिन लेना मैडम पूरी डेढ़ सौ

निकलेंगी |" ईला चिढ़ गई थी सीधे प्रश्न का सीधा-सा उत्तर नहीं दे सकता था यह, वह गुस्से

से भिखारी को घूरने लगी थी, ईला की नज़रें उस भिखारी की अधखुली आँखों पर जाकर

टिक गई थीं | आँखें क्या थीं जैसे एल्म्यूनियम की पुरानी टूटी-फूटी कटोरियाँ थीं जिनके तले

में चिपके गुड़ से दो जिद्दी मक्खियाँ भिनभिना रही थीं |

ईला को अपने गुस्से पर पछतावा होने लगा | ज़िंदगी यूँ ही हमेशा उसे चकित करती है, पल

में तोला,पल में माशा | एक जोरदार टन्न की आवाज़ से घबराकर उसने अपने दोनों कान

बंद कर लिऐ   "हे भगवान ! यह क्या मज़ाक है ?" पास से गुजरते भक्तों की टोली में से

किसी ने एक बड़ा वाला घंटा बजा दिया था, वे लोग कुमाऊँनी भाषा में फिल्मी गाने की

पेरोडी का कोई भजन गाते हुऐ बढ़े चले जा रहे थे, ईला उनकी लय से लय मिलाती हुई

अपने कदम ताल भी मिलाने लगी थी | लड़कियों की टोली मंदिर में ना जाने क्या हुड़दंग

मचा रही होगी ? उसे अपनी कॉलेज-लाइफ याद आ गई किसी समय वह भी तो इन्हीं

लड़कियों की तरह वाचाल थी फिर कैसे इस बदलाव तक आ पहुँची ? इस सख़्त ईला के

भीतर सपनों की एक पूरी कब्रगाह है जिसे वह सदियों से सदियों तक ख़ामोश पड़े रहने देना

चाहती थी | वैसे भी उम्र के अड़तीसवें पड़ाव पर देह के छलक़ते पैमाने कुछ थमने लगते हैं |

उसे शिकायत किसी से भी नहीं, जीवन बस कुछ लोगों पर आसानी से नहीं गुज़रता और वह

अपने-आपको उनमें से ही एक मानती थी |

मंदिर के बाहर एकत्रित लड़कियाँ  घण्टियों के साथ अपनी सेल्फी लेने में व्यस्त थी तो कुछ

आपस में अपनी-अपनी चिट्ठियों के सार फुसफुसा रही थीं | ईला मुस्कुरा दी...वह जो देख

आई थी इन तमाम चिट्ठियों का होने वाला हश्र, रास्ते में दो मुस्टंडे पुजारी घण्टियों से बँधी

ऐसी हजारों मन्नतों को कचरा-पात्र में डाल रहे थे और घण्टियों को धो-पोंछकर सुखा रहे थे |

रिसायकल्ड -मार्केट या आस्था का गोरखधंधा चाहे जो भी कह लो आखिर इस मिलीभगत से

बाज़ारवाद तो फलफूल ही रहा है | वह लड़कियों को इस वास्तविकता से रूबरू करवाकर ठेस

नहीं पहुँचाना  चाहती थी, दिल तोड़ना उसकी फितरत में नहीं फिर इन बच्चियों के सपने तो

अभी-अभी पांखे खोलने लगे हैं, वह चुप ही रही |

ईला का दायाँ हाथ अनायास ही अपने बाँऐ हथेली की रिंग फिंगर को सहला गया, स्किन पर

कई बरसों तक अँगूठी पहने रहने से उभर आया निशान अब भी बचा पड़ा था हालांकि उदित

की दी हुई एमराल्ड ग्रीन अँगूठी उसने कब की उतार फेंकी थी | उदित की मम्मी ने कितना

समझाया था ..."रिश्ता तुम्हारा ना सही यह अँगूठी तो तुम्हारी है, पड़ी रहने दो उँगली सूनी

हो जाऐगी " | कोफ्त हुई थी उसे, कमाल की बात थी कि उदित की मम्मी को उसकी उँगली

का सूनापन दिख रहा था किन्तु ईला के जीवन में आने वाले सन्नाटे की आहट तक नहीं थी

उन्हें | एक झटके से अँगूठी को मेज़ पर पटकती हुई ईला दरवाजे को लगभग ठेलती हुई

बाहर चली आई थी | उदित के जीवन से बाहर, अपने खोल से बाहर इस खुले संसार के नीचे

अपने होने का आधार तलाशने तभी से दिल्ली उसका घर और कॉलेज उसके जीने का

मक़सद बन गया था |

अपनी छात्राओं को इतिहास पढ़ाती-पढ़ाती वर्ष में एक बार वह उन्हें लेकर एक्सकर्शन के लिऐ 

निकल पड़ती है | इस वर्ष सेकंड-इयर की लड़कियों की आँखें अपने ख़्वाबों पर रंग भरी

कूँचियाँ चलाने लगी थीं सो उसने सोचा नैनीताल ही चला जाऐ वहाँ की हरी-भरी वादियों के

बारे में बरसों से सुनती आई थी, कितना कुछ था नैनीताल में जो उसकी ख़ुश्क हो आई

दिनचर्या को पुकार रहा था | बस-स्टेंड पर उतरते ही गाइड से "गोलू देवता" के मंदिर का

ज़िक्र सुनकर लड़कियाँ  बावली हुई जा रही थीं... ईला उनके सपनों पर ब्रेक नहीं लगाना

चाहती थी फिर ये बेनाम चिट्ठियाँ वैसे भी कब पते पर पहुँचा करती हैं ? ख़्वाब तो ख़्वाबों

की तरह ही बिखर जाते हैं फिर तेज़ हवा पर सवार किसी दिन सेमल की रूई-से उड़ते-उड़ते

ये ख़्वाब किस-किस के आँगनों में ठहर जाऐं किसे पता है? लड़कियाँ  क्रेज़ी रहती हैं ईला के

साथ, अनुशासन प्रिय किन्तु बेलौस और बेफ़िक्र ईला उन्हें अन्य टीचरों से कुछ ज्यादा ही

सुहाती है | ईला को भी बेवजह उम्र की परिपक्वता का ढोंग उठाऐ फिरना पसंद नहीं | जब

मन का पक्कापन देह से विलग रहकर ज़िंदा रह सकता है तो तन और मन को अलग-अलग

खाँचे में रखने से क्या गुरेज़? और वैसे भी नींव अगर मजबूत हो तो नींव की मजबूती

इमारत को बुलंद रखने में कारगर सिद्ध होती ही है, यही कुछ सख़्त और कुछ नरम अंदाज़

ईला को औरों से भिन्न बनाता है और अपने स्टूडेंट की फेवरेट भी |

लौटते वक़्त भी ईला अपनी कुलाचें भरती हिरनियों से बिछुड़ गई थी, तेज लुढ़कते हुऐ

सीढ़ियाँ उतरना उसके वश में भी नहीं था, वैसे भी उसे लौटते समय डेढ़ सौ सीढ़ियों का

हिसाब भी तो लगाना था, ईला मुस्कुरा दी ...सीढ़ियाँ गिनते हुऐ  नीचे उतरना उसे ठीक वैसा

ही लग रहा था जैसे एक गम को छुपाने के प्रयास में दूसरा गम ओढ़ लेना, इधर पीठ का

दर्द बढ़ा चला जा रहा था सुबह से | ईला सीढ़ियाँ गिनती हुई धीरे-धीरे नीचे उतरने लगी थी-

पैंतीस... छत्तीस... सैंतीस... अड़तीस... और उनचालीस बोलकर वह बस चालीस बोलने को हुई

ही थी कि तभी एक गेरुआ हाथ अचानक उसके माथे पर तिलक लगाने के प्रयास में बढ़ा

चला आया था, उसने ठिठककर अपना सिर पीछे हटा लिया था, वह झल्लाई -

"क्या करते हैं आप ?"

वह बोला "तिलक लगवा लो"

"मान न मान तू मेरा मेहमान ? बिना पूछे ऐसे कैसे छू सकते हैं आप ?"

"छुआ तो नहीं ना" .....वह मुस्कुराया

ईला को उसके ढीठपन पर चिढ़ हुई "ये ज़ुबान दराज़ी क्यों श्रीमान ?"

प्रत्युत्तर में वह कुछ देर याचनाभरी नज़रों से बस देखता रहा था फिर अचानक बोल पड़ा था

"कुछ देना चाहोगी ?"

"हाँ-हाँ ले लो, कन्फेशन भरा पड़ा है सीने में, कहो तो उड़ेल दूँ ?"

उसने बेहिचक प्रश्न पर पर प्रश्न किया "यू मीन कन्फेशन? राइट !"

ईला चौंक पड़ी "हाँ...नहीं तो क्या ?

"या ग्लानि ?" वह बोला

"ग्लानि माय फुट...कह लो ग्लानि कह लो, क्या फ़र्क पड़ता है मुझे"

वह मासूमियत से बोला "कन्फेशन, ग्लानि या भड़ास कुछ भी कह लो, तर्पण तो मुझमें ही

करोगी, मिटना तो हर हाल में अंततः मुझे ही पड़ेगा मैडम"

ऊपर से नीचे तक गेरुए रंग में सराबोर इस युवक को ईला ने अब ज़रा गौर से देखा था,

वस्त्र, खड़ाऊ, गमछा, टोपी, कमंडल सब कुछ गेरुए रंग के थे यहाँ तक कि हाथ-पैर और मुँह

पर भी उसने गेरुआ रंग पोत रखा था | उसके चारों ओर चमकीले गेरुए रंग की एक सुनहरी

आभा फैली हुई थी ....इस रंग से अछूती तो बस दो जोड़ी आँखें ही थी उसकी जो अपने-

आप में हजारों-हजारों प्रश्न समेटे उस पल में ईला को एकटक ताक रही थीं | क्या तो जाने

बसा था उसकी गहरी काली आँखों में जो उस वक़्त ईला को बैचेन कर गया था | अँग्रेजी

बघारता है, हट्टा-कट्टा है फिर भी गेरूऐ रंग में लिपा-पुता यह युवक इस दयनीय स्थिति में

यहाँ क्यों खड़ा है ? ईला को उसके ऊपर सहानुभूति के स्थान पर क्रोध उमड़ आया ...ऊँह

भगोड़ा कहीं का ! उसकी बुदबुदाहट से गेरुआ रंग कुछ सिकुड़ा फिर समान रूप से फैल गया,

ईला को महसूस हुआ कि शब्दों की चोट का असर उस रंग को भीतर तक प्रभावित कर गया

था क्योंकि उस रंग के पीछे छिपे अजनबी चेहरे की नसें कुछ देर के लिऐ तन गई थी चाहे

कुछ क्षण के लिऐ ही सही किन्तु उसकी याचना भरी आँखें थीं कि ज्यों कि त्यों प्रभावहीन

बनी ठिठक गई थी, यानिकी यह ठीठ भी है ...चोरी और सीनाजोरी |

ईला कुछ प्रेक्टिकल होने लगी थी, इन्कम टेक्स का एक बड़ा हिस्सा सरकार ऐसे ही निठल्ले

लोगों पर ख़र्च करती है जो उस जैसे ही सरकारी कर्मचारियों की जेब से जाता है | ईला ने

उसे लैक्चर पिलाने की हैसियत से पूछा था

"कुछ काम-धाम नहीं मिला क्या ?

या फिर यह पुश्तेनी धंधा है तुम्हारा ?" प्रश्न को टालने की गरज से वह मुस्कुरा दिया था

और समय व्यर्थ ना करते हुऐ दूसरे पर्यटकों की ओर मुड़ गया |

ईला अपने-आपको पुनः सीढ़ियाँ उतारने हेतु तैयार करने लगी थी, उसने गिनती जहाँ  से छोड़ी

थी वहीं से शुरू की ....इकतालीस, बयालीस.... तभी वह पीछे से चिल्लाया था "एक्सक्यूज मी

मैडम ...आपने चालीस तो गिना ही नहीं, दरअसल आप चालीस गिनती कि उससे पहले तो

मैंने आपको"........दाँतों को भींचते हुऐ  वह बुदबुदाया "पकड़ लिया था" | झेंपती हुऐ ईला ने

अपना मोबाइल निकाला "इस कार्टून की फोटो तो खींच ही लूँ, वायरल करने के काम आऐगी"

और फोटो खींचते हुऐ  ईला ने उससे पूछा था "नाम क्या है तुम्हारा ?" वह मौन ही रहा था

....कुछ देर बाद बोला "देव" | ईला को लगा कि शायद वह झूठ बोल रहा था या कौन जाने

सच ही हो, नाम का असर काम पर पड़ गया होगा तभी बेचारा देव तो बन नहीं पाया यहाँ

रंगा सियार बना घूम रहा है | वह बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई थी |

अगली सुबह तीन स्वेटर, जेकेट, ऊनी टोपी और ग्लव्स पहने ईला ठिठुरी जा रही थी | वह

टहलती हुई बाहर बालकनी तक चली आई थी | काफ़ी देर तक वह लोहे की ठंडी रेलिंग को

हथेलियों से थामे सामने पसरी नैनी झील में नज़रें गड़ाऐ स्थिर खड़ी रही थी, होटल के कमरे

के बाहर कुछ ही क़दमों की दूरी पर ही हरियल पानी वाली नैनी झील किसी जिद्दी बच्चे की

तरह बाँहें उठाऐ मचल थी कि कोई आगे बढ़े और उचककर उसे गोद में समा ले बस ! रात

भर की बेचैन शीत लहरें अब तक थककर शांत हो चुकी थी और अपनी हल्की-हल्की

थपकियों से लहरों पर सिलसिलेवार तरंगें उत्पन्न कर रही थी जैसे सुषुप्त अवस्था में ही

कोई गाल पर बोसा जड़ दे, नींद तो ना टूटे बस सिर्फ़  हल्की-सी एक उन्माद भरी सिहरन

उठे और एकसार होती हुई अंगों पर जाकर पसर जाऐ  | झील के बीचों बीच बतख़ों की

पंक्तिबद्ध टोली मटकती चली आ रही थी, कई सारी बिछुड़ी बतख़ें भी इधर-उधर से आ-

आकर इस समूह से नाता जोड़ती चली जा रही थीं, पेड़ों की परछाई से लुकते-छिपते फिर वे

दूर तक निकल गई थीं | उस कतार का पीछा करती ईला की निगाहें उन्हें झील के किनारे

तक ओझल होते हुऐ  देखती रही थीं फिर थककर जब वापस लौटीं तो कितना कुछ था जो

विस्मृत होता हुआ भी तन्हा साँसों की धीमी रफ़्तार के बहाने उसे उदास बना रहा था | ईला

की हथेलियों के नीचे वाली रेलिंग कब से गर्म हो चुकी थी किन्तु बहुत कुछ ऐसा था जो अब

भी रेगिस्तान की ठंडी रातों-सा उसके भीतर ही भीतर सर्द बनकर जकड़ा पड़ा था | एक गहरा

शून्य था जो कभी ना भरने की क़सम खाकर ऐंठा पड़ा था...ये शून्य का चरम बिन्दू यूँ ही

तो नहीं उपजा था | हजारों-हजारों बार जी भर रो चुकने के पश्चात इस शून्य को पाया था

ईला ने, उसने भोगी है इस शून्य की सूक्ष्मतम पीड़ित घड़ियाँ और हर बार बड़ी मुश्क़िल हुई

थी उसे अपने निढाल आस्तित्व को ढोकर फिर से सामान्य ढर्रे पर लाने में |

सूर्य की आहट पाकर नैनी झील के पानी में असंख्य सूरज उत्पन्न होने लगे थे, ईला एक

आलौकिक दृष्टिभ्रम से घिरने लगी थी... बरसों पहले इस सूर्य के तेज़ से घबराकर वह

कितनी देरतक फूट-फूटकर रोई थी, घबराहट में उस रोज़ उसने तेज़ी माँ को फोन किया था

उदित के घर को छोड़ने से ज़रा पहले .... "मैं कैसे करूँगी इस दुनिया का मुक़ाबला ? उदित

सूर्य है और मैं उसकी दया में चमकने वाले किसी ज़र्रे का भी सूक्ष्मांश हूँ |" तेज़ी माँ की

सख़्त आवाज़ में उस दिन अनोखा आत्मविश्वास महसूस किया था उसने, वे फोन पर बुदबुदा

रही थीं |

"सुनूँ क्या सिंधु ! मैं गर्जन तुम्हारा

स्वयं युगधर्म का हुंकार हूँ मैं !

या, मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं

उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं"

(सौजन्य-प्रबंध काव्य "उर्वशी"-कविवर रामधारी सिंह 'दिनकर' जी)

 

उस भयावह एकाकी रात में ईला एक दृढ़ निश्चय लेकर उभरी थी, जब वह बिना उदित को

बताए निकल पड़ी थी अकेली इस स्ट्रेंजर दुनिया में अपने दम पर ख़ुद  को साबित करने |

अपने भीतर मध्यम पड़ते हुऐ  उस सूर्य को चमकाने |

झील के आस-पास अब सैलानियों की भीड़ जुटने लगी थी | मॉर्निंग वॉक करते बुजुर्ग और

कुछ अधेड़ भी तेज़ रफ्तार युवाओं के साथ भागे चले जा रहे थे | ईला अवाक थी...जाने क्या

बचा लेने की फिराक़ में हैं ये सब ? उम्र के पिछले पहर की कौनसी सिलवटें फिर से स्टार्च

करके तह लगाना चाह रहे थे ये सब ? पवेलियन में खेलते बच्चे धूप की मानिंद ताज़ा-ताज़ा

निखरे हुऐ थे | उदित को भी कितना शौक़ था कसरत करने का, इस मामले में ईला बिलकुल

बेपरवाह थी | झील के एक किनारे पर कोई बेफ़िक्री से पुश-अप्स कर रहा था, कद-काठी व

चेहरे-मोहरे से वह जाना-पहचाना- सा लगा | कुछ देर पश्चात उसने दोनों हाथ हवा में उठाकर

अपनी पतली फरफराती टी-शर्ट में हवा भरी, हवा एक बाँह से होती हुई दूसरी बाँह से निकल

गई, नाइलोन की टी-शर्ट पिचककर उसके सुडौल बदन से जा चिपकी, उसने अपनी सीने की

मछलियों को ऊपर-नीचे उचकाया और यूँ ही उनसे कुछ देर खेलता रहा | ईला को इस तरह

अपनी ओर ताकते पाकर वह मुस्कुरा दिया | ईला के शरीर में लहू की गर्म झुरझुरी दौड़ गई,

एक पहाड़ी असली सुर्ख रंग फिज़ाओं में तैर गया था | कौन है यह ? एक प्रश्न अचानक

कहीं से आकर छपाक से झील में कूद पड़ा और पानी में दूर तक अर्द्ध चंद्राकार गोले बनते

रहे जो बहते-बहते झील के किनारे जा लगे | कहीं पास ही एफ़॰एम रेडियो पर कोई कुमाऊँ

गीत बज रहा था, धुन किसी फिल्मी गाने से मिलती-जुलती लग रही थी | ईला ने दिमाग

पर ज़ोर डाला फिर नकामयाबी में गुनगुनाहट से चुटकी की जुगलबंदी करती हुई नि:शब्द ही

लय बाँध ने लगी थी तभी लड़के-लड़कियों की रंग-बिरंगी टोली ईला के एन सामने से झूमती-

गाती हुई गुज़री (दूरी न रहे कोई आज इतने करीब आओ) | अरे हाँ ! यही तो गाना है ईला

गाने लगी 'तुम मुझमें समा जाओ मैं तुम में समा जाऊँ ....लड़के-लड़कियाँ  उसे देखकर हाथ

हिलाने लगे तो हिला की हथेली भी अनायास ही हवा में फहराने लगी, पर्यटक स्थल में सभी

मस्ती के मूड में होते हैं बशर्ते उम्र और साथ समय और काल के मुताबिक हो |

शादी से पहले दिन भर फिल्मी गाने गाना और यहाँ-वहाँ दौड़ते फिरना यही एक शगल था

ईला का | तेज़ी माँ जब-तब टोका करती थी "बाई सा भले घराणे री छोरियाँ उधम-मस्ती

कोनी करे सा, सिनेमा रा गाणा शोभा कोनी देवे आपने" वह तुनककर बाबा सा से शिकायत

लगा आती थी और तेज़ी माँ को चिढ़ाने के लिऐ कूदकर रेडियो का वॉल्यूम फुल कर दिया

करती थी | तेज़ी माँ की डरी-छिपी चिंताऐं उस चार मंज़िली कोठी के अहाते के भीतर ही

मंडराती रह जाती थी | हाँ, गाने का शौक बढ़ते-बढ़ते टेप-रिकॉर्डर फिर ब्लैक एंड व्हाइट

टी.वी. तक जरूर पहुँच गया था | उदित ने उसके इस शौक को डी.वी.डी. और कलर टी.वी.

तक पहुँचा दिया था शायद अपने से उसका ध्यान बँटाऐ रखने की नाक़ामयाब कोशिश रही

होगी उसकी, किन्तु बचपन की हवेली में तो तेजी माँ की डाँट खाकर गाते-गाते भी वह पढ़

लिया करती थी जबकि शादी के बाद तो वह गाते-गाते स्वयं की आवाज़ भी सुन नहीं पाती

थी | स्वयं से दूर हो रही अपनी आवाज़ उसे दूर पहाड़ी पे बसी ढाणी से आती टिटहरी के

रुदन का आभास देती थी | सुरबंद , कंठ अवरुद्ध और जीवन नि:शब्द | कुल मिलाकर पुरानी

डायरी के कोरे व पीले पड़े पृष्ठों का सा जीवन | लगभग इसी हालत में ईला दिल्ली पहुँची

थी | अपने नाम के भग्न अवशेष, तार-तार वजूद और अपनी कुचली पड़ी कामनाओं के

कुचले स्वप्न...यही सब सँवारने की लालसा मात्र ही उसमें बची रह गई थी उस वक़्त सिर्फ़ |

वह शाम बड़ी बोझिल उतरी थी गगन से, ईला उदासियों के घेरे से बाहर आना चाहती थी |

पर लड़कियाँ  कहीं जाने को तैयार ना थी और ना ही लड़कियों को अगले डेस्टिनेशन "डोरथी-

सीट" में कोई रुचि थी | सो ईला अकेली ही अपना वॉटर कलर, ब्रुश व ईज़ल आदि सहेजने

लगी थी | क्या वॉटर कलर अब भी "केमल" के ही आते हैं ? वह स्वयं से पूछ बैठी थी तभी

कलर-बॉक्स के बारह रंगों में से एक रंग कुछ अधिक बेबाक़ होकर निखरा | "कुछ देना

चाहोगी" प्रश्न चटखकर कलर-बॉक्स से बाहर टपक पड़ा था, इस बार ईला रुआँसी होकर बोल

पड़ी थी" कन्फेशन है ऊलीच सको तो ऊलीच लो तुम मुझ में से |" वह भारी मन से सड़कों

पर निकल पड़ी थी, अपने से ही दूर भाग जाने का अंदाज़ उसके कदमों में गज़ब की फुर्ती

भर गया था |

गाइड बता रहा था "डोरथी" कोई ब्रिटिश पेंटर थी, दरअसल वह जिस स्थान पर बैठकर पेंटिंग

किया करती थी वहाँ से दूर-दूर पहाड़ियों तक फैला प्राकृतिक नज़ारा कलाकारों को हमेशा से

ही आकर्षित करता रहा है, इस पार से उस पार तक आता-जाता कोहरा कृत्रिम बादलों का

एहसास देता है | ईला ने ठीक उसी स्थान की सीध में अपना ईज़ल जमा लिया था | यूँ ईला

कोई चित्रकार तो थी नहीं, वह तो एक लंबी उम्र से अपनी जीवन का कोरा कैनवास लिऐ घूम

रही थी | ऐसा भी नहीं था कि कोई रंग उसे रास ही ना आऐ  थे बस नसों की टूटन को नज़र

अंदाज़ कर देह करवट बदल-बदलकर सो जाने का आदी हो चुका था | जब तक वह उदित के

साथ रही अपने-आपको "ऑस्ट्रिच" बुलाती रही, एस्केपिस्ट हो जाना विपत्ति से बचने का

सबसे आसान मार्ग है | तूफ़ान का आभास होते ही शुतुरमुर्ग की तरह रेत में गर्दन गड़ा दो

और वास्तविकता से पलायन कर जाओ फिर बाहरी तूफ़ान  कम से कम मस्तिष्क को तो छू

नहीं पाता | ईला ने कोशिश भी की थी कि सारे तूफ़ान वह सिर्फ़ देह पर झेल जाऐ  और

मस्तिष्क अछूता ही छूटा रहे पर हक़ीकत में ऐसा हो कहाँ पाया था |

जब स्वयं ही अपने इंटेक्ट कोमोर्य को दिलासा देना था तो किसी की दया पर क्यों अपना

पेट पाला जाऐ  ? बाज़ार, माल और सिनेमाघरों में जवान पुरुषों को घूरती उदित की निगाहें

उसे पहले-पहल अपनी गलतफ़हमी ही लगी थी किन्तु अपने दोस्त पंकज के साथ शराब के

नशे में रातें गुज़ारने वाले उदित की अप्राकृतिक हरकतें उसके लिऐ   इस जमाने में उतनी

हैरतपूर्ण भी नहीं रह गई थीं लेकिन उसके साथ रहना, यक्क....."वोमिटिंग सेन्शेसन" होने

लगती थी उसे | घर फोन करके तेज़ी माँ को बताया था उसने तो वे बोली थी-

"तू तो आप ही घणी समझदार छोरी है, लौट आ लाड़ो !"

तेजी माँ तो हमेशा ईला के खिलंदड़ेपन से नाराज़ रहा करती थी, उनके जैसी परंपरावादी स्त्री

से इस सहारे की उम्मीद ईला को कतई नहीं थी उसका आत्मबल बढ़ गया था | तेजी माँ ने

ईला को समझा दिया था कि जब मंज़िल पर ना पहुँचना ही उसकी नियति है तो लौटने में

देर नहीं करनी चाहिऐ वरना ज़िंदगी पतंग की तरह सर्र से कटकर हाथों के सामने से गुज़र

जाती है और हम उलझे माँझे के गुच्छे ही सुलझाते रह जाते हैं |

"कहाँ खोई हुई हो मोहतरमा ?"

"एक जगह टिक गई तो ज़िंदगी आगे निकल जाऐगी "

"आपका इरादा कहीं डोरथी पार्ट-2 बनने का तो नहीं है न ?"

"फिर लोग नैनीताल में आपका भी टूरिस्ट-स्पॉट देखने आया करेंगे"

"अपना ईज़ल हटाइए आज मुझे किसी भी हालत में यह कैनवास पूरा करना ही है |"

ईला अपने-आपे में लौट आई थी और जल्दबाज़ी में अपना कोरा कैनवास समेटने लगी थी

बेख्याली में ईला यह बिलकुल ही भूल चुकी थी कि वह आम रास्ते के बीच जमी बैठी थी |

उसने देखा कि वह युवक उसे घूर रहा था, एक शैतानी भरी मुस्कुराहट उसके हाव-भाव के

विपरीत बिलकुल ही विरोधाभासी लग रही थी | ईला ने गौर से देखा एक चमकीला शेडेड

रंग उसकी कनपटी के ऊपर बेतरतीब सी लटों पर बड़ी लापरवाही से मौजूद था |

"तुम देव हो ना ?"

'तुम यहाँ भी ?"

"क्या तुम मन भी पढ़ लेते हो ? और ये क्या उठा लाऐ आज ?"

वह ठठा पड़ा "होल्ड आन, मोहतरमा ये मैं उठा नहीं लाया हूँ, यह तो मेरी आज की कमाई है

और हाँ, आज मेरा नाम ए.म॰एफ॰हुसैन रहेगा" ....

"रहेगा ? मतलब ? क्या तुम रोज़ एक नया नाम और एक नया धंधा बदलते हो ?"

ईला सामान कंधों पर लादे धीमे-धीमे चलते हुऐ  उसके कैनवास तक चली आई थी, किसी

अर्धनग्न स्त्री की आधी-अधूरी तस्वीर थी जिसके सीने से लेकर जाँघों तक का हिस्सा सफ़ेद

नीले धुँआ -धुँआ  होते बादलों की उड़ती हुई चादर से ढँका हुआ था |

"यह कौन है ?"

"तुम्हारी पत्नी?"

"पहला प्यार ? या कोई वो ?"

ब्रुश चलाते-चलाते ही उसने हँसते हुऐ  उत्तर दिया था-

"यह मेरी आज की रोटी है बस इतना समझ लीजे एक आग का दरिया है और तैरके जाना

है"

"वैसे जानकारी दे दूँ कि अभी तक मेरी बलि नहीं चढ़ी है, यानिकी मैं अविवाहित हूँ"

"किसी स्त्री से कोई ना कोई रिश्ता हो ही, यह क्या ज़रूरी है ?" उसने भौहें उठाकर ईला की

तरफ एक अहम प्रश्न उछाला था |

"रोमांस का भी एक रिश्ता होता है सिर्फ़  और सिर्फ़ .....ख़ालिस रोमांस, बिना किसी बंधन के

सिर्फ़  प्यार ही प्यार हो, इन वादियों की तरह हसीन व बेफ़िक्र ....बिना किसी परिभाषा के

असीमित....अपरिमित...अपर्याप्त...|" ईला को इस दफ़ा वह कुछ-कुछ दार्शनिक लगा था |

"तुम क्या सारे काम पार्ट टाइम करते हो...मिस्टर देव उर्फ हुसैन ?"

"जी, बस वही समझ लीजिऐ"

'क्या प्यार भी ?"

"शायद करता, जो अगर सच में किसी से हो ही जाता | लेकिन शर्त तब भी मेरी यही रहती

कि वह प्यार बंधन रहित होता फिर चाहे उस कैद का मुरीद होकर एक दिन मैं ख़ुद  ही

ठिठक जाता, उसी धुरी के चारों ओर अपनी परिक्रमा बाँध  लेता, वह अपने-आपको आश्वस्त

करता हुआ उसी रों में बोलता गया ...और क्या पता मैं वहीं रुक जाता...ठहर जाता....थम

जाता |"

इसी ख़ामोख्याली के अंदाज में उसने अपनी दोनों बाहें हवा में उठाई और कंधों को गोल-गोल

घुमाते हुऐ थकान चटकाने लगा, उसकी कमीज़ के ऊपरी तीन बटन चट से खुल गऐ थे, सीने

में तैरती मछलियाँ खुलकर उभर आई थी | ईला को उस तड़के कड़ाके की ठंड में नैनी झील

के किनारे पुश-अप्स करता हुआ वह लड़का स्मरण हो आया था |

"तो वह भी यही था |"

सिगरेट सुलगाते हुऐ  उसने आँखों ही आँखों में ईला से अनुमति माँगी फिर आराम से कश

लगाने लगा | आमतौर पर सिगरेट पीना ईला की आदत में शुमार ना था किन्तु उस वक़्त

धुंध की नमी और सीलेपन में घुली-मिली भाप की बास और उसके नथुनों से निकला सौंधा -

सौंधा धुँआ उसे ललचा रहा था...

"मे आई ?" ईला ने हाथ आगे बढ़ाया |

उसने ईला को ऊपर से नीचे तक देखा फिर बिना कुछ कहे सिगरेट उसकी ओर बढ़ा दी थी |

सिगरेट के फ़िल्टर में से डियोडरेंट मिश्रित पुरुष गंध आ रही थी, ईला के मुँह  में एक तुर्श

स्वाद तैरने लगा था, ईला को अपने ही होठों पर उतर आया सूखापन उस वक़्त  बड़ा ही

अजीब लगा था, उसने ज़ुबान फिराकर अपने होठों को नम किया था, इस अपरिचित गंध से

ईला प्रथम बार वाक़िफ हो रही थी | कश लगाती ईला पास ही एक छोटी चट्टान पर

इत्मेनान से जा बैठी थी, उसने सिगरेट वापस नहीं लौटाई थी, वह सुट्टे पे सुट्टा मारती रही

जा रही थी और कुछ ही दूर वह अजनबी अपनी ही मस्ती में देर तक कैनवास पर झुका रहा

था | इस बीच उसने एक बार भी नज़रें उठाकर ईला की तरफ नहीं देखा था |

ईला विचारमग्न थी, सिर्फ़  और सिर्फ़ ....ख़ालिस रोमांस, बिना किसी बंधन के ?

क्या बंधनरहित प्रेम में भी कोई चाहकर कैद होना चाहेगा ? जो सच में किसी से प्यार हो

तो कोई ठिठककर रुक भी सकता है ?" सच्चा प्यार क्या इस ज़माने में एक्जिस्ट करता है

?

ईला ने देखा पेंटिंग खत्म करने के पश्चात उसके चेहरे पर एक असीम सुकून मँडरा रहा था |

पहाड़ों में दिन ज़रा जल्दी ढलने लगता है, ईला अपना सामान समेट लौटने की तैयारी करने

लगी थी, घुड़सवारी उसे हमेशा से ही तकलीफ़देह लगती है, घोड़े पर हिलते-डुलते उसकी जाँघें

छिल जाती है | यहाँ आवाजाही का और कोई साधन ना होने के कारण और आने का कोई उपाय

भी तो नहीं था | सँकरी-पतली गलियाँ उस पर भी पहाड़ी क्षेत्रों की खड़ी चढ़ाई पर कारें और

जीपें फिसलनें का डर रहता है ऊपर से लैंड स्लाइडिंग का खतरा मँडराता रहता है सो अलग |

"क्यों ना इसी से मदद माँगू ?"

"क्या तुम मेरे साथ नीचे उतरोगे ?"

वह बोला "क्यों ? फिसलने का भय है तुम्हें ईला ? और गारंटी क्या है कि मेरे साथ रही तो

ये डर नहीं होगा ? ईला को उसका प्रश्न द्विअर्थी लगा |

"ये तो सच में ही मन पढ़ लेता है और नाम कैसे जान गया ?"

ईला को आश्चर्यचकित देख उसने ईला के कोरे कैनवास की ओर इशारा किया, जिसके कोने

में काले रंग से ईला का नाम लिखा था | ईला ने अपना नाम लिखकर मिटा तो दिया था

किन्तु रेखाओं के नीचे से उसके नाम के एल्फाबेट्स तब भी अकड़ू बने उन दोनों को झाँक

रहे थे |

"ओह ! अच्छा....ये बात है |"

"अब कल क्या रूप धरोगे मिस्टर देव उर्फ़ हुसैन ?"

वह शरारती अंदाज़ में मुस्कुराया "अपन तो एडवेंचर के लिऐ आऐ हैं मैडम कल क्या होगा

किसको पता अभी ज़िंदगी का ले लो मज़ा" मुँह  के आस-पास हथेलियाँ सटाकर वह वादियों

की ओर रुख़ करके ज़ोर से चिल्लाया -

"एंजॉय द लाइफ एज इट कम्स टू यू माय गर्ल ....." इको करती हुई उसकी आवाज़

बियावान में देर तक डोलती रही थी, सामने बिखरी वादियों से टकराकर जब ध्वनि लौटी तो

यहाँ-वहाँ जज़्ब होते हुऐ  बचे-खुचे सिर्फ़  तीन शब्द पलटकर ईला तक पहुँचे थे

एंजॉय.....लाइफ.....गर्ल....और यही शब्द टुकड़े -टुकड़े होकर फिर देर तक ईला की ईयरिंग्स

पर अटके रह गऐ थे | घोड़े पर आगे-पीछे होते हुऐ  ईला की ईयरिंग्स जब-जब हिलती थी ये

तीनों शब्द उसके कानों में शोर मचाने लगते थे, ईला के कान गुस्से से दहकने लगे थे उस

वक़्त  |

सिर को झटका देकर स्वयं को वास्तविकता के आईना दिखाती हुई वह चिढ़कर बड़बड़ाई थी ,

"ऊँह....अड़तीस साला गर्ल |" वह ईला के साथ-साथ ही दूसरे घोड़े पर बैठा-बैठा मुस्करा रहा

था |

कुहाँसे में सब गड्ड-मड्ड हुआ जा रहा था | क्या वह सचमुच डर रही थी ? क्या इस देव

उर्फ हुसैन की प्रजेंस उसे कमज़ोर बना रही थी ? अगर ऐसा ही था तो वह उससे मदद क्यों

माँग बैठी ? एक ऐसा व्यक्ति जो एक्सीडेंटली उससे आ मिला था, जिसके ना नाम का पता

था ना काम, ना उसकी जाति का पता था ना धर्म का, ना उसके इरादे पुख़्ता थे ना ही उम्र |

मन किया कि व्हिस्की का एक तगड़ा नीट शॉट मार ले और चेतनाशून्य शरीर को घोड़े पर

लाद दे फिर इसी मूर्छित अवस्था में होटल के रूम में पहुँचकर पलंग पर ढह जाऐ अनिश्चित

काल के लिऐ  , अनंत तक | पोंछ डाले अपने अतीत को, भविष्य को और भूल जाऐ  अपने

वर्तमान को, हो सके तो री-बर्थ ही ले ले और फिर से एक नया जिस्म लेकर उग आऐ | वह

बेपनाह व्यथित थी उस वक़्त, अपने ही पाले दुखों के जमावड़े में डूबी जा रही थी |

ईला असमंजस में थी.... जीने के लिऐ   क्या सिर्फ़  दो बलिश्त बाहें, एक पुरुष गंध और

ख़ालिस रोमांस की आवश्यकता होती है ? वह फूट-फूट कर रोने लगी थी, वह भी घबराकर

घोड़े से लगभग कूदकर ईला के पास पहुँचा था | चुपचाप उसकी पीठ सहलाता हुआ वह उसे

पानी पिलाने लगा था | उस रात पास ही धुँधलके में वे दोनों शरणागत बने थे | ईला सब

कुछ उड़ेल रही थी जो कुछ भी उसके भीतर था एक ऐसे अजनबी के सामने जिसे प्रेम में

बंधन ही अस्वीकार्य था, जो रिश्तों की सीमाओं से परे ख़ालिस रोमांस की बातें कर रहा था |

उदित तो उसके साथ था, मन से उसके अधीन भी था वो, सम्पूर्ण रूप से उसका ना सही

किन्तु सभी शर्तों को मान्यता देता हुआ उसके साथ बंधा तो था एक अटूट रिश्ते में...फिर भी

वह लौट आई थी | उसने दिन में हिमालय की चोटी को दूरबीन से देखा था, वहाँ भी जमाव

रिस रहा था, मौसम की बदलाहट उस तरफ की बर्फ़ को पिघला रही थी | वह कनफ़ेस कर

रही थी जीवन का सत्य जो अब तक उसके सीने में दफ़न था कि कैसे अठारह बरस का

प्यार उसे बागी बना गया था, वह भाग जाना चाहती थी उसके साथ जिसकी ठुड्डी पर ढाढ़ी

भी उस वक़्त तक करीने से उग नहीं पाई थी | प्यार तो तब भी ईला के लिऐ छलावा

था...उसके सपनों के घर की कमज़ोर चारदीवारी बड़ी बेदर्दी से दरक गई थी यह जानकर कि

उसके मासूम प्यार को दौलत के लालच में ठगा गया था, वह इकलौती जो थी | ईला रोऐ

जा रही थी, उसके गम बेलगाम हुऐ जा रहे थे | उसे याद आ रहा था कि कैसे एक रोज़

गर्मियों की छुट्टियों में उसके चचेर-भाई ने एकान्त पाकर उसके अंगों पर एक गुदगुदा-सा

नाबालिग अहसास थमा दिया था | वह डर के मारे घर में किसी से कुछ कह भी नहीं पाई

थी | रिश्तों में अविश्वास की काली छाया उसके जीवन पर स्थाई रूप से क़ाबिज़ हो आई थी

हमेशा के लिऐ | वह हर एक उस पुरूष से नफ़रत करने लगी थी जो उसके करीब था या

करीब आना चाहता था फिर भी उस रात न जाने कैसे सब कुछ दो बाँहों की कसावट से

पिघलकर एक अंजान पुरूष गंध से घुला जा रहा था |

उस रात ईला की अड़तीस साला परिपक्वता ख़ामोशी से बहती रही थी, उसकी बोझिल साँसों

का ज्वार देर तक अपनी नमी उड़ेलता रहा था | वह भी निशब्द उलीचता रहा था ईला के

भीतर का दर्द ...ईला के तर्पण से वह मिट रहा था क़तरा-क़तरा | एक ख़ालिस रोमांस था जो

दूर-दूर तक परिभाषित हो रहा था |

 


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