महुआ
महुआ
महुआ यानि देशी शराब था नशा इस महुआ में। जैसा नाम वैसा रूप उस अदिवासी महिला का। मजदूर महिलाओं के बीच में काफी काम किया हमने। हमारा परिचय उस महिला मजदूरी को लेकर विवाद के दौरान हुआ। खूले मुँह से गाली बकती महुआ को हमने जब डांटा तो चुप हो गयी और इसी अदा ने हमको मोह लिया।
हम उसको अपने घर ले आये। हमको लगा इसके अंदर बहुत कुछ है। महुआ जब सोती रहती तो हम उसको ताकते रहते। उसकी गर्दन, सुतवॉ जैसा नाक, पतले पतले होंठ, धुघराले बाल, साँवला रंग, कितने फुरसत में गढ़ा शिव ने। चुपचाप अपना काम करती लगता कि कुछ घुटन है उसको ,हमको लगता कि हमनें कुछ गलत कर दिया उसको लाकर।
एक दिन की बात है हमको बुखार हो गया महुआ ने दिन रात एक कर दिया सेवा करने में। समय बीता पता नहीं कहाँ से जाड़े के मौसम में कुछ डैकैतो ने घर पर हमला कर दिया। महुआ का वह रूप नहीं भूलता जब गँडासा लेकर महुआ खडी हो गयी और माँ काली की तरह दहाड़ उठी “आओ हरामजादो एक एक को काट डालूगीं”,
जैसे स्वयं माँ काली सवार थी उस पर। सब भाग गये। हम जितना भी लिखे कम है, उसके लिये कम है। हमने महुआ की शादी भी कर दी। आज भी हमारे मन में बसी है। नारी को एकदम ऐसा ही होना चाहिये।