सुनो ना हम जीना चाहते है
सुनो ना हम जीना चाहते है
दीदी या छोटदी या मेजो दीदी हमारी दूसरी नंबर की दीदी थी। आज भी उनके साथ बिताया हुआ समय याद करती हूँ तो लगता है दीदी आस पास कहीं होगी और कहेंगी की चुनिया पढ़ने बैठो या बांगला में कहेगीं पोडते बोसो।
पर हमारे पास तो दीदी नहीं है आज वह शिव के पास है और वहां से देखकर वही परिचित हँसी हँस रही होगी और कह रही होगी खूब भालो थाको। दीदी यनि छोटदी दो विषयों में M.A विदुषी, सुंदर गोल सा चेहरा बड़ी बड़ी आँखें, नाटा कद पर सबको समझने वाली सब भाई बहनों की परवाह करने वाली पढ़ने लिखने वाली, गाने गुनगुनाने वाली, दीदी का जब विवाह तय हुआ तो हम सबसे अधिक रोये थे काहे की कौन विधालय जाते समय चुटिया बनायेगा कौन हमको तैयार करेगा कौन गीत सुनायेगा पर माता पिता ने विवाह कर दिया।
काहे कि वह तो हम भारतीय के यहाँ की एक रिवायत है। दीदी से जब पहली बार मिलने गये दीदी तो बड़ी दुबली हो गयी थी और हम मौसी बनने वाले बड़ा ही अचरज हुआ कि दीदी इतनी दुबली कैसे, ससुराल वालो ने नहीं भेजा, हम तो छोटे ही थे रोते गाते चले आये दूसरी विदाई में हम ले ही आये। दीदी का इलाज हुआ समय से गुडिया आयी हम लोग तो खुश पर जीजा जी देखने तक ना आये काहे कि बेटी हुयी थी।
फिर दो साल बाद एक बेटा भी हुआ दीदी बहुत तकलीफ़ में थी पर किसी से बताती भी ना थी दीदी के घुटन कब कैंसर में बदल गया पता ही ना चला, जब पता चला तो बहुत देर हो गयी। दीदी का इलाज चला वह भी मायके में, बहुत ही बुरा हुआ इलाज के दौरान दीदी हमारी हथेलियों पर सर रख के रोती थी और कहती थी हमें जीना है अपने बेटे बेटियों के लिये पर हाय रे शिव दीदी को ना बचा सके, आज दीदी बहुत याद आ रही है कहाँ से पाऊ दीदी को कोई ढूँढ कर ला दे दीदी को, पर शिव के पास जाने के बाद कोई वापस आता नहीं।