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अकेलापन

अकेलापन

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आज साक्षी का धैर्य चुक गया था, वह हारे हुए खिलाड़ी की तरह मैदान छोड़ चुकी थी। साक्षी शुरू से ही मृदुभाषी, मिलनसार व व्यावहारिक थी। उसे हमेशा लोगों के बीच रहना पसंद था। अकेलापन उसे अभिशाप सा लगता था। उसका परिवार बहुत ही छोटा था, वह खुद इकलौती सन्तान थी, उसके पापा भी अकेले थे उनके कोई भाई या बहन नहीं थी, न ही कोई चाचा ताऊ थे क्योंकि साक्षी के दादा भी अपने माता पिता के इकलौते पुत्र थे। ननिहाल में भी साक्षी के एक मात्र मामा ही थे जो उसके जन्म से पहले ही विदेश में बस गये थे। जिनसे साक्षी कुल जमा दो बार ही मिल पाई थी।

बचपन में साक्षी अपने आस पड़ोस और मित्रों के घरों में रिश्तों की भीड़ देखती तो मायूस हो जाती थी। उसे लगता काश उसकी भी कोई भुआ होती तो वह लाड़ से उनकी गोद में सर रख कर लेटती, भुआ की उंगलियाँ उसके बालों को सहलाती तो उसे स्वर्ग सी आनंदानुभूति होती, काश उसकी कोई मौसी होती तो वह उनके गले लग कर झूल जाती ज़िद कर उन्हें अपने साथ पार्क में या बाज़ार ले जाती। उसके कोई भाई-बहन होते तो उनसे खिलौने या टॉफी के लिये झगड़ती, पर यह सब उसकी सोच तक ही सीमित रहता, क्योंकि कुदरत ने उसे इन सब रिश्तों से महरूम रखा था। साक्षी जब बड़ी हुई तो उसने अपने आस पड़ोस में और माँ पापा के मित्रों से कई रिश्ते बना लिये, वह किसी को भुआ या चाचा बुलाती तो किसी को मामा या मौसी।

यह सब मन को बहलाने के लिये तो ठीक था क्योंकि बनाए हुए रिश्तों की भी अपनी सीमा होती है। कहते हैं आम की प्यास इमली से नहीं बुझती इसलिये साक्षी बस इन रिश्तों से जो भी सकारात्मकता मिली उसे आत्मसात करते हुए खुश रहने की कोशिश में लगी रही। उसके अच्छे स्वभाव के कारण लोग उसे पसंद तो बहुत करते थे, पर कहा जाता है कि कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है, इसी तर्ज पर रिश्तों का सुख पाने के लिए साक्षी सबकी मदद करने की हर सम्भव कोशिश में ही लगी रही।

इन्ही सब के बीच साक्षी ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। साक्षी न केवल व्यवहार में बल्कि पढ़ाई और अन्य घरेलू कार्यों में भी अव्वल थी। उसके हाथ की चाय पीने या खाना खाने को हर कोई लालायित रहता था। अच्छे अंकों से स्नातकोत्तर करने पर भी साक्षी नौकरी नहीं करना चाहती थी। उसकी तो बचपन से एक ही ख़्वाहिश थी कि वह घर में भरे पूरे परिवार के साथ रहे। 

जब उसकी शादी की बात चलने लगी तो विशेष पसन्द के नाम पर उसकी एक ही इच्छा थी कि उसे बहुत बड़ा सभी रिश्तों से भरपूर परिवार मिले। ईश्वर ने उसकी इच्छा का मान रखा और उसकी सगाई ऐसे परिवार में हुई जहाँ उसके ससुर छः भाई बहन थे और उसके होने वाले पति के भी दो भाई और एक बहन थी। जब वीर से उसका रिश्ता तय हुआ तो उसकी खुशी का कोई पारावार नहीं था, उसकी मन की मुराद जो पूरी हो रही थी। वीर का परिवार न केवल बड़ा था, बल्कि सुशिक्षित, उच्च पदासीन लोगों का परिवार था। उसके ससुर राजकीय सेवा में उच्च पद पर कार्यरत थे और वीर एक बैंक अधिकारी। साक्षी खुश थी कि अब वह बड़े परिवार में सभी असली रिश्तों के साथ रहेगी।

पर शादी के पन्द्रह दिन बाद ही ऐसे लगा, जैसे वह सपने से चौक कर जाग गई हो। अभी तो वह परिवार को सही तरीके से महसूस भी नहीं कर पाई थी कि सासु माँ ने उसे वीर के साथ बांसवाड़ा जाने का फरमान सुना दिया। ऐसा नहीं था कि वह पति के साथ नहीं जाना चाहती थी पर फिर अकेलेपन के अभिशाप से घबरा गई थी। आखिर उसे जाना ही पड़ा। सारे दिन घर में अकेले-अकेले साक्षी बहुत उदास रहने लगी थी। वीर तो सुबह नौ बजे घर से निकलते तो शाम आठ बजे पहले कभी घर नहीं लौटते, यहाँ तक कि अधिकांश अवकाश के दिनों में भी उन्हें बैंक जाना होता था। ऐसे पहाड़ जैसे लम्बे दिन काटे न कटते। सास-ससुर भी कभी आते तो एक या दो दिन से अधिक नहीं ठहरते। जेठजी अपने व्यवसाय में तो ननद अपनी नौकरी और ससुराल में व्यस्त थी। देवर जी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे थे। कुल मिलाकर इतना बड़ा परिवार होते हुए भी सब अलग-अलग सब अकेले-अकेले थे। साक्षी कई बार ऐसे अवसर ढूँढ-ढूँढ कर सबको एक जगह एकत्रित करने की योजना बनाती, सब मिलते पर एक दिन के मेले की तरह, उसके बाद सब कुछ फिर खाली खाली।

एक दिन साक्षी काम करते हुए चक्कर खा कर नीचे गिर पड़ी, पड़ोस के फ्लैट में रहने वाली निशा उसे डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने कुछ जाँच करने के बाद कहा कि साक्षी माँ बनने वाली है। यह खबर सुन साक्षी खुशी से झूम उठी, वह सोचने लगी अब उसका परिवार बढ़ेगा और घर लोगों से भर जायेगा। उसने डॉक्टर के क्लिनिक पर बैठे-बैठे ही तीन चार बच्चों की रूप रेखा तैयार कर ली।

अब वह अपना अकेलापन अपने गर्भस्थ शिशु के साथ बाँटने लगी थी, उसका सारा दिन आने वाले बच्चे की कल्पना में बीतने लगा। नियत समय पर उसने खूबसूरत गोलू-मोलू से बच्चे को जन्म दिया, अपने बेटे को देख उसकी पलकें खुशी से नम हो गई। वह अपने बच्चे से कहने लगी “बेटा जल्दी ही हम आपके और भाई-बहन ले आएँगे, आपको हमारी तरह अकेले होने का श्राप नहीं झेलना पड़ेगा।“ पर हाय रे विधना, भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था। जचकी के समय हुई कुछ जटिलताओं के कारण साक्षी दोबारा माँ नहीं बन सकती थी। इस खबर से साक्षी लू की लपटों से झुलसे फूल की तरह कुम्हला गई। हर दो-तीन वर्षों में होते स्थानांतरणों ने घर के बाहर भी रिश्तों को पनपने ही नहीं दिया। अब साक्षी ने इसे अपना प्रारब्ध समझ समझौता कर लिया था।

लेकिन आज आई एक खबर ने जैसे उसके पँख लगा दिये, वह तो बस “आज मैं ऊपर आसमाँ नीचे” गाते हुए, चहकती फिर रही थी। खबर ही कुछ ऐसी थी, वीर का स्थानांतरण उसके गृह नगर में हो गया था और जिस विशेष पद पर वीर को लगाया गया था, कम से कम पाँच वर्ष उसे उसी शहर में रहना था। साक्षी तो कल्पना के घोड़े पर सवार अपने बचपन के सपने को साक्षात होते देखने की चाह में दौड़े जा रही थी। उसने वीर से कहा कि “यह खबर घर पर न दे, हम अचानक साजो-सामान सहित पहुँच कर सबको आश्चर्य चकित कर देंगे।” वह बार बार दस वर्ष के बेटे वत्सल को कह रही थी “बिट्टू अब हम दादा-दादी, ताईजी-ताऊजी और भैया के साथ रहेंगे, अब आएगा जीने का असली मजा।”

अभी वीर को रिलीव होने में पन्द्रह दिन शेष थे, पर साक्षी तो जैसे आज ही सब सामान बाँध कर चले जाना चाहती थी। जल्दी-जल्दी उसने सब सामान बाँधा, बस जरूरत भर की वस्तुएँ ही बाहर रखी, आखिर इन्तजार की घड़ियाँ खत्म हुई और वह दिन आ ही गया जब साक्षी अपने परिवार के साथ रहने जा रही थी। सामान ट्रक पर लाद दिया गया। वीर, साक्षी और वत्सल अपनी कार में सवार हो रवाना हुए। साक्षी के मन की गति तो कार से भी तेज़ थी, वह बस घर पहुँच कर अपने परिवार के साथ रहने के असीम आनन्द को पा लेना चाहती थी।

लो, आ गया साक्षी के सपनों का पड़ाव, घर में घुसते ही साक्षी की खुशी सावन की बरसात की तरह झूम कर बरसने लगी। सभी ने उनका स्वागत किया, चाय पीते हुए वीर ने बताया कि वह स्थानांतरित होकर यहाँ आया है, सामान का ट्रक कुछ ही घंटों में यहाँ पहुँच जायेगा, अब हम सबके साथ यहीं रहेंगे। वीर की यह बात सुनते ही परिवारजनों के चेहरे का रंग बदलने लगा। साक्षी और वीर को छोड़ सभी लोग सासू माँ के कमरे में चर्चा करने लगे और आखिर में ससुर जी ने अपना निर्णय सुनाते हुए वीर और साक्षी से कहा कि “इस घर में सबका साथ रहना मुमकिन नहीं है। राज यानि वीर के बड़े भाई का अपना परिवार है उसके दो बच्चे हैं, उसकी और तुम्हारी आमदनी में भी बहुत फर्क है। मानव भी अपनी ट्रेनिंग के लिये जाने वाला है, जल्द ही उसे भी किसी अन्य शहर में नियुक्ति मिल जायेगी। इतने वर्षों से तुम सबसे अलग रहे हो, तुम्हारी जीवन शैली भी अलग है सो अच्छा यही होगा कि तुम अपने लिए अलग घर का बंदोबस्त कर लो।” यदि तुमने पहले बता दिया होता तो हम किराये का घर ढूँढ कर रखते। इतना सुनते ही साक्षी के सपनों का महल ढह ढहा कर गिर गया। उसके पाँव के नीचे से जैसे किसी ने धरती ही खींच ली हो, वह बिल्कुल पत्थर की तरह जड़ हो गई, उसके मुँह से कोई बोल तक न फूटा। वीर अपने पापा की बात सुन हतप्रभ रह गया, साक्षी के दिल के हाल का अंदाजा लगाता वीर खुद मूक हो गया। वीर ने जैसे तैसे खुद को सम्भाला और साक्षी को कमरे में ले गया। वत्सल इन सब से अनजान अपने भाइयों के साथ खेलने में मग्न था।

इस नाजुक समय में वीर साक्षी से बात करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पा रहा था। बाहर पापा व राज भाईसाहब कुछ मिलने वालों और दलालों से सम्पर्क साधने में लगे थे कि कोई अच्छा सा मकान मिल जाये। इतने में सामान का ट्रक भी आ पहुँचा। ट्रक वाला जल्दी सामान उतारने की ज़िद करने लगा पर राज भाई ने उसे जैसे तैसे मनाया कि वह मकान तय हो जाने पर उसी मकान में सामान खाली करे। काफी मशक्कत के बाद एक मकान पसंद आ गया, हाँलाकि, वह वीर के पुश्तेनी मकान से दस किलोमीटर दूर था लेकिन हर तरह से अनुकूल था। सामान के ट्रक को वहाँ पहुँचाया गया। साक्षी तो पेड़ से अलग हुई टहनी की तरह निस्तेज और निष्प्राण अपने नये मकान में पहुँची, क्योंकि मकान को घर बनाने का उसका सपना तो टूट चुका था। यह झटका साक्षी के लिये किसी हृदयाघात से कम न था।

साक्षी अब बिल्कुल चुप-चुप रहने लगी, उसका रिश्तों से भरोसा उठ गया था। अब वह पड़ोसियों से भी कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं करती, बस सारा दिन गुमसुम अपने कर्तव्यों को पूरा करती रहती। उसका चेहरा बिल्कुल मुरझा गया, अचानक से साक्षी बुढ़ा गई थी।

बस ऐसे ही जिन्दगी बीत रही थी कि आज साक्षी पर वज्रपात ही हो गया। आज उसका बेटा अपनी आगे की पढ़ाई के लिए राजधानी में रहने जाने वाला था। पिछले सात सालों से साक्षी ने किसी भी बात पर प्रतिक्रिया देना बन्द ही कर दिया था। न वह खुशी की बात में खुश होती, न ग़म में दुखी, न वह हँसती थी न कभी उसकी आँखें ही नम होती। 

पर आज जब उसका बेटा भी घर छोड़ कर जा रहा था, तब उसके हृदय पर जड़े सभी ताले खुल गये, उसकी रुलाई फूट पड़ी। आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। हाँलाकि उसे इस बात का भी भान था कि बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिये उसे अपने भावना के आवेग को रोकना होगा। उसे वत्सल को दिल्ली भेजना ही पड़ेगा। वत्सल के जाने के बाद वह कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर गिर गई। वह सोचने लगी कि उसका दुनिया में सबसे मजबूत रिश्ता अकेलेपन से ही है

यही अकेलापन शाश्वत है बाकी सभी रिश्ते सपने हैं जो नींद खुलते ही खो जाने हैं।



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