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मर्द नहीं रोते

मर्द नहीं रोते

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रामदत्‍त जी को ऑटो वाले ने संध्‍या आश्रम के गेट पर ही छोड़ दिया है। उनकी अटैची नीचे जमीन पर रखी है और वे सामने आश्रम की तरफ  देखते हुए सोच रहे हैं- तो...... अब से यही होगा मेरा घर। मेरा नया पता। मेरा आखिरी पता। मरते दम तक। अपनी ज़‍िन्‍दगी की आखिरी सांस तक अब मुझे अपना सारा वक्‍त, सोते-जागते यहीं गुज़ारना होगा। अब मेरे सुख-दु:ख के साथी यहां के रहने वाले लोग ही होंगे और मेरी बाकी की ज़‍िन्‍दगी के लिए मेरा परिवार यहां रहने वाले मेरी ही उम्र के बूढ़ों का परिवार ही होगा। बस सिर्फ दस कदम और उसके बाद मैं उन सब की दुनिया में शामिल हो जाऊंगा। बाहर की दुनिया से नाता एकदम तोड़ दूंगा।

उन्‍होंने ज़मीन पर रखी अटैची उठायी और एक बार पीछे मुड़ कर देखा है मानो जो कुछ पीछे छोड़ आये हैं, उसे आखिरी बार विदा कर देना चाहते हों। अपनी स्‍मृतियों से, अपने वर्तमान से और अपने वज़ूद से भी धो पोंछ देना चाहते हों। इससे पहले कि आंसुओं के कतरे उनकी सूनी आंखों को भिगो पायें, वे झटके से मुड़े और गेट खोल कर भीतर हो गये हैं। उन्‍होंने पूरी सावधानी से गेट बन्‍द किया है और दायीं तरफ रिसेप्‍शन का बोर्ड देख कर उसी तरफ मुड़ गये हैं। उन्‍होंने कनखियों से देख लिया है कि आस-पास मंडरा रहे तीन-चार बूढ़ों की निगाहें उनकी तरफ उठी हैं लेकिन इससे पहले कि कोई लपक कर मदद के लिए उनके पास आये, वे रिसेप्‍शन रूम के अंदर हो गये हैं।

रिसेप्‍शन पर बैठा क्‍लर्क कुछ लिख रहा है। वे एक पल उसकी निगाह ऊपर उठने की राह देखते हैं और फिर गला खखार कर अपनी मौज़ूदगी दर्ज कराते हैं। जेब से पत्र निकाल कर उन्‍होंने पहले ही अपने हाथ में ले लिया है।

क्‍लर्क ने उनकी तरफ देखा है और उन्‍हें बैठने का इशारा करके पूछ रहा है - कहिये, मैं आपकी क्‍या सेवा कर सकता हूं?

- नमस्‍कार, मेरा नाम रामदत्‍त है। ये रही आपकी चिट्ठी जो मेरे खत के जवाब में मुझे मिली थी। वे पत्र मेज पर रखते हैं।

क्‍लर्क ने पत्र पढ़ कर उनकी तरफ देखा है और फिर अपने पीछे रखी अलमारी से एक फाइल से उनका पत्र निकाल कर देखा है। उनके पत्र को पढ़ कर वह एक बार उनके चेहरे की तरफ देखता है। वे निर्विकार भाव से क्‍लर्क की सारी गतिविधियां देख रहे हैं।

आखिर क्‍लर्क ने फाइल बंद की और कहना शुरू किया है - आपका स्‍वागत है यहां। मेरा नाम देवीदयाल है और मैं यहां के सब इंतज़ाम देखता हूं। ये रजिस्‍ट्रेशन फार्म है। ये भर दीजिए, तब तक मैं बाकी इंतज़ाम  करता हूं।

उन्‍होंने क्‍लर्क के हाथ से फार्म ले लिया है और बड़े बेमन से भर कर वापिस क्‍लर्क की डेस्‍क पर रख दिया है। तब तक क्‍लर्क वापिस आ गया है और फार्म देख रहा है।

फार्म देख कर क्‍लर्क बेचैन हो गया है - ये क्‍या?  यहां आपने लिखा है कि बीमारी वगैरह की हालत में या किसी एमर्जेंसी में आपके परिवार में किसी को भी न बताया जाये और कि आपका कोई भी नहीं है। आपने अपने परिवार का स्‍थायी पता...... और ये आपके परिवार के लोगों के नाम और पते .....और ये.......आपसे कोई भी मिलने नहीं आयेगा और ये.... आपके परिवार द्वारा ट्रस्‍ट को दिये जाने वाले महीने के पैसे.......आपने पता नहीं क्‍या-क्‍या लिख दिया है। मैं आपको दूसरा फार्म देता हूं। ज़रा ध्‍यान से भरिये....साब। अच्‍छा रुकिये, मैं ही भरवा देता हूं आपका फार्म।

वे बहुत ही संतुलित और ठहरी हुई आवाज़ में बताते हैं - देखिये देवीदयाल जी, मैंने जो कुछ भी लिखा है, सोच-समझकर लिखा है आपके सारे सवालों का जवाब ये है।

उन्‍होंने अपने बैग से नोटों की तीन-चार गडि्डयां निकाल कर मेज पर रख दी हैं - ये दो लाख तीस हज़ार रुपये हैं। उन्‍होंने बैग से कुछ और कागज निकाले हैं - और ये दो एक पालिसीज़ हैं। एक एफडी भी है। इस समय मेरी उम्र बहत्‍तर साल है। मेरे ख्‍याल से मेरे जीते-जी और मेरे मरने के बाद के सारे खर्चे इनसे पूरे किये जा सकते हैं। इन्‍हें ट्रस्‍ट के खाते में जमा कर दीजिये। जो भी पत्र जरूरी होगा, मैं बाद में लिख कर दे दूंगा। और कुछ ..... ?

क्‍लर्क बुरी तरह से सकपका गया है। तय है कि आज तक उसका वास्‍ता किसी भी ऐसे शख्‍स से नहीं पड़ा होगा जो वृद्धाश्रम में रहने आ रहा हो और न केवल इस तरह की जानकारी फार्म में भर कर दे बल्कि अपने रहने खाने के भावी खर्च की मद में पूरे दो लाख तीस हजार रुपये नकद भी जमा करवा रहा हो।

वह हकला रहा है -  ये तो....... ये तो बहुत काफी हैं........ । आप.......आप.......कहीं घर से .....लड़ कर ?

उन्‍होंने हाथ के इशारे से उसे टोक दिया है - आप बिना वज़ह कोई सवाल न पूछें तो बेहतर। मैं लम्‍बा सफर करके आया हूं और थका हुआ हूं। मैं आराम करना चाहूंगा।

क्‍लर्क उनके आतंक में है। उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा कि उनकी किस बात को किस तरह से ले और उसका क्‍या जवाब दे। उसने फटाफट कागजी कार्रवाई पूरी की है और खड़ा हो गया है - चलिये।

क्‍लर्क ने उन्‍हें उनका कमरा दिखाया है। कमरा पहली ही निगाह में उन्‍हें पसंद आ गया है। उन्‍होंने पहले ही लिख दिया था कि वे, हो सके तो अलग कमरा चाहेंगे। बेशक छोटा-सा ही क्‍यों न हो। उन्‍हें बताया गया था कि अगर वे अलग कमरे के लिए अतिरिक्‍त खर्च उठाना चाहें तो वे अलग कमरा ले सकते हैं।

कमरा एकदम कोने में है और दरवाजे के साथ ही सामने की तरफ खुलने वाली खिड़की है। दूसरी खिड़की उनके बिस्‍तर के पीछे है जो खुले मैदान की तरफ खुलती है। छोटा-सा साफ-सुथरा कमरा। एक पलंग, कुर्सी मेज और एक छोटा सा स्‍टूल जिस पर सुराही रखने के निशान नज़र आ रहे हैं। सबसे अच्‍छी बात जो उन्‍हें अपने कमरे के बारे में लगी है, वह है ठीक कमरे के बाहर ही नीम का पेड़। खूब छतराया हुआ। पेड़ के नीचे ही बैठने के लिए सीमेंट का एक चबूतरा बना हुआ है। अपना कमरा देख कर उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगा है और उन्‍होंने क्‍लर्क का कंधा दबाते हुए हौले से कहा है - आपने मुझे बहुत अच्‍छा कमरा दिया है। बहुत-बहुत शुक्रिया।

क्‍लर्क हंस कर रह गया है। बता रहा है - वैसे यहां किसी भी चीज़ की रूम सर्विस नहीं है, सफाई को छोड़ कर। लेकिन ज़रूरत पड़ने पर ये घंटी बजा कर देसराज या गोपी को बुलाया जा सकता है। ये दोनों ही यहां का सारा काम देखते हैं। रहते भी यही हैं। मैं आपसे मिलवा दूंगा। धोबी आता है, लेकिन ज्‍यादातर लोग अपने कपड़े खुद ही धोना पसंद करते हैं। वह हंसा है - सस्‍ता भी पड़ता है और टाइम भी पास हो जाता है।

उन्‍होंने इस बात के जवाब में कुछ भी नहीं कहा है। - आपको किसी चीज की ज़रूरत हो तो मुझसे कह सकते हैं। फिलहाल आपके लिए एक सुराही, एक गिलास, साफ चादर और तकिया वगैरह मैं अभी भिजवा देता हूं। और कुछ चाहिये आपको ?

- जी नहीं शुक्रिया। अब मैं आराम करना चाहूंगा।

और उन्‍होंने उसे विदा करके कमरे का दरवाजा हौले से बंद कर दिया है।

अपना सामान करीने से लगा दिया है उन्‍होंने। सामान है ही क्‍या उनके पास। एक अटैची और कंधे का एक झोला ले कर ही तो आये हैं यहां। सामान लगाते समय उन्‍हें हंसी भी आ रही है - कितना सामान था उनके पास। कहने को अभी भी है लेकिन अब तो सब पीछे छूट चुका है। अपने सारे सामान में से वे अपने हिस्‍से के लिए चुन कर लाये हैं सिर्फ चार जोड़ी कुरते-पायजामे, एक शॉल, एक मफलर, एक जोड़ी चप्‍पल, दो-एक तौलिये, नहाने धोने का सामान, दो-तीन किताबें और..... और भागवंती और उनकी अरसा पुरानी एक धुंधली-सी तस्‍वीर। भागवंती की और उनकी अपनी यही इकलौती तस्‍वीर है उनके पास। खींची गयी होंगी और भी तस्‍वीरें परिवार में अलग-अलग मौकों पर लेकिन पता नहीं बच्‍चों के एलबम में कहीं बची हैं भी या नहीं, वे नहीं जानते। सामान के नाम पर यही कुछ लाये हैं अपने साथ। बाकी सब कुछ एक ही झटके में छोड़ दिया है। सिर्फ सामान ही नहीं, ढेर सारी कड़वी यादें भी अपने पीछे छोड़ आये हैं। उनके बारे में, उन बीते दिनों के बारे में अब वे सोचना भी नहीं चाहते।

उन्‍होंने तस्‍वीर मेज पर रख दी है। ध्‍यान से देख रहे हैं वे इसे। वे याद करते हैं इस तस्‍वीर खिंचाने के पीछे की कहानी। तीस साल तो पुरानी रही ही होगी। मसूरी में खिंचवायी थी यह तस्‍वीर। याद करते हैं वे - उनकी इस तस्‍वीर को इस पूरे अरसे के दौरान कभी भी फ्रेम नसीब नहीं हो पाया। कभी फोटोग्राफर वाले लिफाफे में ही पड़ी रही तो कभी उनके कागजों में इधर-उधर होती रही। अब जब वे यहां आने के लिए अपने कागज पत्‍तर फरोल रहे थे तो उन्‍हें मिल गयी और वे अपने सबसे कीमती खजाने के रूप में साथ लेते आये हैं।

वे ठंडी सांस भरते है - फ्रेम नसीब भी हुआ तस्‍वीर को तो इतने बरसों के बाद। भागवंती के इस दुनिया से ही चले जाने के बाद और उनके घर छोड़ देने के बाद। तस्‍वीर की तरफ देखते-देखते उनके सामने अतीत के अलग-अलग दृश्‍य झिलमिलाने लगे हैं।

वे सिर झटकते हैं। वे कुछ भी याद नहीं करना चाहते। याद करने लायक कुछ हो तो याद करें भी। उनका बस चलता तो अपने अतीत को अपने जीवन से ही काट कर फेंक देते। इसी चक्‍कर में तो किसी को भी बताये बिना सब कुछ छोड़-छाड़ कर यहां चले आये हैं। जब किसी को उनकी परवाह नहीं रही तो वे किस के लिए और क्‍यों अपना बुढ़ापा ख्‍वार करें। एक वही तो थी जिसके आस-पास उनका जीवन सिमट कर रह गया था। अब वही नहीं रही तो क्‍या मतलब रह जाता है बाकी सब रिश्‍तों का जबकि वे सच अच्‍छी तरह से जानते हैं। अपनी इन्‍हीं आंखों से देख चुके हैं।

वे चारपाई पर लेट गये हैं। तस्‍वीर उन्‍होंने उठा ली है और दोनों हाथों से थामे हुए हैं। उन्‍हें लगता है तस्‍वीर की भागवंती फिर से सजीव हो उठी है और उसके होंठ कांप करे हैं। वह उनसे कुछ कहना चाहती है। वे जानते हैं क्‍या कहना चाह रही होगी भागवंती उनसे। कहना तो उन्‍हें भी बहुत कुछ है भागवंती से। तब भी माफी मांगनी थी उससे और आज भी उसी बात के लिए माफी मांगनी है।

काश, वे अपने मन की बात कह पाते। जब कहने की सचमुच ज़रूरत थी, तब भी उसका हाथ थाम कर कभी कह नहीं पाये वे कि अब सब कुछ उनके हाथ से बाहर जा चुका है और वे उसके लिए कुछ भी कर पाने की हालत में नहीं रहे हैं। सब कुछ होते हुए भी और सब कुछ जानते हुए भी। काश, भागवंती के लिए कुछ और कर पाते तो.....तो.......।

उनका गला भर आया है। रुलाई रोके नहीं रुक पा रही। वे कंधा मोड़ कर करवट ले कर लेट गये हैं। उन्‍होंने दूसरी बांह से मुंह ढांप लिया है। अचानक वे फफक कर रो पड़े हैं - मुझे माफ कर देना भागवंती। मैं उन राक्षसों के चंगुल से तुम्‍हें नहीं निकाल पाया। काश . ..  मैं कुछ कर पाता। हे भगवान..... मैं अपने बच्‍चों को अपनी ही मां की लाश की नीलामी करते देखने से पहले ही मर क्‍यों नहीं गया। वे हिचकियां लेते रो रहे हैं और रोते-रोते खुद को कोस रहे हैं। उन्‍होंने खुद को रोने के लिए ढीला छोड़ दिया है। भागवंती के जाने के बाद आज वे पहली बार खुल कर रो रहे हैं। पता नहीं कितने आंसू अटके हुए थे उनकी आंखों में कि खत्‍म होने में ही नहीं आते। क्‍या से क्‍या हो गया जीवन। इस संध्‍या बेला में।

रोने से उनका पूरा शरीर हिल रहा है। तभी वे अपने कंधे पर एक मजबूत लेकिन प्‍यार-भरा हाथ महसूस करते हैं। यह हाथ हौले-हौले थपकी कर उन्‍हें दिलासा दे रहा है। वे हौले से करवट बदल कर हाथ वाले आदमी को देखते हैं। सामने एक बहुत ही मजबूत और सुंदर बूढ़ा खड़ा है। आंखों में चमक और चेहरे पर मुस्‍कुराहट है। वह उनकी तरफ मुस्‍कुरा कर देखता है, सिर हिलाता है और एक बार फिर कंधा थपथपा कर दिलासा देता है।

वे उठ बैठे हैं। बांह से अपनी आंखें पोंछी हैं। उन्‍हें इस तरह किसी का बिना बताये कमरे में आना अच्‍छा नहीं लगा है। उनकी आंखों में आंखें डाल कर कह रहा है वह बिन बुलाये मेहमान - मर्द नहीं रोते।

वे झेंप कर रह गये हैं। कुछ जवाब नहीं दे पाते। अलबत्‍ता आंसू पोंछ लिये हैं उन्‍होंने और उसे बैठने का इशारा किया है।

पूछ रहा है वह सुदर्शन बूढ़ा – बीवी थी ?

वे आंसू पोछते हुए, सिर हिला कर इशारा करते हैं – हां।

– बीमार थी ?

वे सिर हिला कर इशारा करते हैं – हां।

सामने वाला बूढ़ा कह रहा है - समझता हूं मैं यह तकलीफ। खूब समझता हूं। बच्‍चों से नहीं पटती होगी इसीलिए ......।

      वे सिर झुका देते हैं।

      ये आदमी तो कोई सिद्ध पुरुष लगता है। कितने कम शब्‍दों में बात कह-सुन रहा है। उन्‍हें जवाब में कोई शब्‍द सूझते ही नहीं।

बूढ़ा आदमी कह रहा है - मुझे क्‍लर्क ने बताया आपके बारे में। यह भी कि आपने उसे काफी पैसे दे दिये हैं। बेचारा परेशान हो रहा था कि कहीं बाद में कोई लफड़ा न हो जाये। मैंने उसे समझा दिया है कि ऐसा कुछ नहीं होगा।

वे आंखों ही आंखों में मेहमान का आभार मानते हैं। कहते कुछ नहीं।

- अरे मैंने अपने बारे में तो आपको बताया ही नहीं। आपके बारे में तो मुझे जानकारी मिल ही चुकी है।

इससे पहले कि वे पूछ पायें, कैसे कि उन्‍होंने खुद ही आश्‍वस्‍त कर दिया है - आपका फार्म तो मुझे क्‍लर्क ने दिखा ही दिया था।

वे उनकी तरफ सवालिया निगाहों से देखते हैं।

वे बता रहे हैं - मैं चंदरभान हूं। काफी कुछ था मेरे पास भी लेकिन मेरे बच्‍चों और बहुओं को मुझ पर भरोसा नहीं था कि मैं मरूंगा भी या नहीं और शायद मरने पर सारी दौलत साथ ले कर जाऊंगा। मैं अपनी चारपाई की नियति जानता था। पता था मुझे, एक दिन मेरी चारपाई मेरे अपने लम्‍बे चौड़े घर की सीढ़‍ियों के नीचे आनी ही है। मैं उस दिन का इंतज़ार करने के बजाये यहां आ गया। पहले मोहवश दुखी होता रहता था लेकिन अब किसी से कोई शिकायत नहीं है मुझे। यहां सब अपने-से लगते हैं। कोई किसी से कोई उम्‍मीद नहीं रखता इसलिए शिकायत भी नहीं करता। कोशिश करता हूं कि किसी न किसी के काम आता रहूं। इस दिल ने अपने लिए जितना धड़कना था, धड़क लिया। अब दूसरों के लिए भी थोड़ा धड़क ले। शायद उम्र का तकाजा है इसलिए सबका सम्‍मान मिला हुआ है। कभी कोई भी तकलीफ हो तो मुझे बताइये। साथ वाले कमरे में ही हूं।

      वे समझ गये हैं, वे यहां अपनी तरह के अकेले नहीं हैं। चंदरभान और उनका दु:ख सांझा है। हो सकता है, और भी हों इस तरह के लोग। वे भी देर-सबेर इस माहौल में रम जायेंगे। उन्‍हें भी किसी से कोई शिकायत नहीं रहेगी। उनके जीवन का भी यही दर्शन हो जायेगा।

      वे धीरे-धीरे खुलते हैं - यहां किस किस्‍म के लोग हैं ज्‍यादातर?

चंदरभान हंसते हैं – बूढ़े तो सारे ही हैं हमारी तरह। कुछ कम और कुछ ज्‍यादा। कुछ बीमार हैं और कुछ ठीक भी हैं, मेरी तरह.......। वे अचानक गंभीर हो गये हैं - कुछ लोगों का दुनिया में कोई नहीं है। दूसरों के रहमो-करम पर जी रहे हैं। बेचारे दिन गिन रहे हैं किसी तरह। लेकिन ज्‍यादातर ऐसे हैं जिनके भरे-पूरे परिवार हैं। लेकिन अफसोस, इन बुजुर्गों के लिए न तो वक्‍त है उनके पास और न परवाह ही है। एक और संकट है ऐसे लोगों के साथ। वे यहां आ तो गये हैं घर वालों से परेशान होकर लेकिन उनके मोह से मुक्‍त नहीं हो पाते। बेचारे बहुत मुश्किल से वक्‍त काट पाते हैं। उन्‍हें अच्‍छी तरह से पता है कि उनसे मिलने अब कोई भी नहीं आयेगा, फिर भी सारे दिन दरवाजे की तरफ देखते रहते हैं कि शायद कोई आ जाये। कई बार भूले-भटके एकाध मिलने वाला आ भी जाता है।

वे पूछते हैं - तो कुल मिला कर यहां लोग परेशान ही रहते हैं ?

- सारे ऐसे नहीं हैं। आपस में किसी तरह टाइम पास कर ही लेते हैं। यहां सबसे बड़ी समस्‍या है कि किसी को सुनने वाला कोई नहीं है। कोई सुनता नहीं था इसलिए यहां आये थे और यहां तो कोई भी किसी की कहां तक सुने। सब के सब तो भीतर तक भरे पड़े हैं। सबको अपनी-अपनी बात कहनी है। सुनना कोई नहीं चाहता। उम्र बढ़ने के साथ ऐसा हो जाता है। खैर, धीरे-धीरे आप अपने आप सब जान जायेंगे। वैसे मैं सुबह सैर पर जाया करता हूं। दिन भर चुस्‍ती बनी रहती है। आप चलना चाहें तो ... जगा दिया करूंगा। वैसे यहां सुबह सात से आठ कीर्तन भी होता है। शारीरिक व्‍यायाम भी और धर्म-कर्म की बातें भी। एकाध घंटा टीवी पर भी लोग प्रवचन सुनते हैं। आप को जो पसंद हो।

वे इतना ही कह पाते हैं - जी शुक्रिया। दरअसल सैर पर मैं भी जाता हूं लेकिन मैं अकेले ही टहलना पसंद करता हूं और अब तो जब से वो गयी है.... किसी से बात करने की इच्‍छा ही नहीं होती। आप बुरा न मानें, मैं आपको ज्‍यादा कंपनी नहीं दे पाऊंगा। मुझे आपसे बात करना अच्‍छा लगेगा लेकिन मुझे थोड़ा वक्‍त लगेगा अपने आपको इस माहौल के हिसाब से ढालने के लिये। आप मेरी बात समझ रहे होंगे।

- कोई दिक्‍कत नहीं, मैं आपकी तकलीफ समझ सकता हूं। फिर भी, कभी भी मेरी सेवा की ज़रूरत हो तो.... साथ वाले कमरे में।

- जी शुक्रिया। आपका आना बहुत अच्‍छा लगा।

- चलता हूं। मिलते रहेंगे।

सवेरे-सवेरे ही देवीदयाल जी आ गये हैं। साथ में एक और आदमी है। उस व्‍यक्ति को देखते ही वे समझ गये हैं कि ये आश्रम का ही कोई पदाधिकारी होगा। उनके दिये पैसों ने देवीदयाल को रात भर सोने नहीं दिया होगा, इसलिए सुबह सवेरे ही अपना सिरदर्द बांटने के लिए आश्रम के पदाधिकारी को लेते आये हैं।

      नये आदमी ने अपना परिचय दिया है - मेरा नाम श्रीकांत है। वैसे मैं कल शाम ही आपसे मिलने आ जाता लेकिन एक काम में फंस गया सो....। उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी है। वे समझ रहे हैं कि यह लोग सब कुछ उनसे ही कहलवाना चाह रहे हैं।

वे भी अपनी ओर से अनजान बनते हुए कहते हैं    - कहिये मैं आपके किस काम आ सकता हूं।   

- हमें अच्‍छा लगा है कि आपने अपने लिए हमारा आश्रम चुना है हमारी कोशिश होगी कि आपको यहां किसी भी किस्‍म की तकलीफ न हो। श्रीकांत जी ने कहना जारी रखा - दरअसल देवीदयाल जी ने जब आपका भरा हुआ फार्म मुझे दिखाया और आपके दिये पैसे जमा करने के लिए दिये तो एक बार तो मैं भी सकते में आ गया। मुझे लगा, पैसे जमा कराने से पहले एक बार आपसे मिल लेना ठीक रहेगा। वैसे भी आपका एक अलग ही तरह का मामला है और कमेटी की मीटिंग.... मेरा मतलब.... वह उनके टफ चेहरे को देख कर हकला गया है।

- आप अपनी बात पूरी कीजिये श्रीकांत जी।

- आप बुरा न मानें। दरअसल आज तक हमारे आश्रम में इस तरह की शर्तों के साथ रहने के लिए कोई भी नहीं आया। जो भी आते हैं, अपने घर परिवार वालों के सताये ही होते हैं या वे लोग होते हैं जिनका दूर पास का ऐसा कोई अपना नहीं होता जो बुढ़ापे में उनका ख्‍याल रख सके। ज्‍यादातर लोगों की तो माली हालत ही ऐसी नहीं होती कि यहां ढंग से रह ही पायें। ऐसे में आपके ये पैसे और किसी तकलीफ की हालत में आपके घर वालों को न बताना.... मेरा मतलब....।

- देखिये श्रीकांत जी, मैं आपकी तकलीफ समझ रहा हूं। जानता हूं आपकी भी मजबूरियां हैं और देवीदयाल जी का भी सोचना एक तरह से ठीक ही है। उन्‍होंने दोनों को ही आश्‍वस्‍त करना चाहा है - एक काम कीजिये आप कि आपके जितने भी सवाल हैं या परेशानियां हैं मेरे यहां इस तरह से रहने को लेकर, आप मुझे एक साथ बता दीजिये ताकि मैं आपकी तसल्‍ली कर सकूं।

- न.... न.... आपके रहने से भला हमें क्‍यों तकलीफ होने लगी जी.... बात सिर्फ इतनी-सी है कि हम समाज सेवा से जुड़े सीधे सादे आदमी हैं। किसी भी तरह की कानूनी पेचीदगियों से बचना चाहते हैं। हमें पता है आप जैसे नेक और शरीफ आदमी से हमें कभी भी कोई भी तकलीफ नहीं होगी। लेकिन हम आपके घर वालों को तो नहीं जानते। हमें यह भी पता नहीं कि आप यहां किन वजहों से रहने आये हैं। कल को आपके घर वालों ने कोई ऐसी कानूनी अड़चन खड़ी कर दी तो हम तो मुफ्त में ही मारे जायेंगे।

- कैसी अड़चन ? उन्‍होंने जानना चाहा है।

   - भगवान न करे आपको कुछ हो जाये। हम तो आप ही के दिये आदेश मानेंगे लेकिन कहीं कोई प्रापर्टी  का झगड़ा वगैरह हुआ जिसकी वजह से आप अपने घर वालों से रूठ कर यहां आये हैं तो हमें तो सीधे अंदर करवा देंगे आपके घर वाले। आप हमारी हालत समझने की कोशिश करें।

- देखिये श्रीकांत जी, आपकी सारी बातें मेरी समझ में आ गयी हैं और ये भी कि आप किसी भी तरह की कानूनी उलझन से अपने आपको और इस आश्रम को बचाना चाहेंगे। मैं चाहूं तो आपसे झूठ भी बोल सकता हूं कि इस पूरी दुनिया में मेरा कोई भी नहीं है और मैं बिलकुल अकेला हूं और कि मुझसे इस उम्र में अपना ख्‍याल नहीं रखा जा रहा था और अकेले रहते-रहते थक गया था इसलिए अपनी उम्र के लोगों के बीच यहां रहने चला आया हूं। लेकिन मैं आपसे झूठ नहीं बोलूंगा।

वे थोड़ा रुके हैं। फिर आगे कहना शुरू किया है उन्‍होंने - अभी कुछ ही दिन पहले मेरी बीवी गुजर गयी है। हम लोगों का तरेपन साल का संग साथ था। वैसे तो हम दोनों ही उम्र के उस दौर में थे कि आगे पीछे जाना तय ही था। बेशक उसकी मौत के लिए मैंने अपने आप को तैयार कर ही लिया था लेकिन उस बेचारी की मौत के बाद मुझे अपने ही घर में जो कुछ देखना पड़ा, उससे मेरा सब रिश्‍तों से मोह भंग हो चुका है। मेरे लिए अब सब जीते जी मर चुके हैं और मैं उनके लिए मर चुका हूं। किसी को भी नहीं पता कि मैं कहां हूं और कैसे हूं। हूं भी या नहीं, किसी को खबर नहीं है।

- बाकी रही बात मेरी वजह से आश्रम को होने वाली परेशानियों की तो मैं आप लोगों को विश्‍वास दिलाता हूं कि मेरी यहां रहने की कोई शर्त नहीं है। मैं आप लोगों को किसी भी तरह की तकलीफ में नहीं डालूंगा। जहां कहेंगे, जिस कागज पर कहेंगे, साइन कर दूंगा। किसी वकील के सामने करायेंगे तो वो भी कर दूंगा। बस, इतनी इल्तिजा है कि मुझे यहां रहने दिया जाये। आप फिक्र न करें, मै अपने पैसों के बदले न तो कोई खास फरमाइश करूंगा और न ही किसी से ही इसका जिक्र ही करूंगा। इसके बावजूद अगर आपको लगता है कि मेरे यहां रहने से आपको परेशानियां ही होंगी तो मैं आपको मजबूर नहीं करूंगा। मेरे पास है ही क्‍या। चार जोड़ी कपड़े और ये दो-चार किताबें। आप नहीं रहने देंगे तो खड़े-खड़े कमरा खाली कर दूंगा। इतनी बड़ी दुनिया में कहीं तो बाकी वक्‍त गुजारने के लिए जगह मिल ही जायेगी। और कुछ  ?

- अरे नहीं साहब। आप क्‍या बात कर रहे हैं। हमें आपकी सारी बातों पर यकीन हो गया है। श्रीकांत जी घिघियाए हैं - आप आराम से रहिये यहां। अब आप जो कुछ बता रहे हैं और जिस तरह से बता रहे हैं, हमारे पास पूछने के लिए कोई सवाल ही नहीं रह जाता। हम बस यही चाहते हैं कि हम किसी कानूनी पचड़े में न पड़ें। आप लंबी उम्र पायें और आपकी सेहत बनी रहे। हमारी तो हमेशा यही कोशिश रहती है कि अगर यहां कोई अपनी उम्र के इस दौर का वक्‍त सुकून से गुज़ार पाता है और उसमें हम सबब बन पाते हैं तो हमारे लिए इससे अच्‍छी बात और क्‍या हो सकती है। श्रीकांत जी ने हथियार डाल दिये हैं - अब हम चलते हैं। आपसे मिल कर सारी बातें साफ हो गयीं। आपको किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो हमसे कहें। देवीदयाल जी यहां हैं ही सही। बीच-बीच में मैं  भी आता रहता हूं। 

- नहीं, मुझे वैसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। होगी तो ज़रूर बताऊंगा।

और दोनों उनसे इजाज़त ले कर चले गये हैं। रामदत्‍त जी ने राहत की सांस ली है। उनकी बहुत बड़ी समस्‍या हल हो गयी है।

उन्‍हें पता भी नहीं चला है और वे यहां के सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण नागरिक बनते चले गये हैं। कहां तो अपना भरा-पूरा परिवार एक ही झटके में इसलिए छोड़ कर आ गये थे कि वहां उन्‍हें कोई दो कौड़ी को नहीं पूछता था। ज़‍िन्‍दगी भर खटते हुए जो थोड़ी बहुत इज्‍जत बनायी थी, वह सब धूल में मिल रही थी और यहां आते ही उन्‍हें सबने सिर-आंखों पर बिठा लिया है। चंदर भान जी उन्‍हें बता रहे थे कि उनका कम बोलना, अपने काम से काम रखना, छोटी-छोटी चीज़ों को ले कर हाय-तौबा न मचाना, पढ़ने लिखने में वक्‍त गुज़ारना वगैरह कई ऐसी बातें हैं जिसने उन्‍हें यहां का हीरो बना दिया है। उनकी जिस बात ने सबको आतंकित करने की हद तक डरा-सहमा दिया है और उनका भक्‍त बना दिया है वह है उनका मज़बूत आर्थिक पक्ष और अपनी मनमर्जी से उनका यहां आना। वे न तो अपने घर वालों द्वारा सताये जाने के कारण यहां आये हैं और न ही उनके घर वाले ही उन्‍हें लावारिस की तरह अपनी मौत का इंतज़ार करने के लिए यहां डाल कर गये हैं। ये सारी बातें यहां एक साथ पहली बार हो रही हैं। इसलिए यहां के लोग मन ही मन उन्‍हें ईर्ष्‍या और आदर के भाव से देखने लगे हैं। चाहने लगे हैं- काश उनके हिस्‍से में भी इतना आत्‍म सम्‍मान और बेफिक्री आ पाते।

अब वे सबको कैसे बतायें कि इस झूठी और बेमतलब की शान के लिए उन्‍हें कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। कई बार वे खुद भी यहां रहने वाले बूढ़ों को देखते हैं और उनके जीवन को समझने की कोशिश करते हैं। कई बार सोचते हैं कि उन्‍हें पता होता तो पहले ही यहां आ गये होते तो कम से कम भागवंती को तो मरने से बचा सकते थे।

संध्‍या आश्रम में अब उनका मन लगने लगा है। अपने आप को उन्‍होंने यहां के शेड्यूल के हिसाब से ढाल लिया है। हालांकि यहां की गतिविधियां इतनी सीमित हैं कि खाली बैठे-बैठे किसी भी भले आदमी का दिमाग खराब हो जाये। बेशक यहां टीवी है, कैरमबोर्ड है, ताश हैं, शतरंज और किताबें, अखबार और दूसरी चीज़ें हैं लेकिन कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जो देर तक आपको बांधे रख सके। एक ऊब के बाद दूसरी ऊब शुरू हो जाती है।

सबसे ज्‍यादा तकलीफ की बात तो यही है यहां पर कि हर चीज़ के साथ एक लम्‍बा इंतज़ार जुड़ा हुआ है। सब के सब आश्रमवासी अपने आप को किसी ऐसे कस्‍बे के स्‍टेशन पर बैठा हुआ महसूस करते हैं जहां से दिन भर में इक्‍का दुक्‍का गाड़‍ियां ही गुजरती हों। एक गाड़ी के गुज़रते ही मानो दूसरी गाड़ी का इंतज़ार शुरू हो जाता है। जाना बेशक किसी को कहीं भी नहीं है और न किसी को आना ही है। सब के सब हर वक्‍त एक अनाम और अंतहीन इंतज़ार में बैठे रहते हैं। निचाट और बेमतलब का इंतज़ार। सुबह होने का इंतज़ार, फिर नाश्‍ते का इंतज़ार, फिर टीवी रूम खुलने का इंतज़ार। कुछ लोगों ने ग्‍यारह बजे की चाय के इंतज़ार को भी अपनी दिनचर्या का हिस्‍सा बना रखा है। ऐसे लोगों में ज्‍यादातर बाबू किस्‍म के वे लोग हैं जो ठीक ग्‍यारह बजे चाय और ठीक एक बजे खाना खाने को ही अपनी पूरी ज़‍िन्‍दगी का अनुशासन मान कर चलते रहे। बेचारे साढ़े नौ बजे से ही ग्‍यारह बजे की चाय के लिए इंतज़ार में बैठ जाते हैं। इधर-उधर होते रहते हैं। चाय निपटी नहीं होती कि दोपहर के खाने का इंतज़ार शुरू हो जाता है। ज्‍यादातर बूढ़े दोपहर को झपकी लेने के आदी हैं। उनके लिए मुश्किल नहीं होती लेकिन जो सो नहीं पाते उनके लिए शाम की चाय के वक्‍त का इंतज़ार बहुत भारी गुज़रता है। फिर रात के खाने का इंतज़ार। ये इंतज़ार तो ऐसे हैं जो कमोबेश हरेक के साथ जुड़े हैं। इनके अलावा अलग-अलग आश्रमवासियों ने अपनी-अपनी ज़‍िन्‍दगी में व्‍यक्तिगत स्‍तर के जो इंतज़ार जोड़ रखे हैं, वे अलग हैं। किसी को डाकिये का या कूरियर का इंतज़ार रहता है जो लगातार बना ही रहता है और कई बार तो दिनों दिन चलता ही रहता है। आंखें पथरा जाती हैं उनकी लेकिन इंतज़ार है कि खत्‍म होने में ही नहीं आता है। किसी ने कहीं से कोई दवा मंगवा रखी है। अब तक आ जानी चाहिये थी। किसी ने क्रॉस वर्ड भर कर भेजा हुआ है तो किसी को किसी खास दोस्‍त के खत का इंतज़ार है।

सबसे तकलीफदेह इंतज़ार होता है अपने सगे लोगों के आने का। कोई नहीं आता। तीज त्‍यौहार के खास मौकों पर भी कोई नहीं आता। आने की खबर भी नहीं आती। बाकी सारे इंतज़ार आने वाले दिन पर टाले जा सकते हैं। दवा अगले दिन भी आ सकती है, क्रॉस वर्ड जीतने वालों में नाम न भी आया तो भी चलेगा लेकिन किसी सगे का वायदा करके भी न आना यहां के रहने वालों को बुरी तरह से तोड़ जाता है। वे डर के मारे दोपहर में सो नहीं पाते कि कहीं ऐसा न हो कि आने वाला आ कर उन्‍हें सोया पाकर बिना मिले लौट न जाये। बहुत तकलीफदेह होता है ये इंतज़ार। सबसे ज्‍यादा त्रासद और खालीपन से भर देने वाला।

इन सबसे बड़ी और ऊबा देने वाली तकलीफ़ ये है कि किसी के पास भी करने-धरने को कुछ भी काम नहीं है। अब करें भी तो क्‍या ये बूढ़े, बीमार और लाचार आदमी। बेशक अपने सारे काम रोते कलपते खुद ही करते हैं लेकिन कोई भी तो काम ऐसा नहीं होता जो उन्‍हें दिन भर उलझाये रखे। हर वक्‍त खाली बैठे रहने से जीवन और मुश्किल लगने लगता है।

लेकिन रामदत्‍त जी को ये सारी बातें परेशान नहीं करती। वे कई मामलों में इन सबसे परे हैं। उन्‍हें किसी का भी इंतज़ार नहीं। किसी भी चीज़ के, रिश्‍ते के और संबंधों के मोह से वे पूरी तरह मुक्‍त हो चुके हैं। उन्‍होंने समय गुज़ारने का भी ठीक-ठाक सिलसिला खोज लिया है। पहले तो बारी-बारी से इन सारी चीज़ों को देखते-परखते रहे, अपने आपको पूरी तरह भुलाये रखने के लिए जबरन किसी भी काम में मन लगाने की असफल कोशिशें करते रहे। हमेशा ऐसे काम चुनते रहे जिसमें किसी और से कम से कम संवाद करना पड़े या बिलकुल ही न करना पड़े। वे बेशक काफी हद तक भागवंती के सदमे से अब उबर चुके हैं लेकिन बिना ज़रूरत सिर्फ बोलने के लिए बोलना उन्‍हें अब भी बहुत अखरता है। कभी वे आश्रम के पौधों को पानी देकर तसल्‍ली पा लेते हैं तो कभी देवीदयाल की मदद कर देते हैं हिसाब किताब में। फिर रसोई है, किताबें हैं, अखबार है, सफाई है। सुबह की लम्‍बी सैर तो है ही। वक्‍त ठीक ठाक तरीके से गुज़र ही जाता है।

       पिछले दिनों से उन्‍होंने एक नया सिलसिला शुरू कर दिया है जिससे उनका खुद का समय तो बेहतर तरीके से गुज़रने ही लगा है, बाकी लोगों को भी इससे बहुत फायदा हुआ है। उन्‍होंने पाया था कि आश्रम के पुस्‍तकालय में गिनी चुनी किताबें ही थीं। ज्‍यादातर दान में मिली हुई या कबाड़ी से रद्दी में खरीदी हुई। उन्‍होंने भाग दौड़ करके इस बात का इंतज़ाम करा लिया है कि शहर की पब्लिक लाइब्रेरी के चलते-फिरते पुस्‍तकालय की गाड़ी हफ्ते में एक बार आधे घंटे के लिए आश्रम के गेट पर भी आये। शुरू-शुरू में तो अच्‍छा रिस्‍पांस नहीं मिला लेकिन उनके और चंदरभान जी के कहने पर कई बूढ़ों ने किताबों में दिलचस्‍पी दिखायी और धीरे-धीरे किताबें जारी कराने वाले लोगों की संख्‍या बढ़ने लगी है। वे खुद मोटी-मोटी किताबें पढ़ना ही पसंद करते हैं। संत महात्‍माओं के जीवन चरित्र, महापुरुषों की आत्‍मकथाएं या ऐसी ही किताबें जो देर तक साथ दे सकें। अच्‍छा समय गुज़र जाता है किताबों की सोहबत में उनका। वे अफसोस भी करते हैं कि पहले किताबों की शरण में क्‍यों नहीं आये।

पता नहीं कैसे होता चला गया ये सब कि वे जिस एकांत की तलाश में यहां आये थे, अब दिनों दिन दुर्लभ होता जा रहा है। वे तो यहां आते समय हर तरह के रिश्‍ते नाते और मोह पाश तोड़ आये थे और यह मुसीबत उनके गले पड़ गयी है कि बैठे बिठाये सबके सलाहकार बनते चले जा रहे हैं। जिस किसी को किसी भी मामले में किसी भी तरह की सलाह लेनी होती है तो बेखटके चला आता है उनके कमरे में। किसी ने संपादक के नाम पत्र लिखा होता है, भेजने से पहले उसे सुनाना होता है तो किसी ने अपना लिखा कुछ और सुनाना होता है। कभी रसोई का कोई मामला अटक जाता है तो कभी कोई और मुसीबत सिर उठा कर खड़ी हो जाती है जिस पर उन्‍हें अपनी राय देनी पड़ जाती है और कुछ नहीं तो किसी न‍ किसी के पास कहने के लिए इतना कुछ होता है कि उनसे बेहतर श्रोता और कौन मिलेगा जो चुपचाप सुन लेता है और बदले में अपनी तरफ से कुछ भी नहीं सुनाता।

कई बार उन्‍हें हंसी भी आती है और तकलीफ़ भी होती है यहां रह रहे बेचारे बूढ़ों की ज़‍िन्‍दगी देख कर। ज्‍यादातर बूढ़े बेचारे अभावों में ही जी रहे हैं। ठीक-ठाक पैसे होते तो घरों से धकियाए ही क्‍यों जाते। इसके बावजूद वे इस बात को देख कर दंग भी हैं और खुश भी कि दूसरों के रहमो-करम पर पलने के बावजूद वे अपने बचे खुचे आत्‍म सम्‍मान के लिए लड़ मरने पर उतारू हो जाते हैं शायद इसी से उन्‍हें जीवन शक्ति मिलती है।

उन्‍हें चंदरभान ने बताया था कि यहां का सबसे पुराना बाशिंदा मेघनाथ दुनिया में बिलकुल अकेला है। कोई नहीं है उसका और उसके खर्चे के लिए पैसे लंदन से एक संस्‍था भेजती है। ऐसे कम से कम पांच लोग हैं यहां जिनका खर्च वह संस्‍था उठाती है लेकिन मजाल है, वह या कोई और इस बात को जुबान पर ले आये। जब आप उससे बात करेंगे तो वह यही बतायेगा कि उसका भरा-पूरा घर-परिवार है। उसके भाई-भतीजे और बाकी सारे नाते रिश्‍तेदार दुनिया भर के देशों में शानदार ज़‍िन्‍दगी जी रहे हैं। अपनी यहां की दरबदर ज़‍िन्‍दगी को वह यह कर जस्‍टीफाई करता है कि उसे अपना देश छोड़ कर कहीं भी रहना रास नहीं आता। वे यहीं भले।

मेघनाथ के ठीक विपरीत अर्जुन लाल जोशी हैं। राजस्‍थान की तरफ के हैं। घर पर सब हैं बीवी, बच्‍चे, भाई और दूसरे रिश्‍तेदार। सबके अपने-अपने काम धंधे हैं, खूब पैसे वाले हैं वे लोग लेकिन इन्‍हें कोई दो कौड़ी को नहीं पूछता। कब से दूसरों के रहमो-करम पर पड़े हुए हैं। बहुत हुआ तो होली दीवाली पर एकाध खत या मिठाई का डिब्‍बा आ जायेगा। बस, और कोई संबंध नहीं। वे भी अपनी तरफ से सबका तर्पण कर चुके हैं और यही कहते हैं कि कोई नहीं है उनका।

दोनों एक दूसरे के विपरीत झूठ ओढ़े जी रहे हैं और दोनों ही जानते हैं कि वे कितने अकेले और तनहा हैं और कितनी बेमतलब की ज़‍िन्‍दगी जी रहे हैं।

वे अपने कमरे में लेटे आराम कर रहे हैं। तभी वर्मा जी चले आये हैं। उन्‍हें यह आदमी हमेशा जीवन से हारा हुआ लगा है। कभी भी ऐसा नहीं होता कि इस व्‍यक्ति को ज़माने भर से शिकायत न हो। वर्मा जी को देखते ही वे समझ गये हैं कि आने वाला पूरा एक घंटा वर्मा जी की लंतरानियां सुनते बीतेगा।

   - आइये। कैसे हैं वर्मा जी। आपकी तबीयत कैसी है। वे उनका स्‍वागत करते हैं।

     - ठीक हूं। कल रात सो नहीं पाया था। पेट में गैस के गोले से उठ रहे थे। बहुत परेशानी हुई।

     - अरे मुझे जगा दिया होता।

     - यही तो तकलीफ़ है। किसी को जगाओ तो उसकी भी रात खराब करो। अब तो जी.... जैसे कैसे कट रही है। दिन गिन रहे हैं।

    - ऐसा मत कहिये वर्मा जी। जब तक जान है जहान है। अगर हम इसी तरह से हिम्‍मत हार कर दिन गिनने की बात करते रहें तो न तो आज का दिन भोग पायेंगे और न ही कल का....।

   - अजी आप भोगने की बात कर रहे हैं यहां तो जिस पर बीतती है वही जानता है।

    - मैं कब आपकी तकलीफ़ कम करके बता रहा हूं.... मैं तो.... अब उमर है तो शरीर में भी अपने हिसाब से टूट-फूट चलती ही रहती है।

   वर्मा जी बड़बड़ाने लगे हैं - पता नहीं कौन से पाप किये थे.... सब कुछ होते हुए भी ये दिन देखने पड़ रहे हैं।

   वे पूछते हैं – आपने मुझसे कुछ कहा।

   वर्माजी थके हारे जवाब देते हैं – अब कहने लायक रहा ही क्‍या है। आपको पता है कि मेरा भरा पूरा घर बार है। मेरा खुद का बनवाया हुआ आलीशान बंगला है। मैं एकाउंट्स आफिसर था मिनिस्‍ट्री में। सब कुछ बनवाया। बच्‍चों के हवाले कर दिया। लेकिन मुझे क्‍या पता था कि एक दिन मैं ही फालतू हो जाऊंगा। तिनका-तिनका जोड़ कर जो कुछ बनाया था उसे अब भोग रहे हैं वो और मैं यहां रात-भर तड़पता रहता हूं। कोई एक गिलास पानी पिलाने वाला नहीं होता।

    वे न चाहते हुए भी उन्‍हें समझाते हैं - अगर आप बुरा न मानें तो मैं आपको एक कहानी सुनाऊं वर्मा जी। बहुत ही छोटी सी कहानी है।

   वर्मा जी भड़क गये हैं - आप तो बच्‍चों की तरह बहलाने लगे। चलिये, सुनाइये कहानी।

   - जाने दीजिये कहानी। कोई और बात करते हैं। उन्‍होंने बात बदल दी है - अपने आप को खुश रखने की कोशिश कीजिये। या तो बच्‍चों को सब कुछ सौंपिये मत और सब कुछ सौंप दिया तो बच्‍चों से जितनी कम उम्‍मीद रखेंगे, उतने ही सुखी रहेंगे। तब दुनिया बेहतर और जीने लायक नजर आयेगी।

   लेकिन वर्माजी निराश ही लग रहे हैं - आप कहना क्‍या चाहते हैं।

   वे समझाते हैं - मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि हम अपना सब कुछ बच्‍चों को सौंप तो देते हैं लेकिन अपने पास एक ही हक नहीं रखते कि हम पूरे वजन के साथ अपनी बात कह सकें। उनके कान पकड़ने का हक अपने पास रखते तो न आप घर बार होते हुए अपने घर से बाहर होते और न मैं यहां अपना बुढ़ापा ख्‍वार कर रहा होता। हमने आपने एक बार वक्‍त रहते अपने बेटे या बहू का कान पकड़ा होता तो।

    वर्मा जी सहमत होते हुए कह रहे हैं - बात तो आपने बहुत काम की कही है जी लेकिन ये जो पीढ़ी है ना, कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। अब मेरी ही बात लो.... मेरी बहुओं ने मुझे घर से निकाल दिया और मेरे बेटे मुंह में दही रखे देखते रहे, चूं तक नहीं निकाली। लेकिन माफ करना, आप की अपनी कहानी इससे जुदा है क्‍या।

   वे हंस कर कहते हैं - मैंने कब कहा ? इस सब में मैं भी उतना ही शामिल हूं जितने आप हैं। मेरी बात मानिये वर्मा जी, अब तो हम आप सब कुछ छोड़-छाड़ कर यहां आ गये हैं तो क्‍यों जी जला रहे हैं। होने दो जो होता है। हमने अपने लिये जितना जीना था जी लिये। अब आराम से बाकी दिन काटें। जितना अपनी बीमारियों के बारे में सोचेंगे, उतना वे और सतायेंगी।

    वर्माजी ठंडी सांस भरते हुए कह रहे हैं - ठीक कहते हैं आप। ऐसा करना तो चाहिये हो नहीं पाता। चलता हूं, दवा का टाइम हो रहा है।

  

रामदत्‍त जी सुबह की सैर के लिए निकलने ही वाले हैं कि किसी ने बताया है - एक आश्रमवासी की मृत्‍यु हो गयी है। बेचारा कब से बीमार चल रहा था। कल शाम ही उसे अस्‍पताल भर्ती कराया गया था। अभी अभी खबर मिली कि.... । वे खबर देने वाले के साथ आफिस तक गये हैं। बाकी लोग उनसे पहले वहां पहुंच चुके हैं। देवीदयाल जी फोन पर किसी से बात कर रहे हैं।

- घर पर खबर कर दी गयी है उनके ? रामदत्‍त जी पूछ रहे हैं।

- जी, जब तक बीमार थे, मैं लगातार बताता रहा और वहां से यही खबर मिलती रही कि आ रहे हैं, आ रहे हैं। इस बीच कितनी बार तो फोन कर चुका हूं। कल जब अस्‍पताल में भर्ती कराने ले गये थे तो भी फोन पर बता दिया था, हर बार वे यही बताते रहे कि पहुंच रहे हैं। अस्‍पताल में दस तरह के झंझट होते हैं। पैसों की ज़रूरत पड़ती है और ये लोग तो सब कुछ हम पर छोड़ कर फ्री हो जाते हैं। देवीदयाल जी की यह भड़ास और कुछ नहीं, उनकी फालतू की भाग दौड़ और उससे उपजी ऊब है। वे इसी वजह से झल्‍लाये हुए हैं।

- कहां हैं उनके बच्‍चे ? रामदत्‍त जी पूछते हैं।

- पूना में हैं। वहीं का नम्‍बर मिला रहा था। मिल नहीं रहा है। देवीदयाल जी बताते हैं।

चंदरभान जी ने बीच में कहना शुरू कर दिया है    - अजी क्‍या बतायें। पहले भी बेचारा कई बार बीमार पड़ता रहा है। हर बार यही होता है। आश्रम के कायदों के अनुसार ज्‍यादा बीमार आदमी को अस्‍पताल या घर भिजवाना होता है लेकिन इस बेचारे को कोई लेने ही नहीं आता। आज आखिर मुक्‍त हो ही गया।

      - इसका तो फिर भी ठीक है कि घर से ड्राफ्ट तो आता रहता था, कोई और बता रहा है - पिछले साल यहां कुछ लोग एक बूढ़े को भरती कराने आये थे। ये इतनी लम्‍बी गाड़ी में। बूढ़ा बिचारा हफ्ते भर में ही भगवान को प्‍यारा हो गया। जब घर पर खबर भिजवाने की कोशिश की गयी तो पता चला था कि वे लोग घर का पता ही गलत दे गये थे। क्‍या करते। पुलिस में रिपोर्ट करने के बाद हम सब ने मिल कर उसका अंतिम संस्‍कार किया था।

      - बहुत विचित्र है जीवन भी। कैसे-कैसे लोग बसते हैं यहां। अपने मां बाप के प्रति इस तरह का व्‍यवहार। नरक में जगह नहीं मिलेगी ऐसे लोगों को। किसी और ने अपने आक्रोश को वाणी दी है।

     चंदरभान जी उसे समझा रहे हैं - अरे भाई फिलहाल हम उसे देखें जो गुज़र गया है। पहले हम देखें कि क्‍या करें इसका अब। बेचारा आखिरी वक्‍त तक बच्‍चों की राह  देखता रहा।

      - ये तो बहुत गलत हुआ। खैर, वैसे भी बहुत तकलीफ़ पा रहा था। एक तरह से मुक्‍त ही हो गया।

     - लाओ मुझे फोन दो। मैं देखता हूं। रामदत्‍त जी कहते हैं।

     सब लोग उनके आस-पास खड़े हैं।

     रामदत्‍त जी उसके घर का नम्‍बर मिला रहे हैं। नम्‍बर मिल गया है।

     - सुनिये, मैं बंबई से संध्‍या वृद्धाश्रम से बोल रहा हूं। हम आपको पहले भी कई बार बता चुके हैं कि आपके पिताजी की तबीयत खराब चल रही है। थोड़ी देर पहले उनका देहांत हो गया है। डैड बॉडी अभी भी अस्‍पताल में पड़ी हुई है। बताइये क्‍या करना है।

     वे दूसरी तरफ से कही गयी बात सुन रहे हैं। दो बार हां हूं करते हैं फिर धीरे से फोन रख देते हैं।

     फोन रखने के बाद वे सिर झुका कर एक खिड़की के पास जा कर खड़े हो गये हैं।

     एकदम सन्‍नाटा पसर गया है कमरे में।

     तभी चंदरभान उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछ रहे हैं - क्‍या हुआ ?

     शून्‍य में देखते हुए वे हौले से बताते हैं - लड़का था इनका। कहने लगा – अब डैथ तो हो ही चुकी है। आप लोग अंतिम संस्‍कार कर दीजिये। मैं सारे खर्च का ड्राफ्ट भिजवा दूंगा।

     अचानक वे देवीदयाल जी की तरफ मुड़े हैं - डैड बॉडी कैसे मिलेगी ?

      - वो तो मिल जायेगी क्‍योंकि उन्‍हें यहीं से भर्ती कराया गया था। पहले भी एकाध केस ऐसा हो चुका है।

     - तब आप ऐसा करो वहीं से उनके अंतिम संस्‍कार के लिए इंतज़ाम कर दो। जो भी इंतज़ाम करने हैं। शव वाहिनी वगैरह और....

      देवीदयाल जी उनके वाक्‍य पूरा होने का इंतज़ार कर रहे हैं कि चंदरभान बीच में टोक देते हैं।

      - आप फिक्र न करें। देवीदयाल जी को सब पता है। अब तक तो कितनी बार बेचारे ये सब कर चुके हैं। मरता किसी और का बाप है और सारे क्रियाकर्म इन्‍हें ही निपटाने पड़ते हैं।

      वे चुपचाप सुन रहे हैं। चंदरभान जी देवीदयाल जी को सारी बातें समझा रहे हैं।

      रामदत्‍त जी को अचानक कुछ होने लगा है। उन्‍हें कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया है। वे कुछ भी महसूस नहीं कर पा रहे और कुछ सोच भी नहीं पा रहे। उन्‍हें लग रहा है - कहीं कुछ बहुत गलत हो गया है। दूसरी बार। पचासवीं बार, हजारवीं बार। कई-कई बार हुआ है यह गलत। उन्‍हीं के साथ। दुनिया के सब बूढ़ों के साथ। हालांकि वे मरने वाले को ढंग से जानते भी नहीं थे, उसके बच्‍चों को तो बिलकुल भी नहीं, फिर भी उन्‍हें लग रहा है - उस आदमी ने फोन पर जो कुछ भी कहा, इससे पहले भी कभी उनसे भी कहा जा चुका है या कहा गया होगा, या कहा जाता।

      सिर्फ उनसे ही नहीं, हर बूढ़े से, हर बीमार से और हर आर्थिक रूप से कमज़ोर आदमी से।

      उन्‍हें लग रहा है कि दुनिया भर के ऐसे सभी अभिशप्‍त, बूढ़े और लाचार बाप अभी और इसी वक्‍त मर गये हैं और उन सब की लावारिस लाशें अंतिम संस्‍कार के इंतज़ार में हर अस्‍पताल के हर कमरे में, हर बेड पर, हर आश्रम में, हर घर के बाहर और हर शहर के हर चौराहे पर पड़ी हुई हैं। लाखों-करोड़ों लाशें जिनकी पथराई आंखों में अभी भी एक अविश्‍वसनीय-सा इंतज़ार अटका हुआ नज़र आ रहा है। ये लाशें सदियों से यूं ही अंतिम संस्‍कार के इंतज़ार में पड़ी हुई हैं और जिन्‍हें मुखाग्नि देनी है, वे सब के सब विदेशी दौरों पर गये हुए हैं, पंच तारा होटलों में बड़े-बड़े सौदे पटा रहे हैं, अर्जेंट मीटिंगों में व्‍यस्‍त हैं, ब्रीफ केसों का आदान-प्रदान कर रहे हैं और उनकी सेक्रेटरी बता रही है कि साहब अभी भी बिज़ी हैं। वह यह भी बताती है कि साहब को उनके फादर की डैथ की सैड न्‍यूज दे दी गयी है और साहब की तरफ से एक आउटसाइड एजेंसी को फोन कर दिया गया है - अंतिम संस्‍कार कर जाने के लिए। वे लोग बस आते ही होंगे। पेमेंट की चिंता न करें। कम्‍पनी के एकाउंट से कर दिया जायेगा।

      वे देखते हैं कि इन लाखों-करोड़ों लाशों में से एक लाश उनकी खुद की भी है। एक अकेला देवीदयाल है जिसके जिम्‍मे ऐसे सभी बापों का अंतिम संस्‍कार करना है। वह भाग-भाग कर लाइन में पड़ी हजारों-लाखों, करोड़ों लाशों को मुखाग्नि दे रहा है। उसका चेहरा बुरी तरह से लाल हो गया है और थकान के मारे उसका बुरा हाल है।

      वे देवीदयाल की तरफ देखते हैं। अचानक उन्‍हें लगता है कि देवीदयाल भी उन्‍हीं की तरफ देख रहा है। वह कुछ पूछ रहा है। पता नहीं क्‍या पूछा है उसने लेकिन उन्‍हें यही सुनायी दिया है कि वह उनसे तैयार होने के लिए कह रहा है क्‍योंकि अंतिम संस्‍कार के लिए अगला नम्‍बर उन्‍हीं का है। देवीदयाल के पास समय बहुत कम है और काम बहुत है। उन्‍हें लगता है देवीदयाल और इंतज़ार नहीं कर सकता और कपाल क्रिया करने के लिए जलती हुई लकड़ी ले कर उनकी तरफ बढ़ा चला आ रहा है।

      वे सकपका कर पीछे हटे हैं। उन्‍हें समझ में नहीं आया -ये सब क्‍या हो रहा है। तभी चंदरभान जी ने उन्‍हें संभाला है। पूछ रहे हैं - तबीयत तो ठीक है आपकी ?

      वे चंदरभान जी की तरफ मुड़ते हैं - हां, मैं ठीक हूं। जरा कुछ सोचने लगा था।

      वे खुद को संभालते हैं। एक बार फिर देवीदयाल की तरफ देखना चाहते हैं लेकिन हिम्‍मत नहीं जुटा पाते। वे खड़े होते हैं और चंदरभान जी से कहते हैं।

      - चलिये, जब तक उनके अंतिम संस्‍कार का इंतज़ाम हो, हम एक चक्‍कर लगा आयें। चंदरभान बिना कुछ बोले उनके साथ चल पड़े हैं। ये पहली बार हो रहा है कि दोनों एक साथ सैर को जा रहे हैं।

      चंदर भान साफ-साफ देख रहे हैं कि वे गहरी उथल-पुथल में से गुज़र रहे हैं और कुछ है जो उनके भीतर से बाहर आना चाह रहा है। वे सही शब्‍द और सही मौके के इंतज़ार में हैं।

      चंदरभान उनके साथ-साथ चुपचाप चल रहे हैं।

      तभी उनकी गहरी और सधी हुई आवाज गूंजती है- आपने कई बार मुझसे मेरे अतीत के बारे में जानना चाहा है। बेशक पहली बार के बाद आपने कभी कहा नहीं लेकिन मैं जानता था कि आप और बाकी सब भी मेरे अतीत के बारे में, मेरी पिछली ज़‍िन्‍दगी के बारे में हमेशा जानना चाहते रहे।

      चंदरभान उन्‍हें टोकना चाहते हैं लेकिन वे हाथ के इशारे से मना कर देते हैं - नहीं कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। मैं आज अपने बारे में आपको सब कुछ बताऊंगा। मुझे यकीन है मेरी सारी बातें आप तक ही रहेंगी। आज के इस हादसे के बाद मुझे लग रहा है कि मैं कम से कम किसी एक से तो अपनी बात कह ही जाऊं। सही व्‍यक्ति आप ही हैं। मुझे भी लावारिस ही मरना है और जल्‍द ही एक दिन ऐसा आयेगा कि देवी दयाल जी और आप सब ये सारे इंतज़ाम मेरे लिए कर रहे होंगे। मैं किसी भी गलत फहमी में आप सब को छोड़ कर जाना नहीं चाहता। बेशक मैंने इस बात की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है कि मेरे मरने के बाद मेरे घर पर फोन किया जाये और वहां से आप लोगों को इस तरह का कोई जवाब सुनना पड़े या...... लावारिस की तरह मेरी लाश को फूंकने के लिए चंदे का इंतज़ाम करना पड़े। मैंने सब इंतज़ाम कर दिये हैं।

      - दरअसल मेरी कहानी भी, देखा जाये तो कोई अनोखी नहीं और जुदा नहीं है आश्रम के दूसरे लोगों की कहानी से। वही बच्‍चों की तरफ से सताया जाना और बहुओं का जलील करने वाला व्‍यवहार लेकिन मैं वह सब भी सहन कर ही लेता, कर ही रहा था इतने बरस से, लेकिन भागवंती, यानी मेरी बीवी के मरने पर कुछ ऐसी बातें हो गयीं हमारे घर में कि मैं बुरी तरह से टूट गया और मेरे लिए एक ही झटके में सब कुछ खत्‍म हो गया। मैं सब कुछ छोड़-छाड़ कर यहां चला आया।

      वे रुके हैं। फिर बोले हैं - ठहरिये, मैं आपको थोड़ा पीछे से बताता हूं।  

      - सन सैंतालिस में हम पाकिस्‍तान में सब कुछ लुटा कर आये थे। ज्‍यादा डिटेल्‍स में नहीं जाऊंगा क्‍योंकि ये बात किसी से छुपी नहीं है कि हम लोग वहां क्‍या थे और यहां आ कर क्‍या रह गये थे। मेरे साथ मेरी पत्‍नी थी और गोद में दो बेटे थे। एक छ: साल का और दूसरा दो साल का। यूं समझ लीजिये, हिन्‍दुस्‍तान में आ कर मैंने सबसे पहला काम जो किया वह था, जालंधर में सड़कों पर चूहे मारने की दवा बेचने का।

      ये काम भी बहुत ही अजीब तरीके से मेरे हिस्‍से में आया था। हम एक बंद दुकान के थड़े पर बैठे थे। भूख से बेहाल और हर तरह से लाचार। बच्‍चों ने सुबह से कुछ खाया नहीं था। जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी और न ही कहीं से आने की उम्‍मीद ही थी। तभी उस दुकान का मालिक आया और दुकान खोलने लगा। बच्‍चे भूख से कुरला रहे थे। हमारी जो हालत थी उसमें कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं थी। दुकानदार समझदार था। हालात के मारे लोगों की तकलीफें तब किसी से छुपी नहीं थीं। उसने बिना कुछ कहे सुने दो काम किये। पहले तो हमें भरपेट खाना खिलाया और दूसरे......... उसने मुझे एक थैला थमा दिया और कहने लगा - मैं जानता हूं, आपके लायक ये काम नहीं है लेकिन कुछ न होने से तो बेहतर ही है। चूहे मारने की दवा है ये। दिन भर घूमेंगे तो इतने पैसे आ जायेंगे कि बच्‍चों के पेट में अन्‍न का दाना डाल सकें।

      आप यकीन मानिये वह आदमी उस वक्‍त मुझे देवदूत की तरह लगा था। जब मैंने दुकानदार से कहा कि मेरे पास तो उसे देने के लिए एक धेला भी नहीं है तो उसने कहा था - मेरे पैसे कहीं नहीं जा रहे। आप बस, रोज ये दवा बेचते रहें। जब खतम हो जाये तो और ले जायें। पैसे मैं लेता रहूंगा। आप फिक्र न करें। आपके अच्‍छे दिन लौट कर आयेंगे।

      मैंने पूरे दो महीने यही काम किया था। हम चारों एक साथ घूमते रहते। पूरा शहर नापते रहते। आवाज़ें मारते। एक भी पैकेट बिकता तो कुछ खरीद कर बच्‍चों को खिलाते। आपको हंसी आयेगी कि हम बेचते तो चूहे मारने की दवा थे लेकिन दुआ ये करते थे कि खूब चूहे पैदा हों ताकि हमारी दवा खूब बिके।

      खैर, ये दौर भी खत्‍म हुआ और उस दुकानदार की मदद और दुआ से हमारे अच्‍छे दिन लौट कर आये। मैंने फिर से कई छोटे-मोटे धंधे किये। धीरे-धीरे पैसे जोड़े। छत का इंतज़ाम किया। फिर जब कुछ पैसे जुड़ गये तो बजाजी का अपना पुराना काम शुरू किया और घर-बार फिर से सैट हुआ। छोटी-सी दुकान का जुगाड़ भी हो गया। काम चल निकला तो बच्‍चों की पढ़ाई शुरू हुई। हमारी मेहनत रंग लायी और ज़‍िन्‍दगी की गाड़ी पटरी पर वापिस आयी। बहुत मुश्किल थे वे दिन लेकिन किसी तरह निकल ही गये थे। अच्‍छे और बुरे, दोनों ही दिन ज्‍यादा देर तक हमारे साथ नहीं रहते।

      बड़े वाले ने इंजीनियरिंग की और छोटे वाले ने बी.ए. करके ठीक-ठाक नौकरी पकड़ी। बड़े की अच्‍छी-खासी नौकरी थी। शुरू-शुरू में तो सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। बड़े की शादी हुई। बस, ये समझ लीजिये कि बड़े की शादी होते ही हमारे दुर्दिन शुरू हुए। तब हम वज़ह समझ नहीं पाये थे और नये शादीशुदा बेटे से पूछ भी नहीं पाते थे लेकिन तभी हमारे घर में सामान बढ़ने लगा था। खूब पैसा आने लगा था। उसकी मां पूछती तो टालते हुए कह देता - ससुराल वालों ने भेजा है। ये तो हमें तब पता चला कि एक दिन उसे रिश्‍वत लेने के चक्‍कर में घर पर बिठा दिया गया है। इसके बावजूद वह यही कहता रहा कि उसने करप्‍ट मशीनरी का हिस्‍सा बनने से मना कर दिया था इसलिए उसे झूठमूठ फंसाया गया है।

      लेकिन सच कहां छुपता है। शादी होते ही उसकी ज्‍यादा कमाने की हवस बढ़ने लगी थी और उसने गलत तरीकों से कमाना शुरू कर दिया था। उसे नचाने वाली आ चुकी थी। हर चीज़ की एक सीमा होती है। बेशक रिश्‍वत लेने की बात ही क्‍यों न हो। दाल में नमक चल जाता है लेकिन वह तो नमक में से दाल निकालने की फिराक में था। वह तो रातों रात अमीर बनना चाहता था। नतीजा क्‍या हुआ। सड़क पर आ चुका था।

      तभी हमारे दुर्दिनों की दूसरी किस्‍त जारी हुई। बड़े ने अपनी मां को नयी पट्टी पढ़ाई कि वह अपनी ससुराल वालों के साथ मिल कर प्रापर्टी एजेंट का काम शुरू करना चाहता है। मैं भी उसके झांसे में आ गया। क्‍या हुआ अगर हमारा बेटा रिश्‍वत के चक्‍कर में नौकरी से निकाला गया था। आखिर था तो अपना बेटा ही। हमने अपनी सारी जमा पूंजी उसे सौंप दी। पहले पैसे दिये, फिर अपना घर बिका। चली चलायी दुकान भी उसके धंधे की भेंट चढ़ गयी। इधर वह ऊपर उठने लगा और मेरी ढलान की यात्रा शरू हुई। मेरा काम धंधे की सारी पूंजी तो उसके धंधे में ट्रांसफर हो रही थी। और एक दिन ऐसा भी आया कि मैं सड़क पर था और उसका धंधा फलने-फूलने लगा था।

      यह मेरे दुर्दिनों की तीसरी किस्‍त थी। और मेरे हिस्‍से में वह दिन भी देखना आया कि मैं उसकी दुकान पर बैठने को मजबूर हो चुका था।

       अब मेरा घर बार खत्‍म हो चुका था। मेरा घर बिक चुका था और हम दोनों मियां बीवी बड़े बेटे की आलीशान कोठी में एक छोटे से कमरे में शिफ्ट हो चुके थे। अब तक छोटा बेटा भी अपनी लगी लगायी नौकरी छोड़ कर बड़े बेटे के साथ इसी धंधे में आ गया था। दोनों बेतहाशा पैसा पीट रहे थे। हमें अपने बच्‍चों को तरक्‍की करते देख खुश होना चाहिये था लेकिन कुछ ऐसा था कि मैं चीज़ों को स्‍वीकार ही नहीं कर पा रहा था।

      तभी मेरी ज‍़‍िन्‍दगी में बदकिस्‍मती ने एक बार फिर दस्‍तक दी। मेरी बीवी भागवंती को कैंसर हुआ और.... और दोनों बेटों के बीच धंधे को ले कर झगड़े होने शुरू हुए। दोनों में रोज़ फैसले होते और रोज़ ही झगड़े होते। दोनों को ही इस बात की परवाह नहीं थी कि उनकी मां जीती है या मरती है। मैं तो उनसे कुछ भी कहने सुनने के हक से परे जा चुका था।

      अब मेरी हैसियत मुफ्त के नौकर की हो चुकी थी। सब चिढ़ते मुझसे। हरामखोर हो चुका था मैं। घर पर रहता तो मुसीबत, दुकान पर बैठूं तो मुसीबत। दुकान का नौकर बंसी मुझसे अच्‍छा था। महीने की दस तारीख को गिन कर पूरी तनखा तो ले जाता था जबकि काम मैं भी उतना ही करता। ग्राहकों को चाय पिलाता, उनके झूठे गिलास धोता। दुकान में झाडू तक तो लगाता। मैं समझ ही नहीं पाता अब और कितनी उम्‍मीद करते थे वे इन बूढ़ी हडि्डयों से ? अपने सगे बाप से। कई बार अफसोस भी होता, गुस्‍सा भी आता कि अब इन सत्‍तर साल की बूढ़ी हडि्डयों के साथ और कितना खटता रहूं। सब कुछ इन्‍हें दे दिया। इन साहबजादों के लिए जमा जमाया घर-बार, दुकान सब छोड़ कर, सब कुछ इन्‍हें सौंप दिया। यही सोचते रहे- हमारी क्‍या है कट जायेगी, बची ही कितनी है। अब दोनों लाखों-करोडों में खेल रहे थे और उनका बाप.... ।

      उधर भागवंती मुझे ही समझाने की कोशिश करती – अब जाने भी दो। जब तुम्‍हारा वक्‍त था तो तुम्‍हारी चलती थी। गलत बातें भी सही मानी जाती थीं। अब वक्‍त से समझौता कर लो। सही गलत.... ।

      मैं उसे टोकता तू सही गलत की बात कर रही है.... यहां तो कोई बात भी करने को राजी नहीं है। अपने पोता पोती कभी हमसे सीधे मुंह बात नहीं करते।

            तो इसी तरह से दिन कट रहे थे हमारे।

            तभी हमारे दुर्भाग्‍य ने एक और पर्ची काटी हमारे नाम।

      एक दिन बड़ा यह संदेश ले कर आया कि उन दोनों में फैसला हो गया है। और इस बंटवारे में हम दोनों भी बांट दिये गये थे दोनों में बाकी प्रापर्टी की तरह। मेरे पास कुछ भी कहने का कोई हक नहीं बचा था। कहने के सारे हक तो मैंने उसी दिन उनके पक्ष में गिरवी रख दिये थे जिस दिन अपना सब कुछ उन्‍हें सौंप दिया था।

      एक बात बताऊं आपको कि आप तब तक कुछ कहने लायक हालत में होते हैं जब तक आपके पास पैसे की ताकत होती है। वरना आज जो आदमी मरा है उसके लड़के की यह कहने की भला हिम्‍मत हो सकती थी कि आप लोग मेरे बाप का अंतिम संस्‍कार कर दो और बिल भेज दो। वह यह बात इसीलिए कह पाया क्‍योंकि वह जानता था कि उसका बाप आज उस पर मोहताज है इसलिए कहने सुनने के सारे हक खो चुका है।

      खैर, तो मैं अपनी बात बता रहा था। जिस रात फैसला हुआ उन दोनों में।

      बड़ा बेटा मेरे कमरे में आया था और मुझे बता रहा था- हमने तय.... किया है.... कि अब.... मांजी.... कुछ दिन.... छोटे.... के पास रह लें। उसकी बीवी.... की इच्‍छा है कि.... वह भी मांजी.... की सेवा....

      हालांकि मैं सब कुछ सुन चुका था और जानता था कि मेरी कोई भी बात मानी नहीं जायेगी फिर भी हलका सा विरोध किया था मैंने- लेकिन बेटा.... उसका इलाज.... दवा.... कब कौन सी.... कैसे....

      मेरे बेटे ने मेरी बात हवा में उड़ा दी थी- अरे बाउजी, कोई समंदर पार थोड़े ही जा रही हैं। चारकोप है ही कितनी दूर। फिर आप तो हैं ही सही। आप दोनों के लिए तो दोनों घर अपने। एक पैर इधर और एक पैर उधर। हम भी आते जाते बने रहेंगे। फोन भी दोनों घरों में है ही सही। अब मैं। छोटे की इच्‍छा कैसे टालता ?

      मैंने हार मान ली थी- ठीक है। जो तुम दोनों का फैसला। अब हम क्‍या कहें, जहां रखोगे, जैसे रखोगे, रह लेंगे। और वह अपना फैसला हम पर थोप कर चला गया था।

      मुझे भागवंती की दवाई लानी थी। मैं जब जाने लगा तो उसने रोका था मुझे, वह शराब रखने का केबिनेट खोल कर देख रहा था- एक मिनट ठहरें जरा। उसने पर्स में से कुछ नोट निकाल कर मुझे दिये थे और कहा था- ऐसा करना, बाउजी, एक बोतल ब्‍लैक नाइट लेते आना। नौ सौ की आयेगी। दवाई भी इसी में से ले लेना। शकुंतला से भी पूछ लीजिए, कुछ चाहिये हो तो....

      मैंने चुपचाप पैसे ले लिये थे और बाहर आ गया था।

      मैं सोच रहा था- मेरे बेटे ने मुझे बारह सौ रूपये दिये हैं और शराब की बोतल मंगवायी है। बताया है- नौ सौ की आयेगी। यह भी कहा है- उसकी बीमार मां की दवा भी उन्‍हीं पैसों में से लेता आऊं। नौ सौ अस्‍सी की शराब आयेगी। हम दोनों के महीने के खर्च से भी ज्‍यादा। बंसी के पूरे महीने की तन्‍खा। हम दोनों के खर्च से ज्‍यादा तो हमारी पोती कुकी की पाकेट मनी है। उतना बोझ था हमारा जो अकेले नहीं उठा पा रहे थे। बंटवारा कर लिया हमारा।

      मैं शराब तो ले आया था लेकिन मूड बुरी तरह उखड़ चुका था मेरा। ये क्‍या हो रहा था हमारी जिन्‍दगी के साथ। थी।

      उधर ड्राइंगरूम में पार्टी अपने शिखर पर थी। दोनों बेटे अपनी-अपनी हांक रहे थे और एक दूसरे से दुनिया के बेहतरीन झूठ बोल रहे थे।  

    उधर भागवंती अपने बच्‍चों के ड्रामे से बेखबर अपनी ही दुनिया में विचर रही थी- मुझे यहां से भेज कर भूल मत जाना। कभी-कभी आते रहना। फोन कर लिया करना। मैं तो क्‍या ही आऊंगी वापिस अब.... बची ही कितनी है।

      मैं जैसे रो पड़ा था – ऐसा मत कहो भागवंती। हमारी औलाद तो ऊपर वाले से भी ज्‍यादा जालिम निकली। वह भी इतना निर्दयी नहीं होगा। जब भी बुलावा भेजेगा, आगे पीछे चले जायेंगे। वहां तो आगे पीछे ही जाना होता है ना। यहां तो जीते ही अलग कर रही है हमें हमारी अपनी कोख जायी औलाद। अपनी नहीं सोचता, लेकिन तुम्‍हारी तरफ देखता हूं तो.... और मैं सचमुच फफक पड़ा था।

अगले दिन छोटे बेटे की बीवी आ कर उन्‍हें ले गयी थी। ये जाना आखिरी बार जाना था। जरा सा तो सामान था उनका। एक अटैची, दवाई की शीशियां और एक जोड़ी चप्‍पल। बस, इतना ही सामान मेरा भी था जो मैं बाद में यहां लेकर आया था। पूरे सत्‍तर बरस तक खटने के बाद यही कुछ बचा था हमारे पास। हमारी पूरी जिन्‍दगी का जोड़-बाकी।

      बेशक उस रात फैसला हो गया था दोनों में और दोनों ने शराब के नशे में ढेरों वायदे भी किए थे और कसमें भी खायी थी लेकिन अगली सुबह नशा उतरते ही दोनों को ही, और खास कर दोनों की बीवियों को लगा था कि वे दोनों ही ठगे गए हैं। छोटे बेटे को लग रहा था कि बड़े ने मीठी-मीठी बातें करके उसे पूरी तरह ठग लिया है। छोटे की बीवी ने ताना मारा था कि ये फैसले भावनाओं में बह कर नहीं होते। आपको जब पता ही है कि वो चालाकी करेंगे तो आप को भी पूरी प्रापर्टियों के बारे में गिन गिन कर फैसला करना चाहिए था। 

      छोटा यही हिसाब लग रहा था कि बड़े भाई के पास कम से कम चालीस लाख तो नकद होना ही चाहिए। बड़े भाई ने जो प्रापर्टीज ऐसे देने की बात की है, नकद पांच लाख मिला कर मुश्किल से तीस पैतीस लाख के करीब बनते हैं जबकि बड़े भाई के हिस्‍से में दो करोड़ से भी ज्‍यादा की चीजें आ रही हैं। नकद अलग। यह जानकर छोटे बेटे की बीवी के तन बदन में आग लग गयी थी- तो इसका मतलब हुआ, उन्‍होंने आपको दसवें हिस्‍से में ही बाहर का रास्‍ता दिखा दिया है।

      छोटा भी यही सोच सोच कर परेशान हो रहा था।

 

दोनों बेटों के चक्‍कर में हम दोनों की जिन्‍दगी ख्‍वार हो रही थी। मैं ही वहां चक्‍कर काटता। बेशक भागवंती यही कहती कि वह वहां छोटे के घर ज्‍यादा आराम से थी। लेकिन वह कितने बड़े धोखे में थी जो छोटा बेटा उसे दे रहा था। जब मुझे भी पता चला तो कितने देर हो चुकी थी। सब कुछ खत्‍म हो चुका था। इधर दोनों अपनी-अपनी जिद पर अड़े थे। छोटे को बराबरी का हिस्‍सा चाहिए था और बड़ा जितना तय कर चुका, उससे एक पैसा ज्‍यादा देने को तैयार नहीं था। हमारे सुनते नहीं थे और दुनिया भर को बीच में ला रहे थे।

एक रात उसकी तबीयत अचानक खराब हो गयी थी और सब कुछ खत्‍म हो गया था। वह भी खत्‍म हो गयी थी और-----और सारे रिश्‍ते नाते खत्‍म हो गये थे। यह कह कर रामदत्‍त जी एक पुलिया पर बैठ गये और दोनों हाथों से अपना मुंह ढक लिया। चंदरभान जी ने उनके कंधे पर हाथ रखा।

      रामदत्‍त जी ने रुक कर आगे कहना शुरु किया है - आधी रात का वक्‍त था। उस वक्‍त मैं बड़े बेटे के घर पर ही था। अचानक फोन की घंटी बजी थी। मैं समझ गया था। अनहोनी हो चुकी है। लेकिन मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि ये अनहोनी इस रूप में होगी।

      बड़े बेटे ने लाइट जलायी थी। मैं भी उठ कर फोन के पास आ गया था। देखा- रात के ढाई बजे थे।

बड़े ने फोन उठाया था।

दूसरी तरफ छोटा बेटा था।

बड़े ने पूछा था- तू इस वक्‍त। रात के ढाई बजे। सब खैरियत तो है ना

छोटा दूसरी तरफ से बोल रहा था- पहले मेरी पूरी बात सुन ले। तभी फोन रखना। अभी थोड़ी देर पहले मां जी गुजर गयीं। अंतिम संस्‍कार कल सुबह ग्‍यारह बजे होगा। आप मांजी के अंतिम दर्शन तभी कर पायेंगे जब आप प्रापर्टीज में से मेरे हिस्‍से के पचास लाख का कागजात ले कर आयेंगे।

और फोन कट गया था।

रामदत्‍त जी पुलिया से उठ खड़े हुए हैं और चंदरभान जी को वापिस चलने का इशारा किया है। दोनों काफी देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर वे खुद ही आगे बताना शुरू करते हैं।

- आप उस वक्‍त की मेरी हालत समझ सकते हैं। मेरी बीवी की लाश छोटे बेटे के घर में पड़ी हुई थी और मैं उसका अंतिम दर्शन तक नहीं कर सकता था। जी तो चाहता था दोनों बेटों को उसी वक्‍त पुलिस के हवाले कर दूं लेकिन मेरी सोचने समझने की सारी शक्ति खत्‍म हो चुकी थी। मैं रोना चाहता था, बीवी को दो आंसुओं के साथ विदा करना चाहता था लेकिन कुछ भी मेरे बस में नहीं रहा था। मैं एकाएक चुप हो गया था और सारे मामले से अपने आपको अलग कर लिया था और वहीं बरामदे में एक कोने में सारे वक्‍त कुर्सी पर चुपचाप बैठा रह गया था।

दोनों बेटों ने इसे अपनी अपनी इज्‍जत का मामला बना लिया था। पूरी बिरादरी को बीच में लाया गया था और आखिर शाम चार बजे भागवंती का अंतिम संस्‍कार हो पाया था।

रामदत्‍त जी फिर चुप हो गये हैं। चंदरभान जी उनका हाथ थामे उनके साथ साथ चल रहे हैं।

- बस, उसी दिन मेरा आखिरी संवाद हुआ था अपने उन हत्‍यारे बेटों से। भागवंती के सामान से मुझे ये रुपये मिले थे। अगर मुझे पहले से पता होता कि उसके पास इतने पैसे हैं तो मैं उसे मरने नहीं देता-------- कतई मरने नहीं देता। कहीं भी ले जा कर उसका इलाज कराता। लेकिन मैं उसे जरूर बचा लेता। मुझे पता है चंदरभान जी, आ----- आप मुझे रोने भी नहीं देंगे लेकिन मैं आपसे एक सवाल तो पूछ सकता हूं ना—

- पूछिये ना------ चंदरभान जी के चेहरे पर आश्‍वस्‍त करने वाला भाव है।

- इस पूरे मामले में मेरी गलती क्‍या थी जो मेरी भागवंती को अपने ही जाये बेटों के हाथ ये दिन देखना पड़ा। उन्‍होंने चंदरभान जी के दोनों हाथ थाम लिये हैं और बार-बार यही सवाल पूछ रहे हैं।

चंदरभान जी ने हौले से उनके हाथ दबाये हैं और कहा है - आपकी कोई गलती नहीं थी। बेशक आपको इतनी तकलीफ से गुजरना पड़ा और अपने ही बच्‍चों के हाथों अपनी पत्‍नी की ख्‍वारी देखनी पड़ी। इसका कारण मेरी निगाह में तो यही समझ में आता है कि अगर अगली पीढ़ी अपने आपको पिछली पीढ़ी की तुलना में ज्‍यादा व्‍यावहारिक, चतुर और सयानी समझती है और ये मान कर चलती है कि उसे देने के लिए पिछली पीढ़ी के पास कुछ भी नहीं है, ज‍‍बकि सच्‍चाई यह होती है कि अगर इस पीढ़ी को पिछली इक्‍यावन पीढ़‍ियों की विरासत मिली है तो पचास पीढ़‍ियों की विरासत तो हमारे पास भी तो थी। बस, यही समझने और समझाने को फेर है और इसमें मात हमेशा पिछली पीढ़ी को ही खानी पड़ती है क्‍योंकि उसके पास आर्थिक आधार नहीं रहता। आपके मामले में भी आपके बच्‍चे जानते थे कि जब आपके पास उन्‍हें देने के लिए कुछ नहीं....।

- ठीक कह रहे हैं आप कि आर्थिक आधार छूटना ही सबसे बड़ी हार होती है हम जैसे लोगों के लिए। खैर छोडिये, चलें। सब लोग हमारा इंतजार कर रहे होंगे।

वे दोनों वापिस मुड़े हैं।

सूर्य इस समय ठीक सिर पर आ गया है।


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